यादों के मुहाने पर

Saturday, April 08, 2017

                   

                                (चित्र गूगल से साभार )

कभी किसी शहर, किसी जगह जाने पर बहुत बार वहाँ से लौटते वक़्त हम अपना एक ‘अंश’ वहीं छोड़ आते हैं | हमारे आसपास विचरते हज़ारों-लाखों अणुओं की तरह हमारा वो ‘मैं’ भी वहीं विचरता रहता है और बरसों-बरस बाद भी जब हम उस घड़ी, उस जगह को याद करते हैं तो शायद किन्हीं मानसिक तरंगों से हम अपने उस ‘अंश’ से फिर जुड़ जाते हैं और सब कुछ उसी तरह देख या महसूस पाते हैं, जैसे उस समय भी वही पल दुबारा से जी रहे हों...|

नहीं जानती कि ऐसे कितने लोग होते होंगे जिनको अपने उन घरों...रास्तों-गलियों और वहाँ आँख मिचौली खेलते लम्हों की याद आती होगी जहाँ उनके बचपन के चंद दिन ही गुज़रे होते हैं...| पर मुझे याद आती है उनकी...|

ददिहाल की अपनी पुश्तैनी हवेली में मेरे बहुत गिनती के दिन बीते थे...| पर उन कम दिनों में भी मैंने बहुत लम्हें बटोरे...| ज़ाहिर है, खुद के ही साथ...| दादा को मेरे और माँ के आने-न आने से कोई मतलब नहीं था और पापा वहाँ जाकर गुम हो जाते थे...| घर में रहते तो दादा के पास, वरना सुबह के निकले शाम तक ही लौटते | दादी ज़रूर थोड़ा लाड़ जता देती, पर मेरे रहने पर भी उनकी दिनचर्या बदस्तूर जारी रहती...| उनमे बस इतना हेर-फेर होता कि दिन में दो-तीन बार अपनी बनाई चीज़ें मेरे लिए निकाल कर चाव से एक प्लेट में लगा कर मेरा नाम पुकार लेतीं...| खाने के मामले में तो मैं शुरू से चोर थी, सो अगर उस व्यंजन से सजी प्लेट साफ़ हो जाती तो आह्लादित होते हुए वह अपने  पोपले  मुँह से हँस देती...| उसके बाद फिर से वो अपनी ही दुनिया में रम जाती...|

हमेशा से दादा का आधिपत्य होने के बावजूद रसोई पर दादी का साम्राज्य रहता था | माँ या किसी और को भी वे कच्चे खाने की रसोई में तो जल्दी घुसने न देती...पर दूसरी रसोई में भी माँ उतना ही बना सकती थी, जितने की इजाज़त होती...| दादी के भयानक छुआछूत के नियमों के चलते माँ भी इस मामले में पंगा नहीं लेती थी...| जहाँ तक मुझे याद आता है, शाम की चाय के अलावा कभी कभार बस रात का खाना ही वे माँ को बनाने देती थी |

सच कहूँ तो माँ और मेरा साथ मेरे लिए रोज़मर्रा के आम दिनों की तरह ही लगता था मुझे...इस लिए कभी गौर नहीं किया कि माँ का दिन वहाँ, उस हवेली में, कैसे कटता था...| दिमाग़ पर बहुत जोर डालती हूँ तो भी बस हल्की, किसी परछाई-सी याद आती है उनकी दिनचर्या...| उसमे भी ज़्यादातर अपने कमरे से सटे छज्जे पर बैठ कर बाहर देखते रहना...शायद यही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल में आने वाला टाइमपास था उनका...या फिर दोपहर में थोड़ी देर को सो जाना...|

घर में एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था ज़रूर, पर वो भी दादा के कमरे में था...| शाम को अधिकतर वह तभी चलता जब न्यूज़ आ रही होती...| उम्र के अनुसार न्यूज़ में मेरी कोई ख़ास रूचि थी नहीं...| बस एग्जाम के समय अगर जनरल नॉलेज में `करेंट अफेयर’ आने का झंझट न होता, तो शायद मैं साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में से एक दिन भी न्यूज़ न देखती...| टीवी पर ले-देकर वैसे भी मेरे देखने लायक इक्का-दुक्का कार्यक्रम ही आते थे...| दूरदर्शन का ज़माना था...| इतवार को एक पिक्चर और हफ्ते में एक बार (और बाद में शायद दो बार भी) आने वाला चित्रहार...| पर जाने दादा को ये सब पसंद नहीं था, या फिर उस दौरान अपने कमरे में मेरी उपस्थिति से उनको खलल पड़ता था, पर हमारी मौजूदगी में भी ये दोनों ही चीज़ें नहीं चलाई जाती थी...| दादी के लाख मनाने पर...अरे देखन देयो...लरिका है, तनी मन बहल जाही...कहने पर भी टीवी न चलने देने की अपनी जिद पर अड़े दादा अपनी मिचमिची-भूरी...कुछ कुछ कंजी आँखों से मुझे कुछ इस तरह नफरत से घूरते कि टीवी देखने का मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता | कभी अगर मैं भी जिद पर उतरती तो दादा की गरजती-बरसती आवाज़ से घबरा माँ ही किनारे से आकर मुझे बाहर घसीट ले जाती...|

ऐसे में अक्सर घबरा तो दादी भी जाती थी...| बहुत बार वो वहीं कमरे में रुक दादा को ही शांत करने लगती, तो कभी समझाने का उलटा असर होता देख रुआँसी हो खुद बाहर हमारे पास आ जाती...| मैं आहत होकर ज़्यादातर रो देती थी | पूरी हवेली से टकराते दादा के अपशब्द मुझे अपने केंद्र से हटा कर माँ को अपने लपेटे में ले लेते...| पूतों वाली न होने के अपराध में तरह-तरह के तानों से उन पर प्रहार होते...| कई बातें तो मुझे समझ नहीं आती थी, पर माँ पर करारे प्रहार हो रहे हैं, ये तो उनका चेहरा देख कर ही समझ आ जाता था...|

जहाँ तक याद है, तब तक गांधी जी या किसी भी अन्य महान हस्ती के विचारों से मैं उतनी अवगत नहीं थी, पर फिर भी-अन्याय करने से ज़्यादा बड़ा पाप अन्याय सहना है- जाने कैसे ये सोच मेरे खून के ही साथ मेरी रगों में बहने लगी थी...| अन्दर ही अन्दर मैं तमतमाने लगती थी...| माँ और दादी दोनों को इस बात का अंदाजा हो जाता था, सो इससे पहले की उम्र की नासमझी में मुझसे कोई अभद्रता हो जाए, वे दोनों मेरा ध्यान दूसरी तरफ भटका देती...| अधिकतर तो दादी मेरी पसंद की कोई चीज़, जो जाने कब वे बना कर शायद ऐसे ही किसी अवसर के लिए छुपा कर रखे होती, लाकर मेरे हाथों में थमा देती...| माँ भी पूरी सहजता के साथ बोलती...खाकर देखो, बहुत अच्छी बनी है...| दादी भी सुर में सुर मिलाती...अऊर राखी है, अच्छी लगे तो ले लिओ...|

हाँ, इतना ज़रूर था कि अगर वहाँ बिताए दिनों में कोई संडे होता तो शाम की मूवी देखने को मिