यादों के झरोखे से- कुछ अपनों के मन की (पाँच)
Monday, September 23, 2024विशेष- एक बहुत ही शांत, हँसमुख और विनम्र स्वभाव के श्री शराफ़त अली खान, जिन्हें मैं शराफ़त अंकल कहती हूँ, उनके साथ व्यक्तिगत जीवन की बहुत कम यादें ही मेरे पास हैं। जिस दौर के अपने कानपुर-प्रवास का ज़िक्र उन्होंने किया है, उस समय गोष्ठी से इतर भी किसी रविवार या शनिवार को उनके मेरे घर में आने की कुछ-कुछ याद मुझे है। उनके आने पर भी मैं ज्यादातर अपने में मस्त रहती थी, कई बार बस नमस्ते करके, मामूली से हालचाल को बताकर मम्मी-पापा के पास उनको बैठा छोड़कर मैं अपने कमरे में चली जाती थी (ज़ाहिर है, हालचाल मे- पढ़ाई कैसी चल रही है, जैसा ही कुछ होता था) फिर भी उनके द्वारा पहले और बाद के भेजे पत्रों को पढ़ते हुए मैं उनसे अच्छे से वाकिफ़ भी थी। कानपुर से जाने के बाद भी बहुत समय तक पापा और माँ से उनका पत्र-व्यवहार चलता रहा। उस समय के दस्तूर के हिसाब से उन पोस्टकार्ड्स और अन्तर्देशीय पत्रों में पारिवारिक हालचाल भी साझा होते थे। उनकी बड़ी बेटी के जन्म के बाद उनका लिखा वो पोस्टकार्ड अभी भी मुझे याद है, जिसमें उन्होंने उसका नाम प्रीति रखने की सूचना दी थी। उस छोटे से पत्र में भी जो आत्मीयता और पारिवारिकता की खुशबू थी, वो आज भी मुझे महसूस होती है। सौभाग्य से शबाना आंटी के रूप में उनको सचमुच अपनी soulmate ही मिली हैं। शबाना आंटी से अभी तक सामने से मिलना भले ही नहीं हो पाया, लेकिन माँ और मेरी अक्सर उनसे भी फोन पर या विडिओ पर जब भी बात होती थी, बेहद अपनापन महसूस होता रहा।
जीवन के अलग-अलग
रोल्स को बखूबी निभाने वाले एक बहुत प्रतिष्ठित और सशक्त लघुकथाकार श्री शराफ़त अली
खान जी सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मेरे कहने पर तुरंत ही माँ के लिए अपनी यादें
लिखकर मुझे भेजी। लेकिन जैसे कि उनके व्यक्तित्व की सरलता के मद्देनजर मैं ‘यथार्थ’
की वर्चुअल गोष्ठी में भी उनको अपनी बात कहने के लिए आमंत्रित करते समय अक्सर कहती
थी- Last, but Not the least- उसी तरह माँ के
लिए एक साहित्यकार की यादों की इस आखिरी किस्त को बेहद सम्मान और अपनेपन के साथ प्रस्तुत
कर रही हूँ...।
लेकिन हाँ,
व्यक्तिगत यादों की लड़ी में तो अभी भी बहुत कुछ है...सो पिक्चर अभी बाकी है, दोस्तों!
-प्रियंका
मैं वायदा पूरा न कर सका
शराफ़त अली ख़ान
आदरणीया 'प्रेम गुप्ता मानी जी से मेरा पत्राचार
संभवतः 1986-87 से शुरू हो गया था। उन दिनों कानपुर
से वह "यथार्थ" नामक एक स्तरीय साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन किया करती
थीं। जिसका लगभग प्रत्येक अंक मुझे मेरे बगरैन, बदायूं
के पते पर भेजा करती थीं।
संयोग से मेरा चयन वन विभाग में वन दारोगा पद पर हो गया और मुझे 11 माह के प्रशिक्षण पर कानपुर के किदवई नगर
स्थित "वानिकी प्रशिक्षण संस्थान" जाने का आदेश मिला तो मुझे मानी जी की
याद आई। कानपुर मैं कभी नहीं गया था और कानपुर में मानी जी के अतिरिक्त मेरा कोई
परिचित नहीं था, इसलिए मैंने प्रशिक्षण पर जाने से
पूर्व एक पोस्टकार्ड मानी जी को लिखा कि मैं कानपुर आ रहा हूं। जनवरी 1989 के प्रथम सप्ताह में मैं कानपुर के किदवई नगर, तारबंगलिया स्थित वानिकी प्रशिक्षण संस्थान
पहुंच गया। एक दिन मैं मैस से खाना खाकर हॉस्टल की तरफ जा रहा था तभी एक स्कूटर
मेरे पास आकर रुका। स्कूटर पर बैठे सज्जन ने मेरे ही बारे में पूछताछ की। वह दरअसल
