यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की नज़र में- (एक)
Sunday, August 25, 2024(विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। अपनी तरफ से उनसे जुड़ी कई मज़ेदार और गंभीर किस्से और यादें तो मैंने समय-समय पर यहाँ शेयर की ही हैं। इस बार उनके बाकी रिश्तों के नजरिए से भी उनके बारे में जानकर देखते हैं। तो इस कड़ी में प्रस्तुत है मेरे दूसरे नंबर के मामा श्री अजीत कुमार गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।
इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे
परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ
नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने
का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का
एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )
1- अजीत कुमार गुप्ता
जब मेरी भांजी
प्रियंका ने मुझे इस शीर्षक के बारे में बताया तो इसके बारे में सोचते हुए मैं
अपनी अति-प्रिय माँ-समान बड़ी बहन प्रेम दीदी के साथ बिताये हुए पुराने पलों को याद
करने लगा, और मुझे याद आने लगा कि कैसे हम सभी भाई-बहन बचपन में एक साथ मिलजुल कर
रहते थे। बराबर के भाई लोगों से तो अक्सर लड़ाई हो भी जाती थी, पर प्रेम दीदी शुरू
से हम सभी छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखती थीं, इसलिए उनसे कभी
लड़ने जैसा अवसर आया हो, मुझे नहीं याद पड़ता। प्रेम दीदी की शादी पंद्रह-सोलह साल
की उम्र में ही हो गई थी, उस समय हम लोग भी सब छोटे ही थे, लेकिन आज भी मुझे उनकी शादी
का दिन अच्छे से याद है कि कैसे उनकी बारात मिर्जापुर से गोरखपुर आई और कैसे वो
विदा होकर अपनी ससुराल चली गई। उनके जाने के बाद का खालीपन मुझे आज भी यह लिखते
हुए महसूस-सा हो रहा।
प्रेम दीदी
शुरू से हमारे माताजी-पिताजी के बेहद करीब थी या ये कहूँ, कि वे हमारे माता-पिता
की बेहद लाड़ली थी। इसीलिए जब संयोग से पिताजी का ट्रांसफर यहाँ कानपुर हुआ और अपनी
तबीयत के चलते यहीं पर उन्होंने ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली, तो उन्होंने दीदी व
जीजाजी को भी कानपुर बुला लिया और प्रयास करके जीजाजी की पहली नौकरी भी यहीं लगवा
दी। मन से तो तो दीदी मायके के करीब थी ही, पर इस तरह दीदी physically
भी हमारे परिवार के और नज़दीक ही आ गई। हालाँकि कुछ ऐसा इत्तेफाक़ रहा
कि उस नौकरी को छोड़कर जीजाजी ने अगली नौकरी भारतीय रिजर्व बैंक में की, जहाँ से मैनेजर
की पोस्ट तक पहुँचकर कानपुर ही रहते हुए जीजाजी रिटायर भी हुए।
एक दूसरा
इत्तेफाक़ और भी हुआ हमारे साथ...वह यह कि कानपुर में दीदी जहाँ-जहाँ भी रहीं,
हमारा घर भी कहीं-न-कहीं उनके आसपास ही होता था। इस तरह हम सबका आपसी जुड़ाव लगातार
बना रहा।
समय बीता
और 31 अक्टूबर के एक सर्द दिन को प्रेम दीदी ने एक प्यारी सी, सतवासी (यानि जिसका
जन्म सात महीने में ही हो जाए) बिटिया को जन्म दिया। अब जब प्रेम दीदी हम सबको
इतनी प्रिय थी तो लाजिमी था कि उनकी यह बिटिया भी हम सबकी आँखों का तारा बन जाती। तो बस अपनी इस अति-प्रिय भांजी का घरेलू नाम डिम्पल और बाहरी नाम प्रियंका रखा गया।
डिम्पल के
जन्म के समय प्रेम दीदी शादी के समय अपनी अधूरी छूटी पढ़ाई को पूरा करने में लगी
थी, इसलिए ऐसे में हम सबने बेटी के लालन-पालन में उनका पूरा सहयोग किया। चूँकि दीदी
और हमारा घर मात्र एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था, सो सुबह माताजी कभी मुझे, तो
कभी मेरे बड़े भैया को भेज देती थी, डिम्पल को लेकर आने के लिए...। कभी-कभी उन पलों
को याद करता हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे उस किशोरावस्था में एक हाथ से डिम्पल
को सम्हाले हुए, और दूसरे हाथ से साइकिल चलाते हुए हम लोग सुरक्षित रूप से एक घर
से दूसरे घर की दूरी तय कर लेते थे। हमारे पूरे परिवार के लिए बेहद लाड़ली डिम्पल
के साथ पूरा दिन कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता। हम सभी लोग स्कूल-कॉलेज आदि के
लिए चले जाते, पिताजी कोर्ट और माताजी घर के कामकाज के साथ डिम्पल को सम्हालने में
लग जाती।
हम सभी के
लाड़-प्यार के बीच पलती, हमारे घर-परिवार का अभिन्न हिस्सा-सी यह बेटी भी बड़ी हुई
और एक दिन भारी मन से हम सबने उसे भी उसके ससुराल विदा कर दिया।
किस्मत से
डिम्पल की ससुराल भी कानपुर में ही थी, अतः जब उसे प्रेम दीदी के पास जाने का मौका
मिलता, समय निकालकर दीदी के साथ ही वह हमारे यहाँ भी आ जाती। इस तरह से कहूँ तो
हमारा घर उसका भी बड़ा मायका बना रहा।
जब डिम्पल
का बेटा हुआ, तो प्रेम दीदी ने खुद उसे गोद में लेने से पहले हमारी एक और बहन,
स्नेह दीदी (दुर्भाग्य से वो भी आज हमारे बीच नहीं रहीं) की गोद में उसे दिया। डिम्पल
प्रेम दीदी की एकमात्र संतान है और अपने एकलौते नाती को खुद सबसे पहले लेने का
अधिकार या चाह जिस तरह से प्रेम दीदी ने छोड़कर स्नेह दीदी को दिया, उससे ही उनका
हमारे लिए प्यार और आत्मीयता समझी जा सकती है। डिम्पल के प्रति हम सभी की ही तरह
स्नेह दीदी का लगाव भी प्रेम दीदी को पता था। यहाँ पर एक और बात बताना चाहूँगा,
डिम्पल के बेटे का घरेलू, प्यार का नाम- चुनमुन- भी स्नेह दीदी का ही दिया है। चुनमुन
के होने के बाद दीदी का काफ़ी समय उसके लालन-पालन में भी जाने लगा, लेकिन इसके
बावजूद वे लगातार हम लोगों की तरफ भी पूरा ध्यान देती थीं। हफ्ते में लगभग दो
चक्कर तो वो हमारे घर का लगा ही लेती थीं, कभी अकेले तो कभी डिम्पल और चुनमुन के
साथ...। अगर कभी नहीं आ पाती तो माताजी या स्नेह दीदी को फोन करके सबका विस्तृत
हालचाल लेती। चुनमुन के जन्म से पूर्व ही दुर्भाग्यवश पिताजी और हमारी एक और बहन
माया दीदी मात्र एक हफ्ते के अंतराल में हम सबको छोड़कर चल दिए थे। ऐसे में प्रेम
दीदी ने बिना कहे ही हम सबके अभिवावक का रोल अदा करना शुरू कर दिया था।
अगले कुछ
सालों के अंदर ही पहले माताजी, फिर स्नेह दीदी के अचानक चले जाने के बाद तो प्रेम
दीदी मानों हमारी बड़ी बहन के साथ-साथ माताजी-पिताजी के रूप में भी साथ रहीं। उन
सबके जाने के बाद समय-समय पर प्रेम दीदी ने आर्थिक, मानसिक तथा भावात्मक रूप से हर
तरह से हम सबका पूरा-पूरा ध्यान रखा। बाद के वर्षों में खुद के भी थोड़े खराब
स्वास्थ्य के बावजूद वे हर ज़रूरत के समय हमारे ऊपर अपनी उपस्थिति के साये का एहसास
हम सबको कराती रहती थीं। शायद यह हमारे प्रति उनका अथाह प्यार ही था, कि अपने जाने
के मात्र एक हफ़्ते पहले हमारे छोटे भाई विवेक के वाइरल फीवर से बीमार पड़ने की बात
सुनकर न केवल वो डिम्पल के साथ हम सबसे मिलने आईं, बल्कि अपना ध्यान न देने के
बाबत हम सबको एक प्यार-भरी डाँट भी लगाई। चलते समय उन्होंने जल्दी ही फिर आकर हम
लोगों का हालचाल देखने का वायदा भी किया, पर कौन जानता था कि काल के क्रूर हाथ
उन्हें इस वायदे को पूरा करने का मौका ही नहीं देंगे।
अगले दो
दिनों के अंदर उनको व डिम्पल दोनों को बुखार आया और इससे पहले कि हम में से किसी
को भी किसी अनहोनी का अंदेशा हो पाता, मात्र चार-पाँच दिनों की मामूली-सी लगने वाले
तरीके से बीमार पड़ी प्रेम दीदी को 16 अगस्त, 2023 की रात उनका दिल ही धोखा दे गया।
उस एक पल
में हम सभी असहाय से रह गए और प्रेम दीदी अपने बच्चों के साथ-साथ हम सबको अकेला
छोड़कर इस संसार से चली गईं। वो दिन और आज का दिन ले लीजिए, हम सभी लोग अक्सर ही
उनको याद करते रहते हैं और अक्सर उनकी बातों की, उनकी यादों की चर्चा करते रहते
हैं। पता नहीं क्यों इस एक गाने की पंक्तियाँ उनको याद करते हुए अक्सर मेरे ज़ेहन
में घूमने लगती हैं-
एक
आह तो तुमने भरी होगी, हमने न सुनी होगी
जाते-जाते
तुमने आवाज़ तो दी होगी
हर
वक़्त यही है गम, उस वक़्त कहाँ थे हम
चिट्ठी
न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश
जहाँ
तुम चली गई
इस
दिल को लगाकर ठेस, जाने वो कौन सा देश
जहाँ
तुम चली गई...जहाँ तुम चली गई।
अब भी
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे दीदी दरवाजे से अंदर आते हुए पूछेंगी...कैसे हो तुम
लोग? सब लोग ठीक तो हो न? परंतु दूसरे ही पल सच्चाई का एहसास होता है। अब तो प्रभु
से बस यही प्रार्थना करता हूँ कि वे जहाँ भी हों, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति
प्रदान करें। साथ ही इस बात का भी प्रयास करता हूँ कि वे अपने पीछे हमारे परिवार व
साथ-साथ अपने बच्चों की भी शारीरिक, भावात्मक व आत्मिक देखभाल करने की जो
जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ गई हैं, उसे मैं पूरी निष्ठा से निभा सकूँ ताकि यदि वे
कहीं से हमें देख रही हों तो उन्हें पूरी तसल्ली रहे और उनकी आत्मा को कोई दुख न
पहुँचे।
-अजीत
कुमार गुप्ता
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