अतिथि देवो...न भवो...!
Saturday, July 01, 2017
कहते हैं हमारा
भारत देश संस्कारों और परम्पराओं का देश है...| समय बदला, लोग बदले... पर अपने देश
पर हमारा ये गर्व नहीं बदला...| किसी ज़माने में पश्चिमी देशों को हिक़ारत से देखने
वाले हम आधुनिकता के नाम पर धीरे-धीरे खुद को भी उसी ढर्रे में ढालते चले गए |
अपनी परम्पराओं और मान्यताओं से दूर होते जाना `सभ्य से सभ्यतर’ होने की निशानी मानी जाने लगी...|
यूँ लगता है मानो जब तक हमने पश्चिमी देशों की नक़ल नहीं की थी, हम `असभ्य और जंगली’ ही थे...| भाषा,
पहनावे, खान-पान और बाकी के भी तौर-तरीकों में हम ग्लोबल क्या हुए, आज अपने ही देश
में अपने जैसे नहीं रह गए...|
मुझे याद है,
जब मैं छोटी थी तो अक्सर यह सुन कर बेहद आश्चर्य होता था कि विदेशों में बच्चे
अट्ठारह साल के होने पर घर से दूर चले जाते हैं...| उनकी अपनी दुनिया हो जाती है|
माता-पिता या भाई-बहन से उनके रिश्ते बस क्रिसमस और थैंक्स-गिविंग पर मिलने या फिर
फोन पर हाय-हैलो कहने तक ही सिमटे होते हैं...| तब अपने घर-परिवार और
नाते-रिश्तेदारों के गाहे-बगाहे लगने वाले जमावड़ों, गर्मी की छुट्टियों में दो
महीने तक सारे बच्चों के साथ दादी-नानी के घरों में मचने वाली हुल्लड़ के मद्देनज़र
ये सब बातें किसी दूसरी दुनिया की किस्से-कहानियों सरीखी लगती थी...| माँ-बाप की
बंदिशों के बीच साँस लेते हम बच्चों की कल्पनाओं में उन विदेशी बच्चों की थोड़ी सी
ज़िंदगी जी लेने की ललक भी कभी-कभी शामिल हो जाती थी, जहाँ वो अपनी मर्जी के मालिक
हुआ करते थे...|
धीरे-धीरे वक़्त
बीता, हम बच्चे से बड़े हुए और फिर एक दिन खुद माँ-बाप के किरदार निभाने को तैयार
हो गए| जैसे जैसे तकनीकी रूप से सारी दुनिया से जुड़ते गए, बाकी दुनिया हमारे आसपास
सिमटने लगी| जो बातें उस समय कल्पनाओं में चोरी से आकर कभी खुश करती थी, तो कभी
उदास...उन कल्पनाओं ने हकीक़त का जामा पहनना शुरू कर दिया| हम खुद तो घर-परिवार के
बीच रह कर अपने परिवार के सपनों को पूरा करते रहे, पर अपने बच्चों को उड़ने के लिए
हमने पूरा आसमां दे दिया...| जिन बातों से कभी हम हैरान होते थे, उन बातों ने अब
बिलकुल रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन के सामने आना शुरू कर दिया| अब पहले की
तरह छुट्टियों में न तो दादी-नानी के घर से मामी-चाची की बुलाहट होती है, न अब
बच्चों के अन्दर अपने चचेरे-ममेरे (पढ़ी-लिखी ज़ुबान में बोले तो- कज़िन) से मिलने की
ललक उठती है...| खुद हम भी नहीं चाहते कि हमारे घर में हर समय कोई भी मुँह उठाए
चला आए...| अब किसी की याद आने पर हम बेधड़क उसका दरवाज़ा नहीं खटखटाते, बल्कि वाट्सएप
पर थोड़ा टाइम निकाल कर बस `मिस यू’ बोल देते हैं...| हम भी खुश, वो भी खुश...! अपने घर में लैपटॉप और
मोबाइल संग गूँगी बातचीत में हम इतने बिज़ी हैं कि किसी से न तो जाकर मिलने की
इच्छा होती है, न किसी को अपने घर बुलाने की फुर्सत...|
`घर’ के नाम पर याद आया...| हमारे ये घरनुमा मकान अब पहले के मुकाबले बेहद
सुरुचिपूर्ण और भव्य तरीके से सजते हैं,
महँगे-महँगे सामानों से कोना-कोना दमकता है, पर उन्हें देखने वाले...उन पर गर्व से
फूले न समाने वाले हम अकेले ही उनके बीच बैठे रहते हैं...| पहले की तरह एक साधारण
से सोफे या खटिया बिछा कर बैठने वाले दोस्तों के ठहाके अब इतने सुसज्जित ड्राइंग
रूम में नहीं गूंजते...| हम अमीर तो होते जा रहे हैं, पर रिश्तों के मामले में
बेहद गरीब हो चुके हैं, और हमे इसका अंदाजा तक नहीं है...|