प्रेम गुप्ता मानी जी के पति श्री गोपालजी गुप्त जी थे। एक दिन तय समय पर मैं उनके
साथ उनके आवास जो कि संस्थान के पास ही था, मानी
जी से मिलने गया। मानी जी प्रत्येक माह के किसी शनिवार को अपने आवास पर एक
साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया करती थी; चूंकि
उनका आवास मेरे संस्थान के पास ही था। इसलिए मैं ऐसे हर शनिवार मानी जी के आवास पर
गोष्ठी में सम्मिलित होता। गोष्ठी में साहित्य जगत के नामचीन लेखक जैसे श्री रमेश
खुराना स्वप्न, अमरीक सिंह दीप, कैलाश चंद शर्मा आदि अनेक लेखक इकट्ठा होते ।
प्रत्येक अपनी सप्ताह में लिखी रचना सुनाता और सभी उस पर चर्चा करते। उनकी एक
दुबली पतली लंबी सी 10-12 साल की बेटी थी, जो अक्सर गोष्ठी में आते-जाते दिख जाती थी। आज
हिंदी कथा जगत उस लड़की को प्रियंका गुप्ता के नाम से जानता है।
कानपुर से आने के बाद नौकरी में व्यस्तता के बावजूद यदाकदा मानी जी
से संपर्क बना रहा उन्होंने भी समय- समय पर अपनी प्रकाशित पुस्तकें मुझे भेजीं।
जिनमें से उनका भेजा हुआ कहानी संग्रह " बाबूजी का चश्मा" आज भी मेरी
निजी लाइब्रेरी में शोभा बढ़ा रहा है। 11
माह के प्रशिक्षण के बाद मुझे दोबारा कानपुर जाने का अवसर नहीं मिला।
कोरोना काल के बाद एक बार पुनः यथार्थ संस्था सक्रिय हो गई। मानी जी
और प्रियंका जी ने यथार्थ के माध्यम से अब वर्चुअल गोष्ठी के आयोजन का शुभारंभ किया।
इसमें उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया। महीने में करीब एक दो बार रविवार को
साहित्यिक गोष्ठी नियमित रूप से चलती रहीं। अब यथार्थ में और भी नए-नए लेखक-
लेखिकाएँ शामिल हो चुकी थीं। गोष्ठी में एक लेखक या लेखिका की एक कहानी सुनी जाती
। फिर उस पर सभी लोग बारी-बारी से अपनी टिप्पणी देते। गोष्ठी में मानी जी भी
सक्रिय भूमिका निभाती रहीं।
एक दिन मानी जी का फोन आया। उन्होंने " परिंदे" पत्रिका
में मेरी कहानी "बिगड़ी हुई लड़की "पढ़ी थी। उन्होंने कहा कि मैं तो
समझती थी कि आप केवल लघुकथाएँ ही लिखते हैं, आपने
तो बहुत अच्छी कहानी लिखी है। बहुत ही अच्छी लगी तो मैंने कहा कि मैंने कहानियाँ तो
लिखी हैं, मगर बहुत कम । इसलिए लोगों को पता नहीं
है। उन्होंने कहा कि कोई किताब छपी हो तो भेजिएगा। मैंने बताया कि मेरा हाल ही में
एक आत्मकथात्मक संस्मरण की पुस्तक "जो कुछ याद रहा" छपी है, जो मैंने आपको भेजी है। उन्होंने फौरन प्रियंका
से पूछा कि क्या वह किताब आई है? प्रियंका
ने पुस्तकों में से किताब निकाल कर मानी जी को दी। पुस्तक में मैंने मानी जी के
बारे में भी लिखा था। किताब पढ़ कर मानी जी ने फिर फोन किया और बहुत ही प्रसन्नता
प्रकट की। पुस्तक पर काफी कुछ बातें हुई, बरेली
और यहां के साहित्यकारों के बारे में भी पूछा। फिर मुझसे एक वादा लिया कि मैं इसी
तरह की कोई कहानी 15 दिन के अंदर उन्हें लिखकर भेजूं।
मैंने उनसे वादा तो लिया मगर फिर 15
दिन बाद ही एक मनहूस खबर मिली की मानी जी इस नश्वर संसार को छोड़ गईं और मैं अपना
वादा भी पूरा न कर सका।
- शराफ़त
अली ख़ान
2 comments
सशक्त रचनाकार की सुन्दर यादें, मानी जी को सस्नेह नमन। मानी जी की बिटिया के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteइतनी प्यारी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏
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