एक खण्डहर और चंद धड़कने...

Thursday, June 22, 2017

(गतांक से आगे...पिछली पोस्ट 'यादों के मुहाने पर' आप यहाँ पढ़ सकते हैं...)



उन सारी दीवारों से बने ढेर सारे कमरों में से सबसे ज़्यादा पसंद मुझे एक ही कमरा था...जिसे बाकी सभी लोग ‘बैठका’ बोलते थे और मेरे लिए वो ‘गुड़िया-घर’ वाला कमरा था| ऐसा नहीं था कि किसी और कमरे या जगह से मुझे लगाव नहीं था, पर मेरे लिए तो उस बैठका में आकर्षण का केंद्र ही वो छोटा-सा घर था...| बेहद बड़े उस हॉल के एक कोने में बना शायद उस हवेली का रेप्लिका ही था...दोमंज़िला...|

मुझे कभी कोई संतोषजनक रूप से ये नहीं बता पाया कि मेहमानों या आने-जाने वालों से मुलाक़ात करने वाले उस हॉल में उस ‘गुडिया-घर’ (या रेप्लिका...जो भी रहा हो...) के बनाए जाने का मकसद क्या था...| जिस कारीगरी से उसे बनाया गया था, उससे जितनी अचंभित मैं तब होती थी, आज बरसों बाद...जब उस हवेली का ही कोई नामोनिशान नहीं बचा...उसकी याद-मात्र से उतना ही अचम्भा हो रहा...| शायद चार-पाँच फुट के दायरे में रहा होगा वह ‘घर’...एक ऐसा घर जिसमे रहने का मोह उस समय कुछ ऐसा जागता था कि मैं एलिस की ही तरह इतनी छोटी हो जाना चाहती थी कि उसके अन्दर जाकर...उसमे घूम कर देख सकूँ...| बहुत अनोखे लगते थे उसमे बने कमरे...खिड़की-दरवाज़े...खम्बे और उन खम्भों पर की हुई उस समय की कलात्मक कारीगरी...| ऐसा कौन कलाकार रहा होगा जिसने उतनी महीन कला को अपने हाथों से उकेरा होगा...?

कलाकारी के उस बेहद प्यारे नमूने को उस जगह बनाने की वजह चाहे जो भी रही हो, पर मुझे ये पक्का यकीन था कि मेरी ही पूर्वज किसी बेहद लाडली के लिए उसको बनाया गया होगा...? पर कौन...? कभी-कभी लगता था कि लड़की होने की वजह से जिस तरह के व्यवहार से मुझे दो-चार होना पड़ता था, क्या परबाबा उससे परे रहे होंगे...?

इन सारे सवालों के जवाब माँगने की न तो कभी सोच हुई...और न जवाब मिलने की कोई उम्मीद...| इसलिए तमाम ऐसे सवालों की तरह ये भी बस अनुत्तरित ही रहा...| बचपन से ही हमेशा सबके बीच रहना पसंद करने वाली मैं जब कभी उदासियों और ऐसे सवालों के बादलों से घिरा महसूस करती, अपना मन शांत करने के लिए अकेलापन तलाशती फिरती...| कानपुर के अपने छोटे-से किराए के घर में भी मुझे कभी-न-कभी ऐसा एक कोना मिल ही जाता था, पर जब मैं ददिहाल की अपनी उस हवेली में होती, तब वो ‘गुडिया-घर’ मेरी शरणस्थली  होता...| उसके करीब बैठ कर, उसके नन्हें-नन्हें खिड़की-दरवाजों को अपनी छोटी-चोटी हथेलियों से दुलराती मैं अजीब सा सकून पाती...| लगता, जैसे मेरे जैसा ही कोई कभी उनके संग खेला होगा...| हो सकता है, अपनी गुमनाम कहानियाँ भी सुनाई हो उसको...| जाने कितने रहस्य उसके कानों में बोल कर राहत पाई होगी...| हो सकता है कभी उसकी चौखट पर सिर रख कर रोई भी हो...| उस `घर’ के साथ मेरा भी एक अनोखा रिश्ता जुड़ गया था...| जब वापस अपने घर लौटने का वक़्त आता तो निकलने से पहले मैं बिना किसी को बताए एक बार अपने उस नन्हें घर रूपी साथी को अलविदा कहने ज़रूर जाती...|

उस हवेली में मेरा ऐसा ही एक दूसरा साथी भी बन गया था...उस घर में बना छोटा-सा ठाकुरद्वारा...| उसकी बनावट भी मुझमें एक कौतुहल जगाती...| पहले तो चबूतरे पर चढो...फिर लगभग पंद्रह फुट ऊँची दीवारों वाले उस ठाकुरद्वारा का दरवाज़ा, जो शायद ढाई-तीन फुट या उससे भी छोटा रहा होगा, उससे बकइयां होकर अन्दर जाओ...| यानि उसमे घुसना हो तो आपको घुटनों के बल ही उसमे प्रवेश मिल सकता था...| वो ऐसा क्यों था, इसका जवाब तो माँ के ही पास था...ईश्वर के सामने जाना है तो तन के नहीं, झुक के जाओ...| उसके पास पहुँच गए तो फिर खुद ही सीधे खड़े होने की शक्ति मिल जाती है...| अन्दर जाकर तो मेरे पसंद की और चीजें भी थी...| नन्हें से कान्हा, उनके छोटे-छोटे बर्तन...और सबसे ज़्यादा प्यारा उनका छोटा सा नक्काशीदार पलंग...| उस पर लाल मखमल का बिछौना और मेरी उस समय की एक हथेली में समाने वाले उनके दो गोल-गोल मसनद...| वहाँ जाकर श्याम सलोने के सामानों की हेराफेरी करना मेरा फेवरिट टाइम-पास था...| पर इतनी चालाकी मैं ज़रूर करती कि ये छेड़छाड़ मैं दिन के समय मुल्तवी रखती...| शाम को जब माँ और दादी रसोईं में होती, दादा कमरे में बैठे या तो टीवी देख रहे होते या फिर अपना जाने कौन सा पोथी-पत्रा बाँच रहे होते...मैं सबकी नज़रों से छुप कर ठाकुरद्वारे में घुस जाती...|

पहले तो किसी का ध्यान जाता नहीं, और अगर माँ देख भी जाती तो भी निश्चिन्त रहती...| वहाँ ऐसा कुछ था ही नहीं, जिससे मुझे चोट आदि लगने का डर होता...| वहाँ बैठ कर मैं ठाकुर जी से तरह-तरह के खेल खेलती...| कभी उनको तैयार करती, तो कभी बहुत करीने से उनका बिस्तरा झाड़ पोंछ कर उन्हें सुला देती...| बीच-बीच में हम दोनों मिल के प्रसाद और उनकी लुटिया के पानी पर भी हाथ साफ़ कर देते...| अगर कभी मुझे लगता कि कान्हा ज़्यादा बदमाशी कर रहे तो उन्हें डाँटने में भी बिलकुल कोताही नहीं करती थी...| अब ये बात और है कि प्रसाद के बचे दानों-तिनकों के लिए इलाके के चूहों पर इलज़ाम आता और लुटिया में पानी न रहने का सारा कन्फ्यूज़न दादा और दादी एक-दूसरे पर ठेल देते...| मैं और कान्हा जी `पार्टनर इन क्राइम’ होने के कारण चुप ही रहने में अपनी भलाई समझते थे...| सच कहूँ तो कृष्ण-कन्हैया को अपना दोस्त मानने की शुरुआत शायद वहीं से हुई थी...| यही वजह है कि अभी तक कि ज़िंदगी में मैंने भगवान् से प्यार किया है, उनसे रूठ कर लड़ी हूँ...पर उनसे डर कभी नहीं लगा...| मुझे ये मानने में कोई गुरेज़ नहीं कि आस्तिकता मेरे लिए ईश्वर से डर कर उसमे विश्वास करना नहीं, बल्कि दिल से उन्हें अपना मानते हुए उन्हें प्यार करने से है...| मैं पूजा करती हूँ, ईश्वर को याद भी करती हूँ...पर ये सारी बातें सिर्फ तभी करती हूँ, जब मेरा दिल करता है...| पूजा-पाठ के मामले में मैंने खुद को कभी किसी नियम में नहीं बाँधा...और सच कहूँ तो मेरे सबसे अच्छे दोस्त-उस भगवान- ने भी कभी इस बात का ज़रा भी बुरा नहीं माना...| उदासी के पलों में ईश्वर का साथ मुझे अच्छा महसूस कराने में बहुत मदद करता है, पर ये साथ मैंने कभी ये सोच के नहीं अपनाया कि उसे याद करने से वो मेरे कष्ट दूर कर ही देगा, बल्कि इस लिए क्योंकि भगवान् से कभी भी मैं कुछ भी कह सकती हूँ...| जो लोग मुझे अच्छे से समझते हैं, उन्होंने कभी न कभी भगवान् और मेरी दोस्ती की बाबत मेरे मुँह से कोई बात तो ज़रूर सुनी ही होगी...|

समय बीतने के साथ पट्टीदारों और ज़बरिया कब्ज़ा किए हुए किरायेदारों के चलते वो हवेली लगभग उजाड़ हो चुकी थी...| मैं बड़ी हो रही थी, दादी की मौत के बाद वहाँ मेरा जाना लगभग बंद हो चुका था...| दादा की जिद थी, अपने जीते जी वो एक लड़की, यानी कि मुझे तो उस हवेली में घुसने नहीं देंगे...| इतने बड़े महल जैसे मकान वाले खण्डहर में अकेले एक प्रेतात्मा की तरह भटकना उन्हें मंज़ूर था, बजाये इसके कि वे अपनी पोती को ही अपना वारिस मान  पाते...| पापा की दूसरी शादी और अपने पोते को सारी जायदाद सौंप देने का उनका ख़्वाब मेरी शादी और चुनमुन के पैदा हो जाने के बाद तक भी पूरी शिद्दत से ज़िंदा रहा...|

कहते हैं, सब कुछ फ़ना हो जाता है, पर इंसान की यादें नहीं...| आज न तो वो हवेली रही, न उसमे ज़िंदगी गुज़ार देने वाले लोग...| अब तो शायद उस ज़मीन के खरीददारों ने वहाँ एक शॉपिंग काम्प्लेक्स भी बना डाला है...|

उस खण्डहर हो चुकी हवेली का आज भले ही नामोनिशान न बचा हो, पर यकीन जानिए...वहाँ की मिट्टी में दबे पर मेरे बचपन के अनगिनत लम्हें आज भी साँसे ले रहे होंगे...| बस्स, कभी उस ज़मीन पर अपना हाथ रख कर देखिएगा...धडकनें अब भी सुनाई देंगी...|


(चित्र गूगल के सौजन्य से)


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