श्री कृष्ण बिहारी की कहानी- इंतज़ार

Tuesday, April 19, 2022

 वैसे तो यह ब्लॉग मेरी अपनी बातो, अपनी रचनाओं और अपनी यादों के लिए है...लेकिन अभी हाल में ही मुझे अहसास हुआ कि अकेले चलना कुछ मामलों में भले ही एक अलग तरह के सुखद अहसास से भरा हो, पर ज़िंदगी जीने का असली मज़ा तो तब बढ़ता है जब आपके कुछ अपने-से लोग उस सफ़र में आपके सहयात्री बन कर चलें...।

तो बस, इसी सोच के साथ, इस कही-अनकही में पहली बार हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर श्री कृष्ण बिहारी की  कहानी- इंतज़ार-आपकी नज़र करती हूँ ।

(साभार-लेखक )


इंतज़ार

 

कृष्ण बिहारी

 

 

 

वह गांव जा रहा है, चाची को देखने जा रहा है, मिलने नहीं, मिलना तो कुछ और होता है। इस देखने में मिलना तो कतई शामिल नहीं है... क्या मिलना और किससे मिलना? मिलने के लिए प्रबल इच्छा होनी चाहिए, मगर वह तो बहुत बुझे और आशंकित मन से किसी तरह चल रहा था...

 क्या चाची के मन में भी मिलने की कोई इच्छा शेष होगी?

 क्या पता हो... क्‍या पता स्मृतियां भी न बची हों.

 न बची हों तो ज़्यादा ठीक होगा। लेकिन दुख क्‍या यूं ही विलग हो जाता है? वह तो सीने में घर बना लेता है...सीने को भीतर ही भीतर चालने के लिए झींगुर की तरह चाल देता है दुख...

 वर्तमान का बोझ ही क्‍या उनके अतीत से कम भारी है जो चाची सहते हुए जी पाएंगे?

 पता नहीं वह उन्हें इस हाल में देख कैसे पाएगा? उनके साथ कुछ देर बैठ भी पाएगा या नहीं? कौन जाने...

 कानपुर से चलते समय उसने नरेन्दर को फ़ोन कर दिया था...

 सुबह पांच बजे ट्रेन पहुंची थी गोरखपुर | हर बार की तरह नरेन्दर स्टेशन पर ही लेने आ गया था। बचपन की दोस्ती है, नरेन्दर को सरकारी क्वार्टर स्टेशन के पास मिला था। वहां निपटने, नहाने-खाने की सुविधा भी थी। गांव में तो अब चाची के अलावा और कोई था भी नहीं। निपट अकेलापन। चाची उसके लिए तंग न हों इसलिए वह नरेन्दर के क्वार्टर से खा-पीकर उसकी मोटरसाइकिल लेकर निकला कि घंटे-दो घंटे उनके पास बैठकर वापस नरेन्दर के क्वार्टर आ जाएगा और रात की गाड़ी से ही वापस कानपुर। कई सालों से ऐसा ही हो रहा था...

गिनती की छुट्टियों में इतने दिन भी कहां मिलते थे कि कानपुर में ही कायदे से दस दिन अम्मां के साथ रह लिया जाए...

 विदेश से भाग कर वह खुद से किए गए इस वायदे के साथ आता है कि अबकी अधिक से अधिक समय अम्मां के साथ बिताएगा, लेकिन हर बार सारा वक़्त भागते-दौड़ते निकल जाता और सबसे कम समय अम्मां के ही हिस्से आता है। सत्तर पार कर चुकी हैं। स्वास्थ्य भी अब ठीक नहीं रहता। लौटते वक्‍त बड़ी कोफ़्त होती है। आया किसके लिए था और रहा किनके साथ...

 मोटरसाइकिल हिचकोले लेती हुई और कभी-कभी लगभग उछलती हुई छताई पुल से खजनी की ओर चल रही थी। चल क्या रही थी, उसे ढो रही थी। मन भारी हो तो हर चीज़ की गति क्‍या दुनिया ही ठहर जाती है। कभी इसी सड़क पर वह फरंटि भरता हुआ गुज़रा है। तब भी गांव ही गया, चाची तब भी थीं लेकिन तब उनमें कुछ ऐसा बाकी था जो कम से कम इस दुख से ऊपर था। मगर अब तो कुछ भी ऐसा नहीं बचा कि कोई संवाद का ज़रिया बने...

 रोज़-रोज़ की भागा-दौड़ी में एक दिन अम्मां के पास बैठा। गांव-घर का हाल-चाल सुनने तभी अम्मां ने कहा था कि सखी पर तो ज़िंदगी भर पहाड़ ही टूटता रहा...और अब तो बज्जरे गिर पड़ा...

 अवधेश और विमला, चाची की तीन में से दो संतानों की अचानक और असामयिक मृत्यु। दोनों मौतें ताबड़तोड़ एक के बाद एक हुई...

 अम्मां ने जो कुछ बताया उसे सुनकर तो वह ईश्वर के अस्तित्व पर ही शंका कर बैठा। वह सचमुच है भी या लोग उस पर यूं ही आस्था रखते हैं.

 उसने सोचा कि चाची को देख लेना चाहिए। कई साल हो गए गांव गए...

 पता नहीं किस हाल में होंगी? टेलीफ़ोन भी तो घर में नहीं था कि मालूम कर लिया जाए...

 सखी माने चाची...और सखी माने सख्य भाव...कुछ भी गोपन नहीं...

 क्या अम्मां और चाची में सचमुच कुछ गोपन नहीं था...

 चाची अम्मां के गांव की थीं। इस तरह उस गांव के दो घरों में उसका ननिहाल था...

छोटा-सा गांव...कुल दस-बारह घरों का...उसमें भी दो ननिहाल... पूरे गांव से एक बड़ा अजब रिश्ता...जिस घर में घुस जाए उसी का नाती...उसी का भैने...उफ्फ...ओ मोहब्बत कि उसका बयान मुश्लिक...कहां मिलती है वैसी मोहब्बत आज...याद नहीं कि किसी घर से बिना भर-पेट खाए बाहर निकला...रिश्ते में लगने वाली नानी और मामियां ठूस-ठूसकर भर देती थीं पेट... दूध-दही और न जाने क्या-क्या...इतना ही नहीं, खिलाते हुए असीसती जाती थीं कि बाबू बढ़े तरकुलवा की नइयां...

 उनमें से कोई सगा नहीं था। लेकिन सभी सगे से बढ़कर थे। आज तो सगे भी चाहते हैं कि कोई सगा घर न आए...तरकुल तो तरकुल, कोई भांटे जितना भी बढ़े, यह भी कोई नहीं चाहता...यह नया ज़माना है। मगर उस ज़माने में उसकी उम्र के बच्चों की छुट्टियां पूरी की पूरी ननिहाल में बीतती थीं...

 तब दुनिया कितनी मीठी हुआ करती थी...

 उस मीठे दौर में ही अम्मां और चाची सखी हो गई थीं...सखी होने के बाद दोनों एक-दूसरे को सखी कह कर बुलातीं...कितना अच्छा लगता था...जब इन शब्दों के अर्थ समझ में नहीं आते थे...

 मगर कितना कुछ सोचता हुआ गुज़र रहा है वह। रास्ता कट रहा है या वह किसी तरह उससे दो-चार हो रहा है.

 स्टेशन से...राजघाट...नौसढ़...जैतीपुर...छताई...खजनी...खजनी से आगे उनवल चौराहा...और चौराहे से आगे सड़क से उतर कर साढ़े तीन किलोमीटर पर उसका गांव...मगर खजनी से पहले जमुरा का पुल...उससे गुज़रते हुए डर लग रहा है, पहले भी लगता था...पुल थरथराता जो था...लोग कहते थे कि ये पुल तो हरदम “बलि' मांगता है.

 जमुरा का पुल उसे आज भी वैसा ही लगा जैसा पैंतालीस वर्ष पहले पहली बार दिखा था। तब वह बैलगाड़ी से स्टेशन जा रहा था। उसके बैल थे कि शेरे बबर। झूम के चलते थे। पीठ पर पैना तो क्या हाथ तक फिराने नहीं देते थे। हाथ रखते ही लठिया लेकर दौड़ने लगते थे।

 कितनी बार वह बैलगाड़ी से भी इस रास्ते से गुज़रा है। केदार पासी गाड़ी हांकते थे और वह उनसे निहोरा करता था कि तनी हमहूं के हांके द...अ.

बहुत निहोरा करने के बाद केदार उसे अपने आगे बिठा कर बगनी धमाते थे...और वह बैलगाड़ी हांकते हुए केदार की नकल करता, “वाह बेट्टा वाह.. -तनी ललकार के जवान...” और बैलों के गले में बंधी पीतल की घंटियों के बजने की आवाज़ तेज़ हो जाती...और अगर कभी गांव से एकला होते हुए गोरखपुर जाना होता तो बैल मय सवारी लढ़िया लिए आमी पौर जाते...उसके बैलों की जोड़ी को लोग दूर-दूरसे देखने आते थे...वैसे बैल आज भी तो होते होंगे...लेकिन अब बैलों से खेती करता कौन है? हरवाह ही नहीं मिलते। भूसा तो खेत में ही सड़ जाता है। गांव में गोरू की पूंछ किसी के दरवाजे पर नहीं है, आज से नहीं, न जाने कितने साल से। सचमुच एक सन्नाटा पसर गया है गांवों में। सबके गांवों में भुतहा प्रकोप समा गया है। किसी गांव में कोई दरवाज़ा अब भरा-भरा नहीं है, कैसे-कैसे ख़याल आ रहे हैं...और यह जमुरा का हिलता पुल...एक गाड़ी भी अगर गुज़रे तो आज भी उसी तरह थरथराता है। उन्हीं दिनों की तरह...

 चाची की किस्मत भी तो सारी ज़िंदगी थरथराती ही रही...

 चाची

 चाची... 

 उसने घर के लोगों से सुना है और बाद में तो देखा भी है कि वह गाते हुए हर काम करती थीं...बस, जब ससुर या जेठ चउके पर होते या किसी बहुत ज़रूरी काम से खखारते हुए घर में पांव डालते तो चाची का गाना अचानक रुक जाता और उनके बाहर निकलते ही वह फिर शुरू हो जातीं। गाते हुए रसोई पकातीं...जांता पीसतीं...ढेंका चलातीं...मूसल पर हाथ बदलतीं.. -चउका लगातीं...गाते हुए नहाती और गाते-गाते सो जाती थीं। उनकी आवाज़ में खनक थी। उस खनक में सपने थे। सपनों में आशंका थी और आशंका में भय और दर्द छिपा होता था...

 चाची जब नई-नई गौने आई थीं तो जब-तब गातीं...

 बलम मति जइयह...अ...बिदेसवा न...सजन हम कइसे जियब...पिया हम जी-जी मरब...न हमके सतइयह...बलम मति जइयह...सजन जनि जइयह. बिदेसवा न...अ

चाची में एक आशु कवयित्री थी। किसी गीत का मुखड़ा उठा लेतीं और उसी धुन पर पूरा का पूरा नया गीत गा डालतीं | उनकी हर पंक्ति गीत में ढल जाती या शायद उनके गले में जादू था और वह दुनिया भूल कर गाती थीं...

 लेकिन जब चाची बलम को बिदेस जाने से बरजने और अपने मर-मर कर जीने का आशंकित नरक दिखातीं तब तो वह पैदा भी नहीं हुआ था। ये सुनी हुई बातें हैं कि उन दिनों बिदेस का मतलब “विदेश” नहीं परदेस हुआ करता था और “परदेस” का मतलब अपने ज़िले से दूर जाना होता था। खास तौर पर परदेस का अर्थ आज का कोलकाता और उन दिनों का कलकत्ता या कानपुर होता था। कलकत्ता के नाम से पूरब की सभी औरतें डरती थीं। सबके मन में यह डर बसा हुआ था कि अगर उनके बलमूं कलकत्ता गए तो बंगाल की कोई न कोई जादूगरनी उन्हें ज़रूर पसु-पंछी बना कर कैद कर लेगी...और तब...उनकी जवानी का क्या होगा...? इस डर से खूबसूरत चाची भी आतंकित रहती थीं...

 उनके डरने का कारण भी था। चाचा पढ़ रहे थे। और जब लिख-पढ़ लेंगे तो शहर तो जाएंगे ही. 

 मगर, उनके राजा तो भयंकर क्रूर निकले। पढ़े-लिखे भी नहीं और... खैर

 तो, जमुरा पुल से गुज़रजते हुए उसे चाची का मुकददर सिहरा गया... पुल के दोनों ओर एक छोटे-से बोर्ड पर अब भी लिखा था, 'सावधान! पुल कमज़ोर है”। तब भी लिखा था लेकिन तब सड़क कच्ची थी और गाड़ियां भी राजा भुवनेश प्रताप सिंह रोड पर बहुत कम गुज़रती थीं। लेकिन वक़्त बहुत तेज़ बदला और सुस्त रफ़्तार ज़िंदगी हड़बड़ाहट भरी हो गई, मगर जमुरा पुल की छाती उतनी ही कमज़ोर रही। उतनी ही क्या और भी कमज़ोर होती गई टीबी के मरीज की तरह जर्जर। यह अलग बात कि इस बीच सड़क पक्की हो गई और उस पर बस, ट्रक, जीप-ट्रैक्टर चलने लगे। एक लंबा अरसा निकल गया और इस लंबे अरसे में क्या-क्या नहीं हुआ। नेहरू जी मर गए और बाजपेयीजी गद्दी से उतर गए। देश में न जाने कितने पुल बन गए। दुनिया न जाने कितने अपहचानी हो गई मगर जमुरा पुत्र की किस्मत नहीं बदली। किस्मत नहीं बदली तो नहीं बदली चाहे एक नहीं, एक दर्जन से ऊपर गाड़ियां पुल से नाले में कलइया खा गईं...'बलि” का सिलसिला थमा नहीं... 

 हां, भारी वाहनों के पुल से गुज़रने पर कई सालों से रोक लगी हुई है.

 उसने सोचा कि कुछ तकदीरों की इबारत नहीं बदलती। चाहे इन्सान की हो या पत्थर की। दुखों से नाता छूट जाए ऐसा सबकी किस्मत में कहां होता...

 चाची की थरथराती किस्मत का पुल भी तो कमज़ोर था। इतना कमज़ोर कि वह कभी उन्हें इस पार से उस पार नहीं ले गया...इसे और क्या कहेंगे कि बस चौबीस-पचीस की उम्र में दो बेटे और एक बेटी की मां बना कर चाचा उन्हें छोड़ कर न जाने दसो-दिशाओं में किस दिशा में लोप हो गए...चाचा के लोप होने से पहले चाची गाती थीं, बलम मति जइयह बिदेसवा न...अ...अ.

 चाचा दिन में केवल दो बार घर में आते थे। एक बार आंगन में रखे “कूंड़ा” में पानी भरने और दूसरी बार दुपहरिया में चठका पर खाने बैठने...चाची उनके आने के समय को जानती थीं, अगर जो शरारती मूड में होतीं तो...

 मोरे जोबना में दुइ-दुइ अनार...

है सइयां...अ...दूनों तोहार...

 भगवान किरियां...सिया राम किरिया...

 ज़माना वह था कि मर्द दिन में खाना खाने के अलावा और किसी काम से घर में नहीं आते थे। अगर कोई बहाने-बहाने से आ कर बीवी के कमरे में चला जाता तो देखते ही देखते उसका नाम मउगा पड़ जाता और यह नाम सबसे पहले उसे अपने ही घर से मिलता और फिर बिना वक़्त गंवाए गांव भर में तैर आता। इस नाम को कोई अपनाना नहीं चाहता था इसलिए वह दिन में घर के भीतर नहीं घुसता था, बहाना बना कर भी नहीं...

 लेकिन चाचा घर में सबसे छोटे थे और कहांइन, जो पानी भरकर सुबह रख जाती वह नौ-दस बजते-बजते ख़त्म हो जाता तो चाचा को कांड़ा भरना होता। यह रोज़ का नियम था...

 चाची कुछ सरीर थीं। चाचा जब सुनते तो पहले शरमाते और फुसफुसाते, “बड़ी बेहया ह ई त...अ...” और फुर्र से घर से बाहर हो जाते। अम्मां खुल कर और चाची अंचरा में हँसतीं.

 चाची फिर गाने लगतीं...

छलकल गगरिया रे मोर निरमोहिया

छलकल गगरिया मोर

बिरही मोरनियां मोरवा निहारे

पापी पपिहरा पिउ-पिउ पुकारे

पियवा गइल कउनी ओर निरमोहिया

छलकल गगरिया मोर...कि...छलकल गगरिया मोर

 

और, एक दिन चाचा सचमुच बिला गए कि लोप हो गए। न जाने कहां चले गए कि अब तक कुछ पता नहीं चला कि उन्हें ज़मीन खा गई कि आसमान निगल गया। ईश्वर हो तो वही जानता है.

 और तब, चाचा के लोप होने के बाद चाची गाने लगीं...

 कइलीं हम कवन कसूर...नयनवां

 से...नयनवां से....नयनवां से दूर

 कइल...आ बलमूं...

 नयनवां से दूर...नयनवां से दूर....नयनवां से

 दूर कइल...आ...बलमूं...

 

गुन-ढंग रहल नीक और सुरतियो रहल ठीक 

 

त काहें हम्में दूर कइल...आ...बलमूं....

 

नेकनामी में त...अ...नाहीं...बदनामी में ज़रूर

 

गांव भर में हम्में मशहूर कइल...आ...बलमूं....

 

कइलीं हम कवन कसूर...

 

उनकी आंखों के कोर तब गीले रहते...

 

गाते-गाते उनके गले का वह रस सूख गया जिसे सम्मोहन कहते हैं, मगर उनका गाना बंद नहीं हुआ। गले के रस के सूख जाने से कहीं दिल के घाव सूखते हैं! सचमुच, चाची का क्‍या कसूर था...

चाची अपने मंझोले क़द और गोरी रंगत में बहुत ख़ूबसूरत थीं। ग़ज़ब के लाल-लाल होंठ थे जिनसे रस ही चू सकता था। कसूर यह भी था कि चाची बहुत दृढ़ स्वभाव की थीं। अपनी सारी स्त्री-सुलभ कोमलता के बावजूद चाची में ग़ज़ब की दृढ़ता और चंचलता थी...और चाचा...अपनी मर्द काया के भीतर बहुत कोमल, कोमल भी और घबराए भी। घबराए भी और भयाकुल भी और, साथ-साथ हताश भी...

 बात तब की है जब चाचा किसी अनिर्दिष्ट दिशा में लोप हुए थे...

 लेकिन उनके लोप होने से पहले की पृष्ठभूमि...

 चाचा यकायक लोप नहीं हुए थे...पहले से ही लुप्त होते गए थे...पहले खुद में और फिर सार्वजनिक रूप से...

उनका खुद में लुप्त होना तब शुरू हुआ जब वे हाईस्कूल में पहली बार फेल हुए। नवीं में पढ़ रहे थे जब शादी हुई। तीसरे में गौना तो हो गया लेकिन चाचा हाई स्कूल पास नहीं हुए। वह तीसरे साल भी फेल हो गए। बाबा ने फैसला किया कि अब चाचा की पढ़ाई बंद। यह सदमा था जो चाचा को अपनी पूरी सान्द्रता से लगा। वह चुप-से हो गए। बहुत कम बोलते। यह कहना ज़्यादा सही होगा कि किसी से बोलते ही नहीं थे। घर का सारा काम करते। खेत-खरिहान से लेकर गोरू-बछरू संभालते। बाग-बगइचा देखते, मगर गुम-सुम रहते। घर में बाबा ने राय दी, “अब पढ़ने की कोशिश न करें। भाग्य में विद्या नहीं है तो नहीं है। खेती-बारी पर ध्यान दें। मालिक की कृपा से खेती ही कहां कम है कि कोई नौकरी-वौकरी करने की मजबूरी है! बेकार पइसा बरबाद करने की क्‍या ज़रूरत है?” बाबूजी हाई स्कूल करने के बाद गोरखपुर शहर में रहते हुए एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रहे थे। उनकी पढ़ाई रोकने का प्रश्न ही नहीं था...

 मगर बाबा का यह सुझाव चाचा के गले नैराश्य में भले ही उतर गया हो, चाची के गले नहीं उतरा। चाची चार-पांच तक पढ़ी थीं। उन्हें सिच्छा का अर्थ मालूम था। उन्होंने अपनी हिम्मत बढ़ाई और घर में सबको सुना कर गाने लगीं...

 मजूरी कइ के

हम मजूरी कइ के...

जी हजूरी कइ के.

अपने सइयां के...अपने बलमां के

पढ़ाइब हम मजूरी कइ के...

 जी-हजूरी कइ के.

रात-दिन खटिबे

काम सब करिबे

कुल-कानि लइ के

भला का करिबे

 तन अंगूरी कइ के

मन सिंदूरी कइ के

सिच्छा पूरी हम कराइब

अपने राजा के.

 अपने बाबू के...अपने राजा

के पढ़ाइब

हम मजूरी कइ के...

जी हजूरी कइ के.

हम मजूरी कइ के...

 

और, चाची अठारह वर्ष की उमर में सचमुच मजूरी ही तो करने लगीं...

 उन्होंने घर में चरखा मंगवा लिया। उनको ज़रा-सी फुरसत मिलती तो वे थीं और उनका चरखा था। फुरसत निकाल लेतीं। लगन हो तो काम का वक़्त निकल आता है। जब सूत अधिक हो जाता तो वे घर में काम करने के लिए आने वाली औरतों में किसी को देकर उनवल कस्बे के गांधी आश्रम भेज देतीं। उस ज़माने में लगभग पांच-सात रुपए महीने की आमदनी हो जाती...

 घर अचरज़ से देखता रहा। ऐसा नहीं था कि चाचा की पढ़ाई में बहुत पैसा लग रहा था। परिवार समर्थ था। अच्छी-खासी छह बैलों की खेती थी। परदेस की कमाई भी थी। माने, चाचा से बड़े बाबू जी सरकारी नौकरी में कानपुर में काम करने लगे थे और उनसे बड़े, बड़े पिताजी गोरखपुर रेलवे में थे। घर में पैसा था। बात सिर्फ इतनी थी कि चाचा फेल हो रहे थे और परिवार व्यावहारिक हुआ जा रहा था लेकिन चाची को यह मंजूर नहीं था वह चाचा को पैसे देतीं। किताब-कॉपी और अन्य ज़रूरतों के लिए। चाचा को संकोच और ग्लानि होती मगर चाची कहतीं, “हमें सूद समेत मिल जाई...आजु नाहीं त विहान...”

 चाची के चरखा कातने की चरचा पूरे गांव में हुई। इसलिए नहीं कि गांव में किसी स्त्री ने चरखा पहली बार चलाया। न जाने कितने घरों में चरखे चलते थे। बहुत से में तो नून-तेल लकड़ी का ख़र्च चरखे से ही निकलता था। चाची की चरचा औरतों में इस तरह हुई, “देख...अ...बहिनी...इ महुआपार वाली के...अपने “उनके” पढ़ावे खाती...चरखा उठा लेहलिन...”

 महुआपार वाली यानी चाची, पहले गांवों में स्त्रियों की पहचान उनका मायका हुआ करता था और अगर एक गांव की दो बहुएं होतीं तो उनमें बड़की और छोटकी विशेषण संज्ञा बन जाता...

 मगर चाची की मेहनत और लगन का वह “विहान” नहीं आया तो कभी नहीं आया। उनकी मेहनत और तमाम इच्छा के बाद भी चाचा फिर फेल हो गए। यह बहुत बड़ा झटका था उनके लिए। गांव में हंसी जो हुई वो अलग। चाची दुखी। चाचा और उदास हुए...और अकेले...

 चाचा न तो पढ़ने में कमज़ोर थे और न पढ़ाई से जी चुराते थे। पूरी मेहनत से तैयारी करते लेकिन परीक्षा-भवन में जब उत्तर लिखने के लिए कलम पकड़ते तो उनकी उंगलियों में भयंकर पसीना होने लगता। रूमाल से कितना भी पोंछता मगर पसीना बंद ही नहीं होता। कॉपी पसीने से गीली हो जाती। उंगलियां कांपने लगती। कांपते हाथों से लिखने की कोशिश करते मगर कलम की स्याही कॉपी में कुछ भी बयान न कर पाती। प्रायः पसीने और स्याही से वह बदरंग हो जाती। ताज्जुब की बात कि ऐसा सिर्फ़ परीक्षा भवन में ही होता और चाचा ने इसे किसी को बताया तक नहीं था। वह तो जब चौथी बार फेल हुए और ऐसा बाहर भी होने लगा तब पता चला। एक चिट्ठी भी लिखनी होती तो उनकी उंगलियों में कया, दांतों से पसीना बहने लगता। उन्होंने ऐलान कर दिया, “अब हो गइल...बस...पढ़ाई हमेशा के लिए बन्न...” परिवार में ही नहीं, गांव में भी सबने यह स्वीकार कर लिया कि फेल होन में उनकी तकदीर ही दोषी है.