हाल ही में अपनी
रिश्तेदारी में ऐसे ही एक सुसज्जित ड्राइंग रूम में जाने का मौक़ा मिला...| दस मिनट
की उस संक्षिप्त मुलाक़ात में ही पता चल गया, ड्राइंग रूम की सारी सार-सजावट बदल दी
गई है, उसे और भी खूबसूरत बनाने के लिए...| मेजबान खुश दिखा, क्योंकि मैंने उसके
ड्राइंग रूम की तारीफ कर दी थी| बस एक बात खटकी, उनका नया सोफा सेट महँगा होने के
बावजूद बहुत असुविधाजनक था...| गद्दियाँ ऐसी सख्त कि दस मिनट में शरीर दुखने लगा...|
खुद को रोकते-रोकते भी मैं ये बात बोल पड़ी| सुन कर मेरी मेजबान पहले तो हँसी, फिर
बेहद खुफिया अंदाज़ में उन्होंने इसका राज़ खोला...आरामदायक सोफा होगा तो जो मेहमान
आएगा, वो आधा घंटे की बजाये दो घंटा वहीं जम जाएगा...| तकलीफ़ से बैठेगा तो अगर एक
घंटा भी सोच कर आया होगा तो दस मिनट में भाग जाएगा...|
मुझे हैरान देख
कर बेहद इमानदारी से उन्होंने स्वीकार कर लिया, ये लॉजिक उनके अपने दिमाग़ की उपज
नहीं थी, बल्कि दुकान के सेल्समैन ने उन्हें यह ज्ञान दिया था...| सिर्फ उन्हें ही
नहीं, बल्कि अपने कई खरीददारों को उसने उससे भी ज़्यादा सख्त सोफ़े इसी मुफ्त ज्ञान
के साथ ऊँची कीमतों पर बेचे थे...| मुफ्त में ही उस दिन ऐसा ज्ञान पाकर मानो मैं भी
धन्य हो गई...| दस मिनट में उनसे विदा लेकर चलते समय समझ नहीं आ रहा था कि किसी
ज़माने में विदेशों में घर आए आगंतुक को दरवाज़े से ही विदा करने के चलन को बुरा
मानने वाले मेरे जैसे लोगों को इस ज्ञान का क्या करना चाहिए...? आज हमारे लिए भी `अतिथि देवो भवो...’ नहीं रह गया है, बल्कि एक अनचाहा, बिन माँगा बोझ हो गया
है...|
सच है न, अपने
ही हाथों अपनी ज़िंदगी में इस तरह के अकेलेपन के ज़हर को घोल कर भी हम कितने खुश हो
रहे...| क्या एक बार भी हमने ये सोचने की जहमत उठाई है कि दिन-ब-दिन होती जा रही
इस तकनीकी उन्नति ने दुनिया सचमुच हमारी मुठ्ठी में तो कर दी, पर हमारी हथेली खाली
हो चुकी है...|
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
35 comments
हम जैसों का मन तो अब भी ललकता है कि कोई तो आये और जो आये वो जम कर बैठे ।
ReplyDeleteनई पीढ़ी जरूर बदल गई है। वेसे उनके भी दोस्त आये तो वे खुश होते हैं, अपने कमरे में घण्टो बैठते हैं। ये फर्क जरूर है,हमारे लिए सारे मेहमान रक से होते थे, गांव से आया कोई अनजान भी,पड़ोसी के पुत्र का दोस्त भी पर आज की पीढ़ी, अपनी पसंद आयर सुविधा सर्वोपरि रखती है।ज्यादा बेबाक है, अनचाहे लोगों को नहीं झेलती ।
हाँ, नई पीढी के कुछ बच्चे अभी भी दोस्तों के घर जा रहे, पर अधिकतर ने बाहर ही मिलना शुरू कर दिया है...| अफ़सोस तब होता है, जब आजकल के लोगों की ज़िंदगी में मेहमान का दूसरा मतलब ही `अनचाहा इंसान' होने लगा है...| वैसे जिन मेजबान का हमने ज़िक्र किया है, वे नई पीढी की नहीं, बल्कि हमारे-आपकी पीढी की महिला हैं...|
Deleteअभी तो ब कमेन्ट किया था, कहां गया :(
ReplyDeleteदुनिया मुट्ठी में लेकिन दुनिया खाली ... शहरी ज़िन्दगी में तो वैसे भी मेहमानों का आभाव रहता है ...सटीक लेखन
ReplyDeleteशुक्रिया संगीता जी...:)
Deleteबहुत सारे पहलु हैं इस पोस्ट के ....समझ नहीं पा रही किसके बारे में पहले बोलूं :) . मुझे लगता है हम न कल बिगड़े थे किसी वजह से, न आज बिगड़ रहे हैं किसी की वजह से .... बात शायद यह है कि हिप्पोक्रेट हैं हम :) आला दर्जे के आत्ममुग्ध भी. अपनी कमजोरियों का ठीकरा हमेशा दूसरों के सिर फोड़ने वाले हा हा हा ...
ReplyDeleteकाफी कुछ सोचने को मजबूर करती पोस्ट.
