यादों के झरोखे से - कुछ अपनों के मन की (चार)

Tuesday, September 17, 2024

 

विशेष- हम कब, कहाँ और किससे कैसे मिलकर एक स्नेहासिक्त बंधन में बंध जाएँगे, यह हमें नहीं पता होता। अस्सी के दशक में माँ द्वारा गठित और संचालित कथा-साहित्य को समर्पित साहित्यिक-संस्था- यथार्थ- में नए-पुराने से लेकर देश भर के कई स्थापित साहित्यकारों ने समय-समय पर शिरकत की...कुछ ने तो अपने लेखन की शुरुआत ही ‘यथार्थ’ से की और आगे चलकर साहित्याकाश पर चमके भी...। कुछ लेखक आए, कुछ चले गए...कुछ दूर जाकर भी ऐसे जुड़े रहे मानो कभी कहीं गए ही नहीं थे। उन्हीं तमाम लेखकों जैसे ही बहुत बाद में एक लेखिका के तौर पर ‘यथार्थ’ में आई मीना जी कब और कैसे पारिवारिक स्तर पर भी हमसे जुड़ गई, पता ही नहीं चला। शांत, विनम्र, अपने अंदर बहुत कुछ समेटे हुए- लेकिन उसे अपनी समग्रता में बाहर निकालने में संकोच करने वाली, एक मृदुभाषी महिला के रूप में जानी जाने वाली एक सशक्त कहानीकार मीना जी भी मानी जी के लिए अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने से स्वयं को रोक नहीं पाई।

 

आज प्रस्तुत है हिन्दी व भोजपुरी में समान रूप से अधिकार रखते हुए दोनों भाषाओं में सृजनरत कथाकार मीनाधर पाठक के दिल की बात...प्रेम गुप्ता ‘मानी’ के लिए...।

-प्रियंका

 

    एक स्नेहिल और सशक्त कलमकार का जाना
                 -मीनाधर पाठक



2015 या 2016 की बात है। एक दिन मेरे पास वरिष्ठ कथाकार अमरीक सिंह दीप जी का फोन आया। कुछ औपचारिकता के बाद उन्होंने बताया कि कानपुर में कविता की तो बहुत सी गोष्ठियाँ होती हैं, पर कहानी की मात्र एक संस्था है ‘यथार्थ’, जिसे प्रेम गुप्ता मानी जी ने स्थापित किया था, और पहले लगभग चौदह-पंद्रह साल मानी जी ही उसे संचालित करती थीं, पर अब उनकी बेटी प्रियंका संभालती है, आप वहाँ आइए, आपको अच्छा लगेगा।

 

उस समय गोष्ठियों में जाना मेरे लिए ऐसा ही था जैसे बचपन में मेला जाना। उस मेले में तमाम तरह की चीजें देखने और खाने को मिलती थी। इस समय गोष्ठियों में नए-नए लोगों से भेंट और नई रचनाओं को सुनने का अवसर। मेरी आँखें चमक उठी थीं, बाद में मेरे पास प्रियंका का फोन भी आया। उस दिन पहली बार प्रियंका से बात हुई। प्रियंका ने अपनी संस्था ‘यथार्थ’ के बारे में पूरी डिटेल से मुझे जानकारी दी थी और अगले दिन होने वाली ‘यथार्थ’ की गोष्ठी में आमंत्रित किया था। मैं सहर्ष तैयार हो गई थी। 

 

अगले दिन जब मैं पहुँची तब गोष्ठी आरम्भ हो चुकी थी और कथा पाठ चल रहा था। मैंने एक दृष्टि वहां बैठे लोगों पर डाली। शशि श्रीवास्तव दीदी के सिवा कोई भी जाना पहचाना चेहरा वहाँ उपस्थित नहीं था। यहाँ तक कि किसी कारणवश उस गोष्ठी में स्वयं आदरणीय अमरीक सिंह दीप जी भी नहीं थे। मैं शशि दीदी की तरफ़ बढ़ गयी। वहां सभी की निगाहें मुझ आगंतुक पर टिक गयी थीं क्योंकि मैं भी उनके लिए अपरिचित थी। चूँकि मैं चलती गोष्ठी के बीच पहुँची थी, इसलिए मैंने संकेतों में शशि जी को अभिवादन किया और उनके इशारे पर उन्हीं के करीब चुपचाप बैठ गयी।

 

कहानी तो पहले से आरम्भ थी, सो मुझे समझ नहीं आ रही थी। मैं वहाँ बैठे सभी के चेहरे देख रही थी और सभी को बहुत बड़ा और स्थापित साहित्यकार मान, स्वयं को उनके बीच पाकर भाग्यशाली समझ रही थी, जबकि तब तक मेरी कुछ कहानियाँ लमही, कथाक्रम, निकट आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं और 92.07 fm पर मेरी कहानी ‘कहानी प्रतियोगिता’ में सम्मानित भी हो चुकी थी। खैर...

पढ़ी जा रही कहानी लम्बी थी और उसके समापन पर उस पर होने वाली समीक्षात्मक चर्चा को अल्पाहार हेतु कुछ समय के लिए रोक दिया गया था। 

 

तभी एक प्यारी सी लड़की मेरे पास आई और बोली कि आप मीना जी हैं? मैंने मुस्कुरा कर सिर भर हिला दिया। ये प्रियंका थी। उसी ने कहा कि मेरा नाम प्रियंका है और मैंने ही आपको फोन किया था।  आपका नंबर मुझे दीप अंकल (अमरीक सिंह दीप) से मिला था। फिर उसने सभी से मेरा परिचय कराया। तब तक सहायक ने मेज़ पर बिस्किट, नमकीन, मीठे के साथ और भी ढेर सारी चीजें प्लेटों में भर-भर कर लगा दी थीं।

 

सारी प्लेटें जब लग गईं तब एक भव्य स्त्री ने कक्ष में प्रवेश किया।  वे पहले भी कक्ष में बैठी कथा सुन रही थीं और मेरी दृष्टि घूम घूम कर उनपर अटक जा रही थी, वे सबसे आत्मीयतापूर्वक खाने के लिए आग्रह करने लगीं। मुझसे भी उन्होंने मुस्कराकर नाश्ता लेने को कहा तो मैंने भी चाय और एक नमकीन जीरा बिस्किट उठा लिया था।

 

मैंने धीरे से शशि जी से पूछा कि ‘मानी जी कौन है?’ हालांकि मैं कुछ कुछ अंदाजा लगा चुकी थी। उन्होंने इशारे से बताया। मेरा अनुमान सही निकला। कान तक गोलाई में कटे और सँवरे केश।  बड़ी-बड़ी आँखें...ललाट पर सुर्ख लाल रंग की बड़ी-सी बिंदी। स्लीवलेस ब्लाउज और करीने से पहनी हुई काली साड़ी में उनका गरिमापूर्ण व्यक्तित्व निखर उठा था। वे सबकी आवभगत में लगी थीं। कभी नमकीन की प्लेट किसी के आगे सरकाती थीं, तो कभी मिठाई की। लगभग दस मिनट बाद चर्चा का आरम्भ हुआ। इसके बीच भी बोले बिना ही वे इशारे से सभी को प्लेट से नाश्ता लेने को कहती रहीं। मैं उन्हें लगातार देख रही थी।

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यह मेरी मानी जी से पहली मुलाकात थी। कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा के बाद मेरा उनसे परिचय कराया गया और धीरे-धीरे उनसे स्नेह के धागे प्रगाढ़ होते गए। मानी जी एक स्थापित लेखिका थीं पर व्यवहार में वे कभी अपने लेखकीय कद का एहसास अपने सामने बैठे किसी नवांकुर को नहीं होने देती थीं। वह इतनी मधुर व सरस थीं कि मुझे कभी भी उनसे मिलने में या बात करने में हिचक या संकोच का अनुभव नहीं हुआ। और धीरे-धीरे लेखन से इतर एक मधुर स्नेह का संबंध बनता गया। कई बार फोन पर उनसे मैं अपने मन की बात कह लेती थी। वे भी अनेक बार अपना मन मेरे सामने खोलकर रख देती थीं। मुझे हमेशा उनसे बड़ी बहन का स्नेह और वरिष्ठ होने के नाते लेखन में मार्गदर्शन मिलता रहा। न जाने कितनी बार गोष्ठियों से इतर भी उनसे मिलने गई और हर बार उनके स्नेह की धारा में भीग कर लौटी। ये नेह दिनोदिन बढ़ता रहा। एक बार जब मैं शशि जी के साथ उनके घर पहुँची तब मेरा चेहरा देख कर वे बोलीं, “अरे मीना! तुम्हारी तबीयत खराब है क्या? तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यूँ है?”

मैंने उन्हें बताया कि बीमार थी पर अब ठीक हूँ।  मेरा जवाब सुनकर वे हैरत में पड़ गईं, “कहाँ ठीक हो? अपना चेहरा देखो जरा...! पहले से दुबली भी हो गयी हो। और रंग भी दब गया है। देखिये शशि जी, देखिकैसी हो गयी है? और कह रही है कि मैं ठीक हूँ। तुम्हें परेशानी क्या हुथी?”

मैंने उन्हें अपनी सारी परेशानी बता दी जो अब ठीक हो चुकी थी परन्तु उन्हें मुझपर भरोसा नहीं हुआ और उन्होंने उसी समय प्रियंका से कुछ होमीयोपैथिक दवाएँ मँगाकर मुझे थमा दीं, “इसे नियम से खाना। इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है...और अपना ख्याल रखा करो...।

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ऐसी थीं मानी जी। मैं उन्हें दीदी कहती थी। 

उनसे जब भी बात होती थी तो लगता था कि लेखन में नहीं, लेकिन अंदर से कहीं न कहीं हम दोनों एक से थे। 
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एक बार उनका फोन आया कि मीना मैं तुमसे एक राय लेना चाहती हूँ, ये बात अपने तक ही रखना। मैंने कहा कि आप निश्चिंत रहें।
उन्होंने कहा कि मैं
यथार्थके बैनर तले कानपुर के कथाकारों को बारी-बारी से सम्मानित करना चाहती हूँ। मैंने कहा कि ये तो बहुत अच्छी बात है दीदी। इस विषय पर हमारी देर तक चर्चा हु। अंत में ये तय हुआ कि स्त्री कथाकार से सम्मान देना आरम्भ करते हैं। जब हमने नाम गिने और उनका लेखकीय अवदान देखा तो कथाकार शशि श्रीवास्तव जी का नाम निकलकर आया और उनका नाम तय कर दिया गया। यथार्थका पहला सम्मान उन्होंने स्वयं शशि जी की प्रदान किया। इस अवसर पर बहुत से वरिष्ठ कथाकार उपस्थित रहे।  इस बात का ज़िक्र मैंने इस लिए किया कि यह मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात थी। इस कार्यक्रम को कुछ समय बीत गए। 
 

एक दिन मुझे ख़याल आया कि मानी दीदी से बात किये बहुत दिन हो गए। मैंने तुरंत उन्हें फोन मिला दिया। फोन नहीं उठा। मैं अपने काम में लग गयी। कुछ घंटे बाद फिर से फोन किया। इस बार भी फोन नहीं उठा। मैंने सोचा शायद कहीं व्यस्त होगीं। अगले दिन फिर अपनी दिनचर्या में लग गयी। शाम को शशि जी का फोन आ गया।  मीना, मानी जी का फोन नहीं उठ रहा जरा तुम मिलाओ। तब मैंने उन्हें बताया कि मेरा भी फोन नहीं उठा। न जाने क्यों मन में कुछ आशंका सी उठ रही थी जिसे मैं बार-बार इग्नोर कर रही थी। मन नहीं माना तो मैंने प्रियंका को वाइस मैसेज भेजा, पर वही ढाक के तीन पात। उधर से कोई उत्तर नहीं। मैं और शशि जी दोनों परेशान थे कि क्या बात है जो फोन नहीं उठ रहा है। यहाँ एक बात कहूँगी कि हम दोनों परेशान और चिंतित अवश्य थे पर ऐसा कुछ हो जाएगा, तनिक भी अनुमान नहीं था। 
 

तीन-चार दिन बाद प्रियंका का मैसेज आया कि माँ बीमार हैं। प्रार्थना करें। कलेजा मुँह को आ गया। 
 

किसी तरह उसने मैसेज करके बताया कि माँ अस्पताल में भरती हैं।  मैं रात में ही भागकर गई, पर वे आईसीयू में थीं। मुलाक़ात नहीं हो सकी। मैं प्रियंका को हौसला देकर वापस आ गयी। उसी दिन देर रात भेजा गया प्रियंका का मैसेज मैंने सुबह पढ़ा। वे हमारे लिए अपनी साहित्यिक विरासत छोड़कर संसार से विदा हो चुकी थीं।
 

उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ वह शायद ही कभी भर सके।  मैं अब भी उनकी तस्वीर भर-नज़र नहीं देख पाती हूँ। अक्सर उनकी आवाज़ कानों में गूँज उठती है। 
 

उनका कथा संग्रह ‘बाबूजी का चश्मा‘ मैंने पढ़ा है। उनके लेखन का स्तर कितना ऊँचा था, यह उनकी कहानियाँ पढ़कर जाना जा सकता है।
 

एक स्नेहिल, सहृदय और सशक्त कलमकार मानी दीदी के परलोक गमन से कानपुर के कथा साहित्य की जो क्षति हुहै वह कभी पूर्ण नहीं होगी।
 

अब मैं प्रियंका में मानी दी को देखती हूँ। वे यहीं हैं। हमारे दिलों में... और हमेशा रहेंगी...   

मीनाधर पाठक


 

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