 दुनिया मान गई तो मान गई। चाचा ने हौसला छोड़ दिया तो छोड़ दिया। मगर चाची ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक नहीं अनेक मनौतियां मान लीं। देवी-देवताओं में डीह बाबा से लेकर अवघड़ दानी शंकरजी और गंगाजी से माई सरजूजी तक सूची में...

 सोमवार से रविवार तक देवी-देवता मानतीं...

 उनके बहुत कहने पर चाचा पांचवीं बार परीक्षा में बैठे मगर नतीजा फिर वही... नतीजे का कारण भी वही...हाथों का कांपना और उंगलियों से पसीने की गंगा-जमुना...

 चाची गातीं...

 दई हो.

दई हो का हम कइलीं तुहार

कि सुनल...अ...न बिनती हमार...

 चाची दुहाई दे-दे ऊपरवाले से पूछती रहीं मगर वह ऊपरवाला तो पत्थर ही रहा। आखिर चाची भूल गई कि उन्होंने चरखा कात-कातकर चाचा को दो साल पढ़ाया...

 हां, उन्होंने चरखा कातना बंद नहीं किया। हालांकि, घर में पैसे की कमी नहीं थी। तीज-त्यौहार पर कपड़े-लत्ते मिलते ही थे। चूड़ी मनिहारिन पहना ही जाती थी। इस्तेमाल की बहुत व्यक्तिगत चीज़ें उन दिनों चलन में नहीं थीं।स्त्रियों ब्लॉउज़ के नीचे ब्रॉ नहीं पहनती थीं। हिवस्परस और ऑलवेज का कहीं अता-पता नहीं था। अपने मरद के साथ बाहर निकलने में लाज लगती थी। लाज मरद को भी लगती थी। सिनेमा-उनेमा साथ देखने का तो सवाल ही नहीं था। आजकल तो अविवाहित लड़कियां फार्मेसी में धड़ल्ले से घुसती हैं और कोहिनूर मांगती हैं, कैमिस्ट चाहे बाप की उमर का ही क्‍यों न हो.

 

उसी दौरान...वह पैदा हुआ और उन्हीं दिनों बाबूजी को कानपूर में सरकारी नौकरी मिल गई। उनका मन एग्रीकल्चर की पढ़ाई में लग नहीं रहा था और उन्होंने नौकरी पाने की कोशिश शुरू कर दी थी। जमाना ही कुछ ऐसा था कि हाई स्कूल पास व्यक्ति को प्रयत्न करने पर नौकरी मिल जाती थी। घर पर बाबा के साथ केवल चाचा रह गए। घर के काम-काज में लगे हुए...

 तो, जब वे घर के काम-काज में लगे थे उसी दौरान चाची ने पहले बेटे को जन्म दिया। चाची के जीवन में दिखाई पड़ने वाली यह पहली खुशी थी। यह खुशी चाची के चेहरे पर तो चमकती दिखाई देती मगर चाचा ऊपर से पहले की ही तरह रहे। क्या पता भीतर से उन्होंने भी किसी तरंग को महसूस किया हो। पंडितों ने '' अक्षर से बच्चे का नाम रखने की राय दी। चाची ने नाम रखा-सर्वेश...

 चाची को और व्यस्त करने में अब सर्वेश भी जुड़ गया लेकिन उनकी फुरती में कोई कमी नहीं आई। बल्कि वे और भी चुस्त दिखाई देतीं। उनके गाते रहने में भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा... अब उनके गीतों में कभी सर्वेश कन्हैया बना होता और वे यशोदा नज़र आतीं। और, कभी चाचा के लिए वे राधा बनी हुई सुनाई पड़ती...

 

इतना सब होता मगर चाचा को पल भर के लिए भी किसी ने चाची के साथ हँसी-ठिठोली या छेड़छाड़ करते नहीं देखा। कभी प्यार करते नहीं देखा...

 मगर एक बार उन्होंने चाची को मारा। और इसे सबने देखा...

 सुबह दस-ग्यारह बजे होंगे जब वे कूंड़े में पानी भर रहे थे। चाची नहा रही थीं। सामान्यता छह-सात "जोर में कूंड़ा भरने का नाम नहीं ले रहा था। वे चौंके और आंगन के सामने के ओसारे में चुपचाप खड़े हो गए। तभी उन्होंने देखा कि चाची केवल पेटीकोट पहने, पूरी भीगी हुई आंगन की दूसरी दालान से गाते हुए निकलीं, “बलम मोर छूछल गगरियो न जाने...” और चाचा ने छूछल गगरी का अर्थ ही नहीं व्याख्या भी चाची को समझाई थी उबहन से मारते हुए...

 चाची की चोरी उन्होंने पकड़ ली थी। चाची को इसका दुख तो था कि चाचा ने उनकी गोरी देह को मार-मारकर लाल कर दिया मगर उन्होंने दोषी स्वयं को माना कि उन्होंने बदमाशी की और उन्हें उनके “उन्होंने” मारा। मारा तो क्‍या हुआ? कोई दूसरा उन्हें मार तो क्या छू भी सकता है...?

 उन्होंने अपने “उनसे” गाते हुए माफ़ी भी मांग ली...

 बलम हमसे गलती भइल...हम्में माफ करिह...अ...अ...!

पता नहीं कि चाचा ने उन्हें माफ़ किया या नहीं। वही जानें। मगर वे चाची से हमेशा एक दूरी बनाए रहते। चाची बदसूरत होतीं या उनमें कोई गुण न होता तो बात अलग थी। जिन स्त्रियों के संपर्क के लिए मन तरसता हो वैसी स्त्री के साथ कोई उपेक्षाभाव कैसे बरत सकता है, यह बात सबकी समझ से परे हो सकती है...समझ से परे थी...

 चाची को शायद यह अखरता भी था। उन्हें क्या अच्छा या बुरा लगना है, यह सब उनके होठों पर ठहरी या मचलती पंक्तियों से पता चल जाता था...

 एक घूमती रील की तरह चाची की ज़िंदगी उभर रही थी। उन्हीं की क्यों, उनके साथ-साथ उन सबकी भी जो उनके इर्द-गिर्द थे...

 वह भी तो उनके बहुत करीब था। सर्वेश से पहले तो वही घर की दुनिया में आया था। चाची की लोरियों और उनकी मालिश में बढ़ता हुआ...

 उसे याद है कि चाची ने उसे कस के चूमते हुए पूछा, “बाबू, हमसे बियाह करब...अ...?”

 वह शरमाया था और चाची उसके गालों को और लाल किए दे रही थीं। अम्मां को बोलना पड़ा था,

 छोड़....न...अ...सखी...” मगर चाची कहां छोड़ने वाली थीं। तब शायद वह तीन साल का था। बाद में जब कभी कोई छेड़-छाड़ में पूछता, “बाबू बियाह करब....अ...?”

 वह कहता, “हां...चाची से करब बियाह...” लोग हंसते। और चाची अम्मां से कहतीं, “सुनि ल....अ...सखी...अब्बे से बाबू हमरे खाती बेचैन बा...”

 सखी तुहऊं त कम नाई हऊ...” अम्मां उनके रुप पर छींटा मारतीं और चाची के भीतर अपने रुप को ले कर गुलगुले छन जाते। 

 बरसों बाद कभी उस ने सर्वेश की ओर इशारा करते हुए कहा, “चाची...तू सर्वेश से बियाह कइ ल...अ.

 अच्छा...अ...त...अ...हमसे बियाह क...अ...साधि अबले बा...” वे आंखों में मुस्काई थीं और बोली थीं, “बाबू के त...कउनों रूपवती मिली...” तब भी तो वह बच्चा ही था। उन्हीं दिनों तो अवधेश पैदा हुआ था...

 उस पल के याद आते ही उसके होठों पर मुस्कान की एक बहुत पुरानी रेखा उभर आई। मगर दर्द की अनवरत यात्रा करने वाले की याद में उभरी मुस्कराहट ठहरती कहां है.