:) :)
Deleteप्रियंका ,हम जैसे लोग अभी भी है जो मेहमान को अपने परिवार का सदस्य ही समझते हैं :)
ReplyDeleteपर हाँ ये भी सच है की अधिकतर दूसरों के घरों में ये तत्व गायब या कम ही दिख रहा है .....
आपका अपनापन तो आपके घर आने वाला सारी ज़िंदगी नहीं भूल सकता...:*
Deleteबढ़िया पोस्ट ... आगाह करते विचार कि यूँ ही ख़ुद तक सिमट गए तो अकेलापन ही हाथ आएगा | वाकई अपनापन तो गुम हुआ ही है
ReplyDeleteयही तो अफ़सोस होता है...| कहाँ जा रहे हैं हम...?
Deleteबीतते समय के साथ सोच और जीने का सलीका सब बदलता चला गया है ......
ReplyDeleteबदलाव जहाँ और जितना ज़रूरी हो, अवश्य करना चाहिए...पर कम-से-कम जो हमारे जीने के लिए ज़रूरी ढांचा था, जिसकी वजह से हम कभी खुद को अकेला नहीं महसूस करते थे, उस अपनत्व भरे मेहमान-मेजबान के रिश्ते को तो बचा कर रखा जा सकता है...| अब तो और भी ज़्यादा, जब अकेलापन और उससे उपजे अवसाद की घटनाएँ बढ़ती जा रही...|
Deleteये कहानी बहुत थोड़े से मेट्रो शहरों के है | हमें छुट्टियों में घर जाने के लिए टिकट नहीं मिलती ये बताती है की गर्मियों में अब भी दादी नानी के घर गुलजार होते है :)
ReplyDeleteआजकल नानी-दादी के घर की बजाय जॉब और पढाई दोनों की वजह से बाहर रहने वाले लोग या तो घर जाते हैं या फिर बेचारे दादा-दादी/ नाना-नानी/ माता-पिता ही उनसे मिलने जाने लगे हैं...| इसके अलावा आजकल कई जगह तो हमने छुट्टियों में बच्चों को घर जाने के लिए उत्साहित देखने की बजाय अपने दोस्तों के साथ शहर से बाहर जाकर घूमने को ललकते देखा है...|
Deleteमुझे कही ब्लॉग फॉलो करने का विकल्प नहीं मिला |
ReplyDeleteवो विकल्प फ़िलहाल हटा हुआ है | पर आप आते रहिए...आपके विचार जान कर अच्छा लगेगा हमेशा...|
Deleteवो दिन न रहे अपने रातें न रही वो ... अब इसे अमीरी कहें या गरीबी !
ReplyDeleteमेरे हिसाब से तो हम अमीर होने के बावजूद बेहद दिन-ब-दिन गरीब होते जा रहे...रिश्तों से, प्यार और अपनेपन से महरूम...बेहद अकेले-से...|
Deleteisi par to hum log live charcha kiye the :)
ReplyDeleteतुमसे तो जाने क्या-क्या चर्चा हो जाती है...:D
Deleteबढ़िया रचना !
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रही हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
मानती हैं न ?
मंगलकामनाएं आपको !
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
इस उत्साहवर्द्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...|
Deleteबहुत बढ़िया पोस्ट. इसी से मुझे याद आया कि मेरे एक परिचित के घर पर उनकी घड़ी आधे घंटे आगे रहती थी (होती मेरे घर पर भी है).. जब मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि कोई आएगा तो अपनी घड़ी से और जब उनके घर पर उनकी घड़ी देखेगा तो लगेगा कि बहुत समय बीत गया तो जल्दी चला जाएगा!
ReplyDeleteऐसे भी होते हैं लोग!!
अब तो ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती देख रहे हैं चचा...| जाने क्यों इंसान मन से इतना कृपण हो गया...|
Deleteजय हिन्द...जय #हिन्दी_ब्लॉगिंग...
ReplyDeleteजय हिन्द...!
Deleteवक्त के साथ बदलती सोच का सही आकलन
ReplyDeleteशुक्रिया वंदना जी...:)
Deleteमैं अब भी उन संस्कारों को बचाने की कोशिश में लगी हूँ,
ReplyDeleteकहां तक कामयाब हो जाऊंगी पता नहीं स्वागत है आपका जब कभी आओ ...खाना खा कर जाना ...👍
सुखद अहसास होता है बुआ, जब आप जैसे भी कई लोगों को देखती या मिलती हूँ...| आपके हाथ के स्वादिष्ट खाने का तो बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहेगा...:)
Deleteकुछ समय से अकेले रहना पड़ रहा है। अकेले खाने की टेबल पर बैठना उबाऊ सा लगता है। अब नियम बना लिया घर में उसी का स्वागत है जो खाना या नाश्ता साथ खा कर जाये।
ReplyDeleteचाहे किसी भी कारण से कर रहे हों आप ऐसा, पर यह कदम निश्चय ही स्वागत योग्य है...| परम्परा क़ायम रहे...|
Deleteजिंदगी की अंधी रफ़्तार में वास्तविक का धरातल बहुत पीछे छूटा जा रहा है
ReplyDeleteविचारशील प्रस्तुति
बहुत शुक्रिया...
Delete