यादों के झरोखे से - कुछ अपनों के मन की (तीन)

Thursday, September 12, 2024

 विशेष- कानपुर के जिन साहित्यकारों को मैं लगभग अपने बचपन से जानती हूँ, श्री हरभजन सिंह मेहरोत्रा उनमें से एक हैं। स्वभाव से मितभाषी, विनम्र और सादगी-भरे हरभजन अंकल के साथ भी हमारा एक मन का रिश्ता रहा है। साहित्य से इतर पारिवारिक स्तर पर उनसे एक जुड़ाव बना रहा, उसके पीछे शायद एक वजह यह भी थी कि वे आम ज़िंदगी की तमाम उठा-पटक से दूर रहे। साहित्यिक ईर्ष्या से परे रहते हुए वे निरंतर अपने रचनाकर्म में जुटे रहते हैं, यह देखकर अच्छा लगता है। 

अपने इस संस्मरण में उन्होंने मेरी माँ यानि मानी जी और उनके एक संयुक्त उपन्यास लेखन की योजना का ज़िक्र किया है। पता नहीं क्या कारण रहा, लेकिन माँ के जीवन की कुछेक घटनाओं की तरह यह घटना मेरी याददाश्त का हिस्सा नहीं रही। लेकिन हरभजन अंकल का हार्दिक धन्यवाद, जो उन्होंने इस घटना को अपने संस्मरण का हिस्सा बनाकर मुझे भी उससे रु-ब-रु करा दिया। 

यहाँ पर एक बात और भी कहना चाहूँगी...सिर्फ साहित्यकारों या किसी भी विधा के लोगों से नहीं, बल्कि आम जीवन जीने वालों से भी...जो करना चाहते हैं, वर्तमान में ही कर डालिए, वरना कौन जाने वक़्त आपको कभी उस सपने को पूरा करने का मौका ही न दे। 

जैसे कि माँ के भाग्य में शायद अपने नाम से किसी उपन्यास का प्रकाशन देख पाना बदा ही नहीं था। अपने जीवन में, अस्सी के दशक के आखिर में या नब्बे के शुरुआती सालों में माँ ने दो उपन्यास लिखे- आसमान झुकेगा नहीं, और आहना...। आहना को आप बहुत हद तक उनका आत्मकथात्मक उपन्यास कह सकते थे, अगर वह छपने की कगार तक पहुँचा भी होता तो...। 

लेकिन एक बहुत लंबे समय तक अपनी लिखी किसी भी कहानी-कविता-व्यंग्य  को अपने मन में ही हल्का भी कमतर आँक कर उसे फाड़ देने वाली मेरी माँ ने पता नहीं किस पल में तय कर लिया कि वो दोनों उपन्यास जितनी अच्छी तरह से लिखे जा सकते थे, शायद नहीं लिखे गए। फिर क्या था, उनके इस आकलन (?) के चलते उन्होंने दोनों रजिस्टर चिथड़ा करके कूड़े के हवाले कर दिए। 

जैसा कि हमेशा होता था, उनकी रचनाओं की पहली पाठिका तो मैं थी ही, सो मैंने उस समय उनके वो दोनों उपन्यास पढे थे और मेरी जैसी किताबी-कीड़े को तो पाठकीय दृष्टि से उनमें कोई कमी नहीं नज़र आई थी। मैं चाहकर भी उनके सृजन के इस असमय काल-कवलित होने की घटना को रोक नहीं सकी। 

उसके बाद समय-समय पर जब मैं उनसे इस बात को लेकर गुस्सा जाहिर करती, वो बड़ी आसानी से मुझे यह कहकर चुप करा देती कि- मेरी अपनी रचना थी, पूरा उपन्यास मेरे दिमाग में तो है ही, जिस दिन लिखने बैठेंगे, पहले से बेहतर तरीके से लिख डालेंगे...। पर न वो दिन कभी आया और न अब आ पाएगा। यह बात एक कसक की तरह आज भी मेरे मन में टीस उठा देती है... काश! उन दोनों उपन्यासों को किसी तरह मैं बचा पाती तो...?

-प्रियंका 

यातनाओं में खिलते गुलाब

       हरभजन सिंह मेहरोत्रा

 


मेरे लिए मानी जी के बारे में लिखने के लिए महज़ कुछ पृष्ठ भर लिख देना न्यायपूर्ण नहीं होगा। दरअसल वे मुझे छोटे भाई की तरह मानतीं थी और सारी जिन्दगी वैसा ही ट्रीटमेण्ट करती रहीं।

 

सच तो यह है कि किसी भी रिश्ते की बुनियाद समाज द्वारा बनाये गये उसूल, रीति रिवाज़ या परम्परागत रस्मों से ही नहीं संभव है। बल्कि सम्बन्धों का निजी जुड़ाव परस्पर स्नेहसिक्त भावनाओं के बल पर पनपता है। बस्स ऐसा ही जुड़ाव भरा भाई-बहन का रिश्ता था हम-दोनों के बीच।  

 

हालाँकि इस रिश्ते का माध्यम साहित्यकार/लेखक होने की वज़ह से विकसित हुआ। पर कब यह भाई की कलाई में बहन द्वारा बांधी रेशम की डोरी-जैसी पवित्रता साक्षी बनकर हमारे दरम्यान प्रकट हो गई कि इसका इल्म हम-दोनों को ही नहीं हो पाया।  ऐसा भी हो सकता कि यह अहसास मुझे ही विलंब से हुआ हो।  

 

मुझे याद आ रहा है...एक बार उन्होंने मुझसे द्वय लेखक के रुप में एक उपन्यास लिखने के लिए कहा था। उस समय उनके मुख से जो शब्द निकले थे वे कुछ इस तरह से थे, "हम बहन-भाई मिलकर एक उपन्यास लिखते हैं।" संदर्भ था राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी लिखित उपन्यास-एक इंची मुस्कान का।  यहीं से उनका आइडिया डेवलप हुआ और हम दोनों ने अपने-अपने ढंग से कथानक के बारे में सोचना शुरु किया। मुझे जहाँ तक याद पड़ता है किसी एक कथ्य को लेकर हमारी सहमति भी बन गई थी। उनका सुझाव था कि उपन्यास का पहला अध्याय वे स्वयं शुरु करेंगी। भला इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी।  लिहाज़ा कुछ बैठकों के बाद हम इस नतीज़े पर पहुँच गये थे कि इसे अब शुरु कर देना चाहिए। उस समय तक मेरे तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। शायद अनायास का दूसरा संस्करण भी आ आ गया था। मुझे ठीक से याद नहीं। मैंने राम स्वरुप द्विवेदी (प्रतिभा प्रकाशन वाले) से इस उपन्यास को लेकर बात भी कर ली थी। जिसे उन्होंने अपनी सहमति भी दे दी थी। इस संदर्भ में उन्होंने मानी जी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी। शायद उनके लेखन से परिचय करने का उनका मंतव्य रहा हो। मैंने मानी जी से दिन तय करके प्रकाशक से फलां दिन आने के लिए कहकर दोनों से मुलाकात निश्चित करा दी थी।  पंडित जी इलाहाबाद से आते थे। इत्तेफाक से जब वे मेरे आवास पहुँचे तो पंजाबी के लेखक महेन्दर फारग और अमरीक सिंह दीप भी मौज़ूद थे।  

 

हम चारों ने घर पर पहले भोजन किया। तत्पश्चात मानी जी के पाण्डू नगर स्थित आवास पर गए। उस दिन यथार्थ संस्था के तत्वावधान में उनके आवास में गोष्ठी का आयोजन भी था। पर पंडित जी के कानपुर आगमन से मैं उस दिन गोष्ठी से अनुपस्थित रहा।  

 

                 

बहरहाल पंडित जी ने मानी जी से उनके साहित्य को लेकर अनौपचारिक बातचीत की। फिर हमसे लिखे जाने वाले उपन्यास के थीम के बारे में पूछा। मानी जी को शायद प्रकाशक का यह सवाल अनापेक्षित लगा। मुझे याद है वे थोड़ा असहज सी दिखीं थी।  

 

मैं बोलने में बहुत ही मितव्ययी रहा हूँ। लिहाज़ा चुप्पी साध गया। मानी जी ने मेरी तरफ देखा, "हरभजन जी, आपने इनको कुछ बताया नहीं।"

 

ठीक से याद नहीं, पर कोई तो कारण था जिससे मुझे महसूस हुआ कि शायद वह नाराज़ हो गई हैं। मैंने इतना ही कहा कि मुझसे इन्होंने कुछ पूछा नहीं। फिर नॉवेल तो अभी लिखा जाना है।" इस पर मेरे ऊपर फारग जी ने भी आपत्ति जताई। क्या कहा यह तो नहीं याद है।  पर मेरा स्विच ऑफ चेहरा देख मानी जी ने सहज होते हुए उपन्यास के थीम के बारे में बताया।

               

खैर...हम लोग वहाँ से चले आये। रास्ते में पंडित जी ने मुझसे कहा, "थीम में दम नहीं है।"

 

             

"नॉवेल तो लिखने दीजिए फिर अपनी ओपीनियन दीजिएगा। आप नहीं छापेंगे...कहीं तो छपेगा।" मेरे विश्वास को देखते तीनों चुप हो गये।

               

शायद हफ्ते भर बाद रामस्वरुप जी का खत मिला जिसमें उन्होंने लिखा था- उपन्यास लिखिए, मैं छापूंगा। मेरे लिए यह बहुत बड़ी खबर थी। अभी उपन्यास लिखा नहीं और प्रकाशन की स्वीकृति भी मिल गई।

               

डुगडुगी पीटने वालों ने यह खबर शहर के साहित्यिक हलकों में प्रसारित कर दी कि प्रेम गुप्ता मानी और हरभजन सिंह मेहरोत्रा मिलकर एक उपन्यास लिख रहे हैं, जो इलाहाबाद से प्रकाशित हो रहा है। कहीं यह भी बात सुनने में आया कि दोनों कोई रोमानी उपन्यास लिख रहे हैं। ज़ाहिर-सी बात है इसे स्वस्थ स्पर्धा के रुप में किसी ने नहीं लिया। अब इसके लिए क्या कहें। उल्टी-पुल्टी चर्चाएँ सुन मेरी तो हिम्मत जवाब देने लगी। मैंने जब मानी जी को लोंगों की ऐसी प्रतिक्रियाओ़ से अवगत कराया तो उन्होंने मुझे चुनौती स्वरुप अपना कार्य सिद्ध करने के लिए प्रेरित किया। उनसे मिले बूस्टर ने अपना असर दिखाना अभी शुरु ही किया था कि एक भयानक दुर्घटना ने मुझसे मेरे डैडी को छीन लिया। उस घटना के तीव्रगामी असर ने हमारे जीवन को बुरी तरह से त्रस्त कर दिया। माँ ने हम बच्चों की पीड़ा को और अधिक बढ़ावा देने के भय से अपने पति को खोने के दर्द को अन्दर आत्मसात् कर लिया।  वे न रोईं, न कोई स्यापा करने का नाटक किया। बस्स पीड़ा का ज़हर पीतीं रहीं और एक दिन हाईपर टेंशन से दिमाग़ की कोई नस में पैच पड़ गया। माँ तो बावरी हो गई। बड़ी बहन भी एक मानसिक आघात के चलते बिस्तर पर आ गई। बीच वाली बहन की अपनी गृहस्थी थी और दिल्ली रहती थी। उसने किसी तरह अपने आपको सहेज लिया। परन्तु मैं भी उस हादसे के दंश से छह महीने घर बैठा रहा। मतलब...ड्यूटी करना तो एक मजबूरी और आर्थिक पहलू से जरुरी था। पर मिलना-जुलना और लिखना-पढ़ना सब शून्य हो गया। पिता का होना घर की छत जैसे होता है, जब वो छत ही सिर में ना रहे तो कोई कैसे महफ़ूज रख सकेगा अपने और अपनों को।  छह महीने मैंने जिस अकेलेपन में काटे, वे उन यहूदियों को गैस चेम्बर में ठूँसकर मौत की नींद सुला देने जैसे थे। कोई भी हमारे पास नहीं फटकता था, जैसे हम अभिशप्त हों। हाँ, प्रेम गुप्ता मानी और गोपाल जी गुप्ता दो-तीन दफ़े घर पर आये।  मेरे ड्यूटी पर होने के बावजूद भी गुप्ता दंपत्ति ने मेरी माँ और बहन के अकेलेपन को घण्टों साथ बैठकर शेयर किया।  दोस्त बहुत बड़ी मलहम होता है ज़ख़्मों को भरने वाला।  तब पता चला जिनके साथ मैं महफ़िलें सजाता और कदम से कदम मिलाता दूरियां नापता वे तो बस्स मृगतृष्णा भर थे। किसी का नाम नहीं लूंगा।

               

मेरी मानसिक अवस्था देखकर ही...हो सकता है द्वय लेखक के उपन्यास लिखने के ख्वाब को मानी जी ने तोड़ दिया हो। हालाँकि उस उपन्यास पर वे स्वयं भी काम कर सकतीं थी।  पर ऐसा करना उन्हें मुनासिब नहीं लगा...शायद।  

 

हरभजन सिंह मेहरोत्रा

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