 मोटरसाइकिल उनवल चौराहे पर थी। उसने डॉक्टर जगबली सिंह के क्लीनिक के सामने खड़ी की। पहले भी वह चौराहे पर डॉक्टर साहब के क्लीनिक पर कुछ देर रुकने के बाद ही घर के लिए चलता था...

 डॉक्टर साहब ने चाय मंगवाई, “अबकी काफ़ी दिन पर दरशन भइल महाराज...”

 चाची के देखे अइलीं बाबू साहब...” उसने सिगरेट सुलगाई।

 हं...बाबा...भउजी के भगवान बड़ा दुख दिहलें...”

 

वह चुप रहा। कया बोले। डॉक्टर साहब चाचा के समौरिया थे। साथ पढ़े थे। परिवार के साथ उनका जुड़ाव था। उनसे छिपा क्‍या था...

 

नीक कइलीं महाराज...अब आपे के देखे के हवे उनके...चाचियों त माइये समान...”

 

वह चलने को हुआ तो बोले, “मोटरसाइकिलिया नाई जा पाई दुआरे ले...दुई-तीन दिन बड़ा पानी बरसल हवे...हमार साइकिल ले लेई...हे रे अरजुनवा. निकार हमार साइकिल...” उन्होंने अपने कंपाउंडर को आवाज़ लगाई... “पंडीजी गांवे जहहें...””

 अब वह साइकिल पर है, गांव साढ़े तीन किलोमीटर दूर है। खेतों में पानी लगा है। चकरोड पर भी | कहीं-कहीं उतरना पड़ता है सायकिल से । आदत भी छूट गई है चलाने की। यादों की रील एक बार फिर रिवर्स हो गई है.

 चाची अम्मां से कह रही हैं, “सखी...जेठ जी के चिटूठी में लिखि द न कि हमरे 'इनहूं' के कानपुर बोला लें...” वही चाची जो कभी गाती थीं, “बलम मत जइअह विदेसवा न...अ...!

 क्या सर्वेश और अवधेश का भविष्य उनका सपना हो गया था...भगवान जानें...

 बाबूजी ने चिट्ठी से चाचा को कानपुर बुलवा लिया। क्‍या चाची की सखी से बिनती ग़लत थी या कि बाबूजी का चाचा को कानपुर बुलवाना...

 

चाचा कानपुर आ गए। मगर ग़लती कहीं न कीं तो हो ही गई...

 चाचा कानपुर आ तो गए लेकिन वह अपना स्वाभाव बदल कर नहीं आए। वही अकेलापन और एक ख़ामोशी उदासी उनके साथ दिखती थी। मुस्कराना तो जैसे उन्होंने जाना ही नहीं था। वह हाई स्कूल पास नहीं थे लेकिन पढ़े-लिखे तो थे। विषयों का ज्ञान भी उन्हें था लेकिन किसी विषय में उनकी रुचि हो इसका पता नहीं चलता था। अखबार पढ़ना भी उनकी पसंद से बाहर था।

 चाची की चिट्ठी आती तो रख लेते, उसे कहां पढ़ते, उसका जवाब कहां लिखते, वही जानते थे...

 बाबूजी के कहने पर उन्होंने रोज़गार कार्यालय में अपना पंजीकरण शिक्षित लेबर में करा लिया...

 बाबूजी सुबह साढ़े सात बजे ड्यूटी पर जाते और शाम को पांच बजे लौटते। ड्यूटी पर जाते समय चाचा को जो काम बता कर जाते चाचा उसे कर देते। मन से या बेमन, कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था। दिन भर सरकारी क्वार्टर पर रहते। सुबह-शाम खाना बनाते। कमरे, बरामदे और आंगन में एक बार झाड़ू लगाते। दरवाज़े पर भी सफाई करते, गरमी के दिन होते तो वहां पानी छिड़कते। बाबूजी एक गाय हमेशा रखते। चाचा उसे सानी-पानी करते...

 

सुबह-शाम कसरत भी करते। सपाट और दंड। घर में दूध होता ही था। गांव में भी और शहर में भी। शरीर सुडौल तो था मगर उस पर चिपकी उदासी उसे खोखला कर देती थी...

 

बाबूजी शाम को आते और कुछ समय बाद सायकिल से फिर बाहर निकल पड़ते। उनका सामाजिक दायरा बड़ा था। नौ बजे लौटते तो चाचा से कहते, “ललित...चलो निकालो खाना...खा लिया जाए...”

 

इस बीच रोज़गार कार्यालय से दो बार शिक्षित लेबर की भरती के लिए चिट्ठी भी आई। चाचा वहां गए भी। टेस्ट और ट्रायल भी दिया लेकिन भरती नहीं हो सके...

 अम्मां जब तक कानपुर नहीं आईं तक तक चाचा और बाबूजी की यही दिनचर्या थी। चार-छह महीने में कोई न कोई त्यौहार पड़ता तो बाबूजी गांव चले जाते। पता नहीं क्‍यों चाचा गांव जाना नहीं चाहते थे। बाबूजी के बहुत कहने पर तीन बरसों में शायद एक या दो बार वह गांव गए ज़रूर, लेकिन दो-तीन दिनों में लौट भी आए...

 अम्मां को जब बाबू जी कानपुर ले आए तो वह चार साल का रहा होगा। चाची ने सखी से क्या संदेश भिजवाया। नहीं मालूम मगर उन्होंने चाचा को कुछ दिन गांव में रह आने की सलाह दी और इस बार चाचा पंद्रह दिन गांव पर रुके...

 गांव से आने के बाद फिर उनकी अपनी दिनचर्या, उसमें थोड़ा-सा बदलाव यह हुआ कि चाचा उसे घुमाते। उसके साथ खेलते और कभी गिनती तो कभी आठों डांड़ी सिखाते। चाचा के साथ उसके जुड़ाव की यह शुरुआत थी...

 कुछ दिनों बाद रोज़गार कार्यालय से भरती के लिए फिर चिट्ठी आई। इस बार चिटूठी उसी कारखाने के लिए आई जिसमें बाबूजी भी थे। उनका सामाजिक संपर्क भी तगड़ा था। सिफारिश काम आई और चाचा सरकारी नौकरी में भरती हो गए। बाबू जी के लिए वह खुशी का दिन था। महावीर जी के मंदिर में उन्होंने एक सौ एक रुपए का प्रसाद चढ़ाया था...

 चाची ने जब सुना तो ऐना में खुद को निहारा और झूम-झूमकर गाया...मोरे आंगन में आइल बाहर...कि दियना खूब जरी...मिटि जाई सब अन्हियार...कि दियना खूब जरी...

 मगर दियना खूब तो क्‍या कायदे से भी नहीं जला। उजियाले की जगह वही अंधेरा चाची की किस्मत में घर बनाए रहा। हां, एक बात और हुई कि चाचा जो पंद्रह दिन गांव रहकर लौटे थे उसमें उन्होंने चाची की कोख में एक पौधा और रोप दिया था और उस पौधे के नतीज़े के रूप में विमला उनकी गोद में आ गई थी। घर में पहली भवानी किंतु कोई उल्लास नहीं। उल्टे चाची अपने साथ-साथ उसकी किस्मत को भी गा कर रोने लगीं। चाची जितनी ऊष्म थीं, चाचा उतने ही अनासक्त। ताज्जुब यह था कि उस अनासक्ति के बावजूद सर्वेश, अवधेश और विमला धरती पर आ गए थे। इस धारणा को पूरी तरह झुठलाते कि बच्चे मोहब्बत से उपजते हैं.

 चाची घर पर अकेली तीन बच्चों के साथ। दरवाज़े पर बूढ़े बाबा। पशुओं की देखभाल के लिए हरवाह, बड़े पिताजी पंद्रह दिन में एक दिन के लिए आते और अगले दिन वापस हो जाते। उन्होंने शादी की नहीं थी। उनके लिए जीवन में आकर्षण के नाम पर रेलवे की नौकरी और उनके ठाकुरजी थे। उनका अधिकांश समय पूजा-पाठ में बीतता था। बच्चों के सुख-दुख चाची के हिस्से अकेले आए थे। कभी-कभी तो चाची को लगता कि जिन चंद क्षणों को उन्होंने अपने जीवन की निधि समझा था वे एकतरफा दुखों का सबब बन गए...

 चाची चिट्ठी पर चिटूठी लिखती मगर चाचा की ओर से कोई जवाब नहीं। हार-थककर चाची के होठों पर दर्दभरा गीत अपने आप बैठ जाता...

 लिखि-लिखि पतिया पठौंली बिपतिया...

दई हो जाने कहिया ले पुछिहन हाल...

अब केसे करीं हम सवाल...दई हो.

 चाची के इस बेहद बेहाल पर दई क्या करते...

 चाची बीमार रहने लगीं। कभी पेट में शूल तो कभी सीने में। बच्चों की जिम्मेदारी अलग से। एकबार अम्मां गांव गई तो चाची ने सखी के आगे दिल खोल दिया। अम्मां को उन्होंने बताया कि चाचा को उनमें शुरू से कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो शादी करना भी नहीं चाहते थे। बस, घर के लोगों को मना नहीं कर पाए। उनको अपनी ओर आकर्षित करने के लिए वह ऐसे गीत गाती थीं कि उनके मन के भाव शायद चाचा तक कभी पहुंच जाएं। उन्होंने सखी से वायदा ले लिया कि अबकी कानपुर पहुंचते ही वे चाचा को कुछ दिनों के लिए ज़रूर गांव भेजें...

 अम्मां ने वापस आकर चाचा को बहुत समझाया कि घर जाएं। हो सके तो सखी को अपने साथ कुछ दिनों के लिए कानपुर ले आएं। सखी का मन भी बदल जाएगा। चाचा सिर्फ सुनते रहे और ज़मीन की ओर देखते रहे। न उन्होंने हां कहा न अस्वीकार किया। अम्मां ने सोचा कि संकोच के कारण चाचा कुछ नहीं बोले। मगर बात संकोच की नहीं थी। चाचा के मन में तो कुछ और ही चल रहा था...

 चाचा कुछ और चुप हो गए और एक शाम जब उन्हें ड्यूटी से लौअ आना चाहिए था, लौटे ही नहीं...

 घनघोर जाड़ा पड़ रहा था। कई दिनों से सूरज नहीं निकला था। चौराहे-चौराहे सरकार कुन्दे जलवा रही थी। दिन में भी लोग आग ताप रहे थे। चाचा के शरीर पर हाफ और फुल स्वेटर तो था। लेकिन इन कपड़ों से रात तो नहीं कट सकती थी...

 शाम से रात हो गई और रात से आधी रात लेकिन चाचा घर नहीं आए। सारी रात यूं कटी कि जैसे मातम मानते गुज़री हो। अम्मां सोचतीं कि क्या पता रात की गाड़ी से गांव चले गए हो. लेकिन शंका यह भी उभरी कि तनख्वाह तो दो दिन बाद मिलने वाली थी और पैसे उनके पास थे नहीं। वेतन तो मिलने के साथ ही वे अम्मां के हाथों पर रख देते थे। दस-पांच रुपए अम्मां ही उन्हें देती थीं...

 शंका ही सही साबित हुई। तीसरे दिन पता चला कि चाचा गांव नहीं गए। गांव नहीं गए तो कहां गए? कोई जवाब नहीं...

 अम्मां अपने को कोसतीं कि क्‍यों उन्होंने सखी के कहने पर बाबू जी से कह कर उन्हें कानपुर बुलवाया। बाबूजी खुद को कोसते कि क्‍यों उन्होंने अम्मां की बात मानी...

 सबकी एक मनौती कि दुहाई महावीर बाबा बस एक बार आ जाते तो उन्हें घर ले जाकर बाबा को सौंप देते। फिर जो होता वह होता। रहते या भाग जाते।

 चौथे दिन...रात आठ बजे...घर के दरवाज़े के निचले हिस्से पर “ठक' से हुआ। लगा कि किसी ने ठोकर मारी है. बाबू जी ने दरवाज़ा खोला तो सामने चाचा खड़े... कई पलों के लिए दोनों ओर से घनघोर चुप्पी...बाबूजी ने पूछा, “ललित...कहां चले गए थे भाई... ?”

चाचा चुप। कोई जवाब नहीं...

 आओ...घर में आओ...बड़ी ठंडक है...” बाबूजी ने रास्ता छोड़ दिया। चाचा बिना कुछ बोले अंदर आ गए और सीधे उस ओर चले गए जिधर अपनी चारपाई बिछाते थे...

 किसी ने उनसे कुछ नहीं कहा। बहुत कहने पर उन्होंने कुछ खाया और सिर ढंक कर सो गए। पता नहीं सो गए या उपधेड़बुन में सारी रात जागते रहे। अगले दिन से फिर वही दिनचर्या। सुबह ड्यूटी सुबह-शाम गाय को सानी-पानी और कसरत...अम्मां के बहुत पूछने पर उन्होंने कहा कि दिमाग़ काम नहीं करता है.

ऐसी दशा में कोई उनसे फिर क्या कहता? तय हुआ कि जैसे चल रहा है इसे ऐसे ही चलने दिया जाए। समय अनुकूल होने पर चाचा को कुछ दिनों के लिए घर भेज दिया जाएगा। बच्चों के बीच रह कर निश्चित ही कुछ फर्क पड़ेगा। अगर चाचा स्वयं नहीं जाना चाहेंगे तो चाची को ही यहां बुला लिया जाएगा...

बाबूजी ने अपने संबंधों के चलते चाचा का ट्रांसफर दूसरे विभाग में करा दिया जहां चौवन घंटे ओव्हरटाइम चलता था। पीस-वर्क और नाइट अलाउंस था। कारखाने में हर वर्कर चाहता था कि उसे यही विभाग मिले मगर चाचा को वह रास नहीं आया। चाचा हाईस्कूल फेल थे किंतु थे तो पढ़े-लिखे। बाबू जी ने उन्हें कुरसी-मेज दिलवा दिया ताकि शारीरिक-श्रम के बदले उन्हें बहुत कम काम करना पड़े और उनमें कोई हीन भावना न पनपे...

 लेकिन सबकुछ व्यर्थ। छह महीने ही गुज़रे होंगे कि एक दिन चाचा फिर गायब। लेकिन इस बार वे ड्यूटी से ग़ायब नहीं हुए बल्कि सुबह घर पर ही नहीं मिले। गरमी के दिन थे। चाचा बाहर सोते थे। सुबह गाय को सानी-पानी उन्होंने रोज़ से कुछ जल्दी दे दिया और लापता हो गए। उन्होंने पेंसिल से लिखी एक चिटूठी अपनी तकिया पर छोड़ी थी जिसमें लिखा था,

 मान्यवर भाईसाहब,

मुझे खोजने की कोशिश न करें...आपका अनुज-ललित

 चिट्ठी पर पिछली रात की तारीख़ पड़ी थी।लेकिन ऐसी चिट्ठी मिलने के बाद उनकी खोज कैसे बंद होती...

 युद्ध-स्तर पर चाचा की खोज शुरू हुई... कोई स्टेशन दौड़ाया गया तो कोई बस अड्डे गया। कोई किसी ओझा के पास तो कोई इलाहाबाद कि कहीं साधु-वाधु तो नहीं हो गए। अख़बारों में गजट कराया गया कि जहां हों वहां से तुरंत घर आ जाएं कि सबका बहुत बुरा हाल है। रात-बिरात कोई बताता कि उन जैसा आदमी भिखारियों के साथ स्टेशन पर दिखा तो बाबूजी अपने मित्रों के साथ स्टेशन के बाहर सोए भिखारियों को जगा-जगा कर उनका चेहरा देखते, सचमुच बहुत बुरा हाल हो गया था सबका। किसी पंडित ने बता दिया कि जिसे वे सबसे अधिक प्यार करते रह हों वह एक मंत्र का जाप करे, रोज़ जाप करने का काम उसके हिस्से आया। वह मन से चाहता कि चाचा घर आ जाएं। किसी और ने कहा कि चाचा के फोटो को किसी भारी चीज के नीचे दबा दिया जाए तो लौट आएंगे। कोई बताता पूरब दिशा में हैं तो कोई कहता कि दक्षिण चले गए। किसी ने कहा कि तीन महीने में निश्चित लौट आएंगे। कुंडली के हिसाब से उन पर भ्रमण योग लगा है। आदि-आदि...

 बाबूजी और अम्मां सामाजिक कलंक के डर से मरे हुए थे। किस-किस को कहते कि घर में कुछ कहा-सुनी नही हुई है। कि ललित अपने मन से कहीं चले गए...उधर कहने वाले कुछ इस तरह कहते कि भाई ने कुछ न भी कहा हो तो क्‍या पता भौजी ही कुछ बोली हों.

 गांव में चाची का हाल बेहाल था। उन्हें भी चाचा की वापसी के लिए जो कोई जो कुछ कहता, सब कर रही थीं। जो चाची कभी घर से नहीं निकलीं, वहीं बीस-बीस किलोमीटर तक ओझा-गुनी के पास जाने लगीं। दुनिया भर के टिकटिम्में करतीं। कभी आधी रात को कोई तंत्र किया तो कभी अमावस की रात को...सभी देवी-देवता मनातीं...मगर...उनकी तो सभी रातें अमावस ही थीं, पूनम का चांद कभी निकला भी था उनकी ज़िंदगी में यह उन्हें याद नहीं...

 तीन साल तक सरकारी नौकरी लंबी बीमारी के बहाने बची रही। आख़िर एक दिन सरकारी चिट्ठी वह पैगाम लेकर आई कि सेवा समाप्त की जाती है...इसी नौकरी के लिए तो चाचा शहर आए थे। सबके सामने बड़ा अजीब प्रश्न था...

 शादी तय होने पर घर से नहीं भागे। पांच बार हाईस्कूल में फेल होने पर नहीं भागे। दो बार नौकरी के ट्रायल में फेल होने पर नहीं भागे और जब अच्छे विभाग में लग गए, लोग सोचते कि अगर उनका मन अलग रहने का ही था तो अलग मकान लेकर रहते। भागने की क्या ज़रूरत थी...कौन जाने क्या ज़रूरत थी...?

 चाची के जीवन के तीन पहलू थे। चाचा से पहले। चाचा के साथ और चाचा के बाद...

चाची गरीब माता-पिता की संतान थीं। बहुत कुछ से वंचित, रिश्तेदारों के बहुत दबाव से रिश्ता हुआ था। चाचा के रूप में उन्हें जिस वैराग्य से जूझना पड़ा वह उनकी जवानी को रिक्त कर गया। और, चाचा के बाद जो कठिनाइयां मिलीं उनके साथ ज़िंदगी भर के लिए यह लांछन भी कि अगर कोई दोष न होता तो क्‍या पति भरी जवानी में उन्हें छोड़ कर भाग जाता...किस-किस को बतातीं कि पति ने तो शायद मंडप में ही उन्हें छोड़ दिया था। अगर उस दिन सचमुच की गांठ जुड़ी होती तो क्या वह उन्हें छोड़ कर जाते? जिस पति को उन्होंने चरखा कात कर दो साल पढ़ाया...जिसे वह मजबूत और सफल देखना चाहती थीं, वह कितना कमज़ोर और असफल निकला...

 

चलो, उन्हें छोड़ देते। यह भी सही। वे सह लेतीं। मगर यह तो निरमोही होने की ही बात है कि तीन-तीन बच्चों को टूअर ही बना गए...बढ़ते बच्चों की ज़रूरतों को कैसे पूरा करतीं चाची। उनकी आंखें सूने आसमान को देखतीं और बहने लगतीं। होंठ लरजते। गीत फूटता...

 

कइसे कटी जिनगी हमार

दई हो का हम कइलीं तुहार कि दुख

हमें दे दिहल...अ...

कि सुख मोर ले लिहल...अ...अ...

चारों तरफ़ भइल अन्हार

हे सिरजनहार लगा द पार कि बड़ा

दुख दे दिहल...अ.

 

लेकिन सिरजनहार सचमुच पथरा गया था। गंगा मइया भी चाची के पियरी चढ़ाने के संकल्प को अनसुना कर गई और...जमुरा के पुल की क़िस्मत की तरह चाची समय की मार के नीचे रौंदी जाती रहीं...

बाबा मर गए, बड़े पिताजी रेलवे से रिटायर होकर आए तो ज़्यादा दिन चले नहीं। हमेशा के लिए चल दिए। किसी ने चाची को बंटवारे के लिए उकसाया और चाची ने सखी से कहा कि, “हममें आपन बखरा चाही...”

 बंटवारा हो गया। चाची गांव की पहली ब्राह्मणी थीं जो खेतों पर जाने लगीं। मज़दूर खोजने लगीं। खेती कराने लगीं...कुछ खुद तो कुछ अधिया पर...

 यह सामाजिक परिवर्तन था। स्त्री-विमर्श की शुरुआत थी। कोई क्रांति थी या सच में मुकद्दर की मार...कौन बता सकता है.

उनके दोनों बेटे गांव के स्कूल में पढ़ने लगे। विमला अभी छोटी थी। बाद में वह भी भाइयों के साथ स्कूल जाने लगी। बाबू जी और अम्मां कभी मदद करना भी चाहते तो चाची अस्वीकार कर देतीं। वह वक़्त शायद पीड़ा से गुज़रने का था। उसे अकेले ही पीने का था। कभी-कभी इन्सान अपने दुख में कोई भागीदारी नहीं चाहता...किसी को शरीक नहीं करता...

 ज़िंदगी बेसहारा ही सही, हांफते हुए ही सही, मगर चल निकली। खेती-बारी के सिलसिले में बाबूजी और अम्मां भी गांव आते। चाची सखी से भी बात नहीं करतीं। लेकिन जब कभी वह अम्मां और बाबू जी के साथ आता तो किसी न किसी बहाने चाची उसे अपने पास बुलातीं। उसे चूमतीं और प्यार करतीं। कुछ न कुछ खिलातीं। क्‍या मोहब्बत के अंकुर कभी नहीं सूखते? क्या उसके भीतर भी चाची के लिए कुछ था जो उम्र बढ़ने के बाद भी बचा रहा और वह जब मौका निकाल पाता तो उनसे मिलने चला आता। घंटे-दो घंटे के लिए ही सही।

 उन पलों में भी उन्हें अपनी तकदीर से शिकायत ही रहती, मगर एक हौंसला वह तब भी दिखातीं, “ए बाबू, एक दिन तूं...सर्वेश और अवधेश जवान हों जइब...अ...त...अ...हम्में जरूर सुख देब...अ...” अपने बेटों के साथ चाची उसका नाम जोड़ना कभी नहीं भूलती थीं...

 यह कैसी आशा थी जो दुराशा बन गई। वह पढ़ाई पूरी करने के बाद ही नौकरी पा गया। वह भी विदेश में, विदेश जाने से पहले शादी भी। शादी में चाची नहीं आई। सर्वेश बरात में था। विदेश जाने के बाद उसका गांव आना-जाना और कम हो गया। दो-तीन साल में एकाध बार। चाची से मिलता तो उनके दुख सुनता। चाची उससे उसकी बीवी के बारे में पूछतीं। वह उन्हें विस्तार से बताता। चाची को पैसों की ज़रूरत नहीं होती थी मगर उनसे अलग होते हुए वह उनके पैरों पर हज़ार-पांच सौ रुपए रख देता। वह उसे असीसतीं, “बाबू बनल रह...अ...तुहार एकबाल बनल रहे...” और चलते-चलते शरारत करतीं, “बाबू...हमसे बियाह करब...अ...” वह कहता, “एक बियाह त...अ...हो गइल...न...” चाची मुस्करा देतीं और उनके चेहरे पर वही लाली पुत जाती जो कभी बचपन में उसके चेहरे पर पसर जाती थी...

चाची के मन में क्या सचमुच बियाह की साध अधूरी रह गई थी? अधूरी इच्छाएं क्या इसी लिए हमेशा अकुलाती हैं कि उनकी तृप्ति का कोई मुक़ाम नहीं होता...

 उसे घर से मिलती चिट्रिठयों से पता चलता कि चाची ने सर्वेश और अवधेश की शादी की। बहुत अरमान से। मगर दोनों की पत्नियों से उनकी एक दिन के लिए भी नहीं बनी। उन दोनों बहुओं के बीच चाची पिसने लगीं। घर में घुसते ही उन औरतों का मुंह खुल गया था। औरत का मुंह जब खुल जाता है तो फिर बंद नहीं होता। बहुत जल्द दोनों भाइयों में बंटवारा हो गया। लेकिन दोनों बहुओं में से कोई चाची को अपने साथ रखने पर राजी नहीं हुई। लड़के बीवियों के गुलाम तो नहीं थे। उनकी बेहूदगी के आगे लाचार थे। एक शरीफ इन्सान की तरह हर जुल्म को खामोशी से देखते हुए। सर्वेश ने तो अपनी बीवी के साथ गांव ही छोड़ दिया। वह गोरखपुर शहर में किसी प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा।

 चाची फिर अकेली हो गई । विमला उनके साथ थी | वह भी खामोश-खामोश | अबकी बहुत अपनों ने ही चाची को तोड़ दिया। वह सूख गईं। रीत गईं। टूट गईं। हर रिश्ता उन्हें बेरहम लगने लगा था...

 अवधेश कभी-कभी बीवी की नज़र बचाकर मां से मिल लेता। कुछ मदद कर देता लेकिन चाची हर बार उसे बरजतीं, “बाबू, आपन घर-परिवार देख...अ...हमरे पीछे आपन सनसार न बिगाड़...अ...हमार का हवे...हमार त...अ...भगवाने बिगाड़ि दिहलें...बस, ई बिमला वियह जइतीं त...अ...हमहूं कउनो गड़ही-पोखरा खोज लेतीं...अब येह ज़िनगी में का बा कि रखाई...” उनकी आंखें बहने लगतीं...

 अवधेश उनके सामने से हट जाता। उसी ने विमला के लिए एक रिश्ता बताया। चाची ने विमला को भी बियाह दिया। विमला के गौने के बाद चाची निपट अकेली हो गईं...

 अकेली तो हो गईं लेकिन उनके इर्द-गिर्द एक संसार था। उस दुनिया में सर्वेश, अवधेश और विमला थे। एक-दूसरे से दूर, एक-दूसरे से अलग। मगर गुम्फित...

कुछ तो था जो उन्हें कहीं न कहीं जोड़े हुए था। यह जुड़ना ही कहां कम था। एक अकेली ज़िंदगी को तिनके का सहारा तो चाहिए था न...

 लेकिन उसी सहारे के दो तार अचानक टूट गए थे...

 यही ख़बर अम्मां ने मुझे दी थी, “सखी पर त बज्जरे टूट पड़ल...”

 अवधेश गांव की एक मिट्टी के साथ गया था। जाते समय ट्रैक्टर में गया और लौटते हुए वह प्राइवेट जीप से लौट रहा था। जीप एक पेड़ से टकरा गई। जीप में बैठे बारह यात्रियों में अकेले अवधेश की मौत हो गई। वह भी घटनास्थल पर ही। उसकी जेब में कोई काग़ज़ भी नहीं था कि पता चलता। क्‍या यह संयोग नहीं कि जिस जगह दुर्घटना हुई उसके किनारे वही गांव था जहां विमला ब्याही थी। उसी गांव के लोगों ने लाश की शिनाख्त की, “ई त...अवधेश बाबा हवें...”

 एक बेटा और एक बेटी छोड़ कर अवधेश चलते बने। अभी चार महीने भी नहीं बीते थे कि विमला भी प्रसव के दौरान चल बसी। वह पहले ही पांच बच्चों की मां बन चुकी थी। डॉक्टरों की हिदायत के बाद भी उसके पति ने कोई सावधानी नहीं बरती। चाची के सामने एक अलग दुनिया थी जिसमें चाहने के बावजूद उनका कोई दखल नहीं था। एक समय के बाद हमारा हस्तक्षेप कितना कम हो जाता है.

 उसने सायकिल ओसारे के नीचे खमिया के सहारे टिकाई। दरवाज़ा सुनसान। उजाड़। जहां ज़िंदगी मुस्कराती थी वहां घास के भींटे उगे थे। उसने सोचा कि कभी यह भी घर था। यही दरवाज़ा था जहां छह बैल होते थे। भैंस होती थी। एक गाय होती थी। सब बिकते गए एक-एक कर। और, रह गया या बच गया एक उजाड़पन। उसके ही नहीं, सबके दरवाज़ों पर...

 ओसारे में एक खटिया खड़ी थी। वह उसे बिछाकर बैठ गया। सामने से गुज़रने वाले उसे एक नजर चौंकते हुए देख कर गुज़र जाते। कोई ठहरता नहीं। पहचानता नहीं। कोई अपनापन नहीं। चाची तो घर में होंगी। उन्हें क्या मालूम कि दरवाज़े पर खटिया खुद बिछा कर उनका बाबू अकेले बैठा हुआ है। वह भी बरसों बाद...

 कुछ देर बाद उसने दरवाज़े की सांकल खड़काई। वह सांकल जो कभी उसके होश में लगती ही नहीं थी। चाची ने दरवाज़ा खोला और उसे कई पलों तक तो ऐसे देखती रह गई कि जैसे कोई पहचान ही न हो... जिस्म में जान के अलावा और कुछ शेष नहीं था। ढकर-ढकर बाहर को निकलीं सूनी आंखें... लटियाए सफेद बाल...सूनी कलाई...मांग में न जाने किस उम्मीद को जिलाता सिंदूर... सामने के गिर चुके दांत...गले के पास की उभरी हड्डियां...तन को सिर्फ़ ढकने की कोशिश में बिना ब्लॉउज़ के लपेटी सफेद धोती...और उससे निकले गल चुके स्तन...उसने सोचा कि याद किया “मोर जोबना में दुइ-दुइ अनार...” चाची चाचा को सुना कर गाती थीं। दोनों अनारों को किसकी नज़र लग गई...उसे ही कहना पड़ा, “बाबू...”

 

अरे...बड़का बाबू...मोर राजा...मोर बचवा रे...उजाड़े गइल जिनगी हमार...ई जग अन्हियार...दई हो का हम कइलीं तुहार...कि हे दई केहू नाई... भइल हमार...” चाची उसका पैर पकड़ कर ऐसे भेंटने लगीं जैसे गौने जाती हुई कोई लड़की अपने किसी रिश्तेदार को पकड़ कर अपनी भावी ज़िंदगी के प्रति आशंकित होते हुए भी यह विश्वास व्यक्त करती है कि दुख के दिनों में वही उसकी सहायता के लिए आगे आएगा। चाची की आवाज़ उनका साथ नहीं दे रही थी। गला फट गया था। उनके आंसू उसके पैरों को गीला करते रहे...

 

उन्होंने विस्तार से अपनी हिचकियों में बताया कि ज़िंदगी ने उन्हें किस तरह चोट पहुंचाई...और कितनी चोट दी। कि अब उन्हें कोई पूछता नहीं। कितनी आशा से उन्होंने अपने बाबू और अवधेश के प्रान बचाए थे कि एक दिन वही दोनों सुख की छांव में उनका अतीत बिसरवा देंगे लेकिन वह तो अपनी बीवियों के आगे महतारी को भूल गए या शायद अपने बाप की तरह ही मां के प्रति निरमोही हो गए। अवधेश के मरने के बाद तो उसकी दुलहिन काम-किरिया के तुरंत बाद मायके चली गई। यह भी नहीं सोचा कि इस भुतहे घर में वह अकेली कैसे रहेंगी। जब भगवान ने ही कभी सुध नहीं ली तो और कौन पूछेगा...कि पहले भी उन्हें कौन पूछता था...

 

वह सबकुछ तो जानता था...फिर भी उन्हें सुन रहा था। सुनने से भी एक सहारा बंधता है.

 

उसने सोचा कि चाची सबकुछ दुबारा-तिबारा कहकर जब कुछ हलकी हो जाएं तो वह चलने के लिए कहे। वहां रहना दुख के साथ रहना था। नरेन्दर के पास पहुंच कर राहत मिलती। उसने इंतजाम भी किया होगा। व्हिस्की और मटन का लेकिन चाची ने कहा, “बचवा...ए...मोर बाबू...राति रुकि जइत...अ.

 उसके लिए बेल का शरबत बना रही है, रोटी बेल रही हैं। दाल और सब्जी बना रही हैं। देशी घी टहकां रही हैं...सत्तर साल की तो होंगी ही। अम्मां से एकाध साल छोटी। वह उनकी फुरती को देख रहा है। कहां से आ गई है यह फुरती। यह फुरती है या किसी अपने को पास में पाने की खुशी। उनकी इस चंचलता में किसी के आने की आस अब भी है। क्या चाचा ज़िंदा होंगे? क्या पता हों, लोग तो सौ सालों तक जीते हैं। क्या पता चाचा भी ज़िंदा हों, अगर हों, तो आ जाएं न। इंतज़ार अब बहुत हो गया...

 एक सवाल उसके मन में भी है कि चाची के साथ ऐसा हुआ ही कयों...?


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