कुछ मौसम अनकहे से

Saturday, April 30, 2022

 विगत वर्ष प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'निकट' के अमरीक सिंह दीप विशेषांक में मेरा भी एक संस्मरण प्रकाशित हुआ था | प्रस्तुत है मेरी आत्मीय यादों से भरा वही संस्मरण-


 

                                                          कुछ मौसम अनकहे से 

                                                                                     प्रियंका गुप्ता 


जाते हुए जाड़े की एक गुलाबी सी सुबह और ऐसे में आया एक फोन कॉल...। इधर उधर की तमाम बातों, कुछ बचपन सी मासूम हँसी और हलकी-फुल्की गंभीर मुस्कराहटों के साथ चलते-चलते अचानक से रुकना और सामने से जबरन ओढ़ी गई कड़ाई के साथ आदेश...

‘निकट’ का एक अंक अमरीक सिंह ‘दीप’ पर निकाल रहा हूँ और तुम तो उनको बचपन से जानती हो, उनके बारे में ढेरों यादें होंगी...। मुझे तुम्हारा एक संस्मरण चाहिए ।

दिल तो बहुत शरारती होता है, सो उसने चाहा, एक चुटकी ले ले...अंकल, दीप अंकल को जब पहली बार मिले थे तब हम खुद छोटे बच्चे थे, तो उनको बचपन से कैसे जान सकते हैं...? पर दिमाग़ ने सचेत किया...चुप रहना, सामने से गम्भीर आदेश है । ऐसा न हो अपनी बदमाशी के चलते आज डांट भी खा जाओ...। फिर बैठी रहना मुँह बिदोर के...। सो खुद भी गंभीरता ओढ़ी और हामी भर दी...बिना ये सोचे कि जब लिखने बैठूँगी तो क्या भूलूँगी और क्या याद करूँगी...।

मुझे अक्सर लगता है, कभी-कभी हम यादों की कतरनें इकठ्ठा करते हैं । जैसे किसी फटी-पुरानी किताब का एक पन्ना...। मानो पूरी क़िताब वक़्त की आँधी में कहीं गुम गई हो और अब हमारे पास उसका सिर्फ़ एक टुकड़ा ही बचा हो, जिसे बहुत सम्हाल के कहीं रख देना हो...।

सच कहूँ तो दीप अंकल और मेरा साथ भी कुछ ऐसा ही रहा । जब याद करने बैठो तो कोई बहुत अपना-सा, पिता-सरीखा इंसान सामने आ खड़ा होता है...और कभी कभी उनके बारे में कहने चलो तो बस एक लाइन...? हद है यार! 

दीप अंकल से अपनी पहली मुलाक़ात मुझे आज भी बहुत अच्छे से याद है । 84 के दंगे हुए कुछ ही महीने हुए थे और माँ की साहित्यिक संस्था ‘यथार्थ’ का गठन हुए लगभग एक साल से कुछ ही अधिक...। उस इतवार को भी ‘यथार्थ’ की गोष्ठी चल रही थी और कानपुर के साहित्यकारों के बीच मेरे जैसा एकलौता बच्चा भी हमेशा की तरह शामिल था । तभी हमारे उस किराये के मकान के बिन दरवाज़े वाले गलियारे को पार करते हुए दो लोग हमारे ड्राइंग रूम की चौखट के उस पार रुक गए । लम्बी-चौड़ी, गेहुएँ रंग की एक महिला के साथ लगभग उतने ही लम्बे, पर कुछ दुबले-से...एकं काँधे पर झोला और चेहरे पर कुछ दुविधा और संकोच के भाव लटकाए एक सरदार जी...। चलती गोष्ठी और तेज़-तेज़ आवाज़ में हो रही चर्चा कुछ ऐसे थमी जैसे कोई बहुत महँगी वाली मोटरसाइकिल अचानक से रेड लाइट पर जाकर इस डर से फटाक से ब्रेक मारे कि सामने खड़ा कांस्टेबिल अभी न रुकने पर वहीँ से खींच कर डंडा फेंक मारेगा । 

जितनी दुविधा और भय की छाया आगंतुकों के चेहरे पर थी, उससे कहीं ज्यादा नहीं, तो कमतर भी नहीं वाली स्थिति कमरे में मौजूद हर व्यक्ति की थी । तब उम्र के तकाजे से समझ नहीं आया था, पर आज सोचती हूँ तो लगता है, हम इंसान किस तरह परिस्थिति के हिसाब से क्षण भर में अपनी मनस्थिति भी बदल डालते हैं । कुछ महीनों पहले हुए हिन्दू-सिखों के भीषण दंगों ने जिस तरह की असहजता भरी लकीर दोनों तबकों के बीच खींच दी थी, ‘यथार्थ’ की उस दिन की गोष्ठी के उस एक पल को याद करते ही साफ़ समझ में आ जाती है । माँ मेजबान थीं, सो उन्होंने ने ही संकोच और असहजता की उस लकीर को मद्धम करने की पहल की...आप का परिचय ?

मैं अमरीक सिंह दीप...हिंदी की कहानियाँ लिखता हूँ और ये मेरी दोस्त...तारन गुजराल...हिंदी-पंजाबी की साहित्यकार...। बेहद धीमी, नरम सी एक आवाज़ कमरे में तैरी तो कईयों के माथे पर खिंची हुई प्रत्यंचा थोड़ी ढीली पड़ी । अपनी आदतानुसार माँ ने गर्मजोशी से खड़े होते हुए आगंतुकों का स्वागत किया...आइए, बैठिए...। मैं प्रेम गुप्ता ‘मानी’, साहित्यिक संस्था ‘यथार्थ’ की संस्थापिका और संचालिका...। हर महीने की तरह आज भी ‘यथार्थ’ की कथा-गोष्ठी हो रही है, इसमें उर्दू के तो कई कथाकार हैं, अब पंजाबी साहित्य से आप लोगों को शामिल करके अच्छा लगेगा ।

आम तौर पर भरी भीड़ में मितभाषी माँ, जब मेजबान होने के फ़र्ज़ निभाने पर आती थीं, तो मुखर हो उठती थी । सो गोष्ठी की आयोजिका और घर की मेजबान की ऊर्जा का असर ये हुआ कि एक- एक करके सबकी तनी गर्दनों और भृकुटियों में ढील आई और उस भरे कमरे में एक-दूसरे की तरफ सिमटते हुए आने वालों के लिए भी जगह बनाई गई । माँ ने अपनी कुर्सी किसी और के लिए छोड़ी और उस कमरे की सबसे छोटी (और शायद सबसे अ-महत्वपूर्ण ?) होने के नाते मेरा स्थान भी मुझे थपकियाते हुए छीन लिया गया । मेरे पास भी करने के लिए सैकड़ों काम थे, मसलन एक-आध पेज का बचा हुआ होमवर्क...स्कूल लाइब्रेरी से लाई हुई किसी किताब के बचे आखिरी कुछ पन्ने...या फिर बोर महसूस करने पर ऊपर रहने वाली मकान-मालकिन की मेरी हमउम्र बेटी...। सो ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ जैसी किसी भी फीलिंग से परे रहते हुए इस तरह प्यार से भगाए जाने पर भी मैंने उड़ती हुई नज़र आने वालों पर डाली और कमरे से बाहर चली गई...और इस तरह दीप अंकल से मेरी उस पहली मुलाक़ात का अंत हुआ । 

अंकल से दूसरी मुलाक़ात की ऐसी कोई ख़ास याद नहीं । सच कहूँ तो शायद उससे आगे की कई मुलाक़ातों के सिरे मेरी पकड़ से कहीं बहुत दूर हैं । जाहिर सी बात है, शुरूआती महीनों में गोष्ठियों में ही आए होंगे और उसी दौरान आत्मीयता के कुछ ऐसे सूत्र उनके हाथ लगे होंगे कि धीरे धीरे रविवार या छुट्टी के दिन या फिर किसी अलसाई-सी शामों में उनका हमारे घर आना-जाना, घंटों बैठ कर दुनिया-जहान की बातें करने का सिलसिला चल निकला होगा । 

अगर शुरुआती मुलाकातों में किसी यादगार रह जाने वाले दिन की बात करूँ तो ‘यथार्थ’ की ही गोष्ठी में उन्होंने अपनी पहली कहानी पढ़ी थी- कहाँ जाएगा सिद्धार्थ- जिसे सुन कर गोष्ठी में मौजूद राव अंकल (श्री राजेन्द्र राव जी) ने एक ‘वाह!’ के साथ कहा था- आज हिंदी साहित्य के आकाश पर एक नए सितारे ने जन्म लिया है जिसकी चमक बहुत दूर तक जाएगी । (शब्द चाहे थोड़े इतर रहे होंगे, पर भाव यही थे...। वैसे भी उस समय मुझे कौन सा पता था कि कभी किसी संस्मरण में इस बारे में लिखना होगा ?) 

राव अंकल के कहने पर ही दीप अंकल ने इस कहानी को उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परिवर्तन’ में छपने भेजा था और कई साल बाद इसी कहानी के नाम से उनका कथा-संग्रह भी छपा । 

अगर सच कहूँ तो राव अंकल की जिह्वा पर उस क्षण शायद माँ सरस्वती ही विराजी थीं तभी दीप अंकल ने उस दिन जो शुरुआत की तो फिर अक्सर ही उनकी कोई-न-कोई कहानी तैयार मिलती । बेचारे बहुत सारे बाकी लेखक ! कहाँ तो महीनों सिर खपाओ...दिमाग के घोड़े दौड़ाओ...कई कई ड्राफ्ट लिखो-फाड़ो और तब कहीं जाकर एक कहानी बन पाती है, कहाँ दिन भर काँधे पर झोला लटकाये... तीर घाट से मीर घाट तक का सफर साइकिल पर पैडल मारते हुए, दिन भर मजदूरी करने वाला ये इंसान दे दनादन कहानियों पे कहानियाँ लिखे जा रहा । सामने तो पता नहीं किसी ने ये हिम्मत की या नहीं, पर पीठ पीछे लोगों ने भड़ास निकालनी शुरू कर दी...अरे दीप जी का क्या, उनके पास तो बोरे में कहानियाँ भर कर रखी हुई हैं...। जब मौका मिला, बोरे में हाथ डाल कर एक कहानी निकाल कर छपने भेज देते हैं...। हमको तो भैय्या दिमाग़ लगा कर लिखना पड़ता है...। 

अब ये सब कहने वाले अपनी रौ में ये भूल जाते थे कि बोरे में भर कर रखने के लिए भी अगर कहानियाँ लिखी जाएँ तो उनमें भी दिमाग़ का ही इस्तेमाल किया जाएगा...थोडा बहुत दिल भी निचोड़ना पड़ सकता है...अब किडनी और लीवर से कहानियाँ लिखी जाने से तो रही । 

अब दिल की बात जब कहानियों के लिए निकली है तो असल ज़िन्दगी में दिल से जुड़े किस्से कैसे छोड़ दूँ...? 

दीप अंकल कहानियाँ लिखते हैं, ये तो सबको पता है...विगत वर्षों में उन्होंने उपन्यास भी लिखा, पर वे कविताएँ भी लिखते हैं, पता नहीं ये कितने लोगों को पता है ? पर इस कविता से जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा भी मेरी यादों का एक हिस्सा है ।

हुआ कुछ यूँ था कि उस ज़माने में दीप अंकल ने लिखी एक कविता और उसी शाम जब वो घर आए तो ज़ाहिर सी बात है, किसी भी कवि की तरह उनका दिल भी किया कि वो कविता मानी जी को सुनाई जाए...। मेरी बात का मतलब ये बिलकुल न निकालिएगा कि हर कवि मानी जी को ही कविता सुनाना चाहता था, मेरा कहने का सिंपल सा अर्थ- मानी जी के घर आए थे तो लाजिमी था, उनको ही सुनाया जाए । सो दीप अंकल ने अपने झोले से डायरी निकाली, गला साफ़ किया और कविता की पहली दो पंक्तियाँ सुनाई । आगे जो हो रहा था, उसे सुनाने से पहले बस इतना और बता दूँ कि अंकल के आने से कुछ देर पहले मेरे मामा का बेटा चिंटू, जो उस समय मात्र छह-सात महीने का ही था, उसे हम लोग के पास छोड़ कर नानी कहीं गई थीं और वह पूरी शिद्दत से माँ की गोदी में उचकता हुआ उनका ध्यान अपनी ओर खींचने में व्यस्त था । 

तो दीप अंकल ने अपनी कविता की अगली पंक्ति सुनाने की जैसे ही कोशिश की, चिंटू ने हाथ में पकड़ी दूध की बोतल हवा में उछाल दी । कविता मुझे भी सुननी थी, सो मैं वहीँ बैठी थी । हवा में उछली बोतल मैंने लपक तो ली, पर माँ और अंकल दोनों का ध्यान भी हवा हो गया । अगले कई पलों तक अंकल ने अलग-अलग तरीके से आगे की पंक्तियाँ सुनाने की कोशिश की, पर चिंटू ने कभी माँ का बाल खींच कर, कभी हवा में साइकिलिंग कर के और फिर आखिर में जाने किस बात पर अपने संगीतमय होने का परिचय देते हुए अंकल की हर कोशिश नाकाम कर दी । 

इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि हमने वो कविता सुनी नहीं, पर अगली बार...जब हँसते हुए अंकल ने डायरी निकालने से पहले ही पूछ लिया...आज तो घर में उस उम्र का कोई बच्चा नहीं है न...? 

सहज रूप से याद करूँ तो औरों की तरह शायद मुझे भी ये एक बस मज़ेदार घटना भर लगेगी, पर अगर गहराई से सोचने बैठूँ तो ये उनके साहित्य के प्रति गहरी लगन के तौर पर याद आती है । उनके अन्दर अगर अपने साहित्य को सबके सामने पेश करने की ललक दिखती थी, तो दूसरे के लिखे को भी उतने ही उत्साह से सबके सामने चर्चा में लाते थे । उसी दौर में जब मेरे पहले बालकथा संग्रह को हिंदी साहित्य संस्थान का ‘सूर अनुशंसा’ पुरस्कार मिला था, तो उन्होंने मुझे अपनी जेब से निकाल कर एक पेन भेंट किया था, ये कहते हुए कि वो उनका फेवरेट पेन है और इससे मैं भी कई यादगार रचनाएँ लिखूँगी और एक दिन बहुत सफल भी होऊँगी...।

खुद की सफलता का तो मुझे नहीं पता, पर बहुत सालों बाद मेरी एक बड़ी कहानी ‘यथार्थ’ की गोष्ठी में सुनते हुए जब भाव-विह्वल से दीप अंकल ने अपने उस आशीर्वाद की बात याद की, तो अनजाने ही मेरी आँखें भी नम हो उठी थीं ।

दीप अंकल ने भी दुनिया के हर इंसान की तरह ही ज़िंदगी में ढेरों उतार-चढाव देखे...लगाने वालों ने कई लांछन भी लगाए...। कई तो इतने बुरे कि उसके बारे में चर्चा करते हुए उनकी आँखों में आँसू छलकते भी देखे मैंने...। कभी तो अपने बारे में कही गई कई बुरी बातों को एक हँसी में उड़ाते हुए उन्होंने मानो डंके की चोट पर हामी भी भरी...और कई बार उन्हें नकार कर आगे भी बढ़ गए...।

‘मैं तो मजदूर आदमी हूँ...सारी ज़िन्दगी साइकिल पर पैडल मारते चला हूँ । कितने बोझ उठाए हैं, तो ज़िन्दगी के दिए दर्दों का बोझ उठाने से कैसा गुरेज़...?’

सौ प्रतिशत ये शब्द न भी रहे हों, पर एक बार किसी बात पर उन्होंने कुछ ऐसा ही कहा था...। स्त्री-मन की संवेदनाओं को अपने भीतर उतार कर कहानी लिखने वाले इस कथाकार पर कई चारित्रिक लांछन भी लगे । औरों का तो नहीं पता, पर सच कहूँ तो मुझे नहीं लगता कि अपनी महिला-मित्रों की उपस्थिति अपनी कहानियों में उतारने वाले अमरीक सिंह दीप ने कभी किसी महिला के लिए कोई असम्मानजनक बात कही हो...या फिर कभी किसी से अपने रिश्तों को दूसरों के सामने चटखारे लेकर बयान किया हो । 

वैसे असम्मानजनक लगने वाली एक बात से भी मेरी एक याद जुड़ी है । ‘यथार्थ’ की गोष्ठियों में आते-आते दीप अंकल कब-कैसे पारिवारिक स्तर पर भी अक्सर ही छुट्टी के दिन या शामों को घर आने लगे, मुझे याद नहीं...। अपनी रचनाएँ तो वो सुनाते ही, माँ को भी अक्सर कुछ-न-कुछ लिखने के लिए बोलते ही रहते थे । ऐसे ही किसी दिन माँ ने उन्हें अपनी नई कहानी के बारे में बताया तो वो सुनाने की ज़िद करने लगे । माँ शुरू से ही बेहद संकोची रही हैं, सो अपनी रचनाओं को किसी को सुनाने के नाम पर वो हमेशा पतली गली से निकलने की कोशिश करती थीं । उस दिन भी शायद न सुनाने के लिए ही उन्होंने पतली गली पकड़ी तो जाने किस रौ में दीप अंकल ने बोल दिया- बहुत दुष्ट हो...। 

माँ एकदम सनाका खा गई । नाना-नानी की बेहद लाडली माँ को तो शायद उन्होंने भी कभी दुष्ट नहीं बोला होगा और आज एकदम से किसी बाहरी ने इस तरह उनका अपमान कर दिया । माँ ने लिहाज में तुरंत तो कुछ नहीं बोला, पर मुझे यकीन है, हमेशा की तरह गुस्से से उनका चेहरा लाल तो ज़रूर हुआ होगा । दीप अंकल को पता नहीं उस लाली की तपन लगी या बिना सोचे-समझे निकले उस शब्द के असर का अहसास हुआ, पर पाँच-दस मिनट से भी कम समय में वे वहाँ से चले गए ।

मेरी भुलक्कड़ माँ बहुत कुछ भूल जाती हैं, पर अगर कुछ चुभ गया हो तो वो चुभन उनकी यादों में जैसे किसी बबूल की तरह मजबूती से जम कर रह जाती है । इस घटना (या दुर्घटना) के साथ भी यही हुआ । हमेशा विनम्र रहे दीप अंकल के लिए तो शायद ये आई-गई वाले हिसाब की बात हो गई, पर उस दिन के बाद की उनकी दो-एक मुलाकातों में अपनी आदत से मजबूर माँ ने मेहमान-नवाज़ी का हक़ अदा करते हुए अंकल के सामने चाय-नाश्ता तो रख दिया, पर खुद उनको पापा के सहारे ही छोड़ कर दूसरे कमरे में ही रही । 

दीप अंकल को समझ आ गया था कि कहीं कुछ गड़बड़ हो चुकी है, सो अगली विजिट में उन्होंने अपना संशय ज़ाहिर कर ही दिया । माँ के पेट में भी ये बबूल दर्द किए हुए था, सो उन्होंने भी साफ़ शब्दों में बोल दिया, “आपने मेरा अपमान किया है और अपने सम्मान की कीमत पर हम कोई व्यवहार नहीं निभा सकते...।”

मुझे दीप अंकल का वो चेहरा आज भी याद है...जैसे किसी बुजुर्ग को अपने से छोटो के सामने अपनी ग़लती के अहसास से उपजी पीड़ा हो...। आँखों की डबडबाहट उनकी आवाज़ भी भिगो गई थी और उस दिन ‘मानी जी’ कहने वाले दीप अंकल ने पहली बार माँ को ‘तुम’ कह कर संबोधित किया था- मैं उम्र में तुमसे बहुत बड़ा हूँ और हम पंजाबी लोग प्यार में भी गाली दे देते हैं...। तुम्हारा अपमान करने का इरादा तो बिलकुल था ही नहीं, बस छोटा समझ कर मैंने तुमको स्नेह से ‘दुष्ट’ कहा था...गाली के तौर पर नहीं...। छोटी तो हो, पर अगर इतना बुरा लगा है तो कहो तो हाथ जोड़ कर तुमसे माफ़ी माँग लेता हूँ...।

माँ एकदम अचकचा गई थीं...। ज़िन्दगी में अपनत्व और स्नेहवश भी किसी को गरियाया जा सकता है, ये शायद उनके लिए भी एकदम एलियन चीज थी । अंकल की इस स्वीकारोक्ति ने जहाँ हम सबको पारिवारिक स्तर पर एक-दूसरे से और भी अपनत्व की डोर से बाँधा, वहीँ मुझे उस उम्र में एक बहुत बड़ी सीख भी मिली...कोई आपसे छोटा भी हो तो खुले दिल से उससे माफ़ी माँग लेने से आप सच में बड़े हो जाते हैं...।

पारिवारिक अपनत्व होने के बावजूद माँ कभी अंकल की महिला-मित्रों की श्रेणी में नहीं शामिल हो पाई...। बेचारे अंकल ! आते तो वो इस आशा में थे कि माँ से कुछ साहित्यिक चर्चा होगी, पर साहित्यकार होने के बावजूद माँ कभी अपने घरेलू आवरण से बाहर नहीं निकल पाई । सो अधिकतर होता तो यही था कि अंकल के आने पर उनको चाय-नाश्ता देकर और थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद माँ या तो सबके लिए कुछ बढ़िया-सा नाश्ता बनाने के चक्कर में...या फिर शाम के खाने की तैयारी में रसोईं में होती, तो कभी मेरा होमवर्क पूरा हुआ या नहीं, इस ज़िम्मेदारी में लग जाती और अंकल अपनी साहित्यिक ऊर्जा को पापा के ऊपर खर्च करके चले जाते...। एक बार तो किसी बात पर उनकी ये झल्लाहट निकल भी आई थी...क्या आऊँ यहाँ...? आओ तो ये सोच कर कि मानी से किसी कहानी पर या किताब पर चर्चा होगी, पर वो तो चाय-नाश्ते में लगी रहती है और गुप्ता जी को बैठा कर खुद गायब हो जाती है...। उनकी झल्लाहट पर माँ को जाने क्या आनंद मिला कि वे खूब खिलखिला कर हँसी थीं...और ये बात सच में आई-गई हो गई...। वैसे शायद ये पारिवारिकता अंकल को भी कहीं-न-कहीं अच्छी लगी होगी, तभी तो वो कई बार आंटी और अपने बेटा-बेटी को लेकर भी हमारे घर आए और हम सब भी उनके यहाँ जाया करते थे ।

कहते हैं न, चौथ का चाँद देख लो तो एक कलंक लगता है । अंकल के लिए मुझे अक्सर लगता रहा कि शायद अपनी कहानियों में किसी चाँद सी महबूबा की कल्पना उतारने के लिए उन्होंने किसी चौथ के चाँद को भी ज़रूर निहारा होगा, तभी ज़िन्दगी के सफ़र में एक ऐसा मक़ाम भी आया जब एक कलंक उनके माथे पर भी लगा । 

छोटी थी इस लिए सन मुझे याद नहीं, पर शायद अस्सी का ही दशक था जब कानपुर के साहित्याकाश पर सुमति अय्यर नाम का सितारा चमका था । मद्रास से आई सांवली-सलोनी सुमति आंटी भी अक्सर हमारे यहाँ आया करती थीं, ‘यथार्थ’ की भी कई गोष्ठियों में उनकी शिरकत होने लगी थी । धीरे-धीरे बोलने वाली सुमति आंटी से उतनी घनिष्ठता तो नहीं हो पाई थी, पर दीप अंकल की वो ‘बेस्ट-फ्रेंड’ थीं और इसी नाते उनका बहुत सारा जिक्र अंकल की बातों में होता था । इस घनिष्ठ साथ और दोनों की आत्मीयता का असर दीप अंकल की उस दौर की लिखी गई कहानियों और कविताओं में भी बिलकुल साफ़ झलकता है जब उनकी कई सारी कहानियों की नायिकाएँ अपने रंग-रूप और स्वभावजनित विशेषताओं में हुबहू सुमति आंटी की याद दिलाती हैं । न सिर्फ बरसों बाद समझदार होने पर उन कहानियों को पढ़ कर मुझे ऐसा महसूस हुआ, बल्कि कुछेक कहानी और कविताओं में इस समानता और असर की बाबत खुद दीप अंकल ने भी ये बात बोली ।

बहुत कम समय में ही सुमति आंटी भी कानपुर का जाना-माना नाम बन ही रही थीं कि नियति कहूँ या कुछ जालिम हैवानों की करनी, काल के क्रूर हाथों ने उन्हें उनके अपनों से बड़ी बेदर्दी से छीन लिया । इस दुर्घटना के पीछे की सच्चाई या तो वो जानती थीं या ईश्वर...पर उनके इस दुर्भाग्य का छींटा दीप अंकल पर भी पड़ा था । 

जैसा कि आम तौर पर होता ही है, जाने वाले के सबसे क़रीबी और सबसे ज्यादा हमदर्दों पर ही कानून सबसे पहले अपना शिकंजा कसता है...। कानपुर में दीप अंकल ही इन दो कसौटियों पर खरे उतारते थे सो उस दौरान उनको भी कानून के रखवालों के कई सारे सवालातों और मानसिक प्रताड़नाओ का सामना करना पड़ा । पर कहते हैं न-साँच को आँच क्या...? सो दीप अंकल भी एक दिन इन सब झंझावातों के घेरे से बाहर आ तो गए, पर न केवल उस दौर में, बल्कि अब भी कभी उन पलों की याद भर से दीप अंकल की आँखों की नमी साफ़ महसूस की जा सकती है । नमी एक सच्चे दोस्त और हमदर्द को खोने की...नमी उसके मातम को मनाने न देने की...नमी उन हजारों तकलीफ़देह सवालों की...नमी जाने कितनों की आँखों में तैरते शक़ के चुभन की...और नमी जाने कितनी अधूरी-अनकही बातों के रह जाने की...। पर यही सब ही नहीं, बल्कि अपने आगे के जीवन में भी दीप अंकल ने विधि द्वारा दी गई कई तकलीफ़ों का न केवल डट कर सामना ही किया बल्कि हर बार किसी अजेय योद्धा की तरह उनसे बाहर निकले भी और लगातार अपना साहित्यिक सफ़र ज़ारी भी रखा ।

क्या कहूँ...और कितना कहूँ...? जब दीप अंकल से जुड़ी अपनी यादों का पिटारा खोलने बैठी थी तो समझ ही नहीं आया था न कि लिखना क्या है...और अब लग रहा, अभी कितना कुछ बाकी है लिखने को, बोलने को...। आज दीप अंकल बयासी साल के हो चुके, पर फिर भी उनसे मिल कर, बातें करके कभी नहीं लगता कि वे दुनिया के हिसाब से ज़रा भी पुराने हुए...। किताबों, पुरानी  फिल्मों की सीडी और ढेर सारे पुराने गानों के कलेक्शन के दरमियाँ मिलने वाले अमरीक सिंह दीप आज भी उतने ही नए हैं, जैसे उनको पहली बार देखने पर थे । बहुत कुछ कहा गया है उनके लिए, उनके लेखन के लिए...उनकी निजी बातों के लिए भी...पर अब भी बहुत कुछ है जो अनकहा है और रह ही जाएगा हमेशा अनकहा-अनजाना, पर बिलकुल सच...।

पर क्या फ़र्क पड़ता है ? क्या ज़रूरी है कि किसी की आत्मा तक को परत-दर-परत छीलते हुए उसके बारे में सब कुछ जान ही लिया जाए...? कुछ बातें अनकही-अनजानी ही अच्छी...बिन महसूसे किसी मौसम की तरह ही हसीन...। तो चलो, जाने ही दो...कुछ यादों को अनछुआ छोड़ देना ही अच्छा...। 

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                                                                                                  (प्रियंका गुप्ता)

                                    

     


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1 comments

  1. संस्मरण पढ़कर एक और साहित्यकार से परिचय और आपकी बचपन की साहित्यिक गतिविधियों का पता चला. बहुत प्रफुल्लित मिजाज़ से लिखे इस संस्मरण से न जाने कितनी यादें ताज़ा हो गई होंगी. शुभकामनाएँ.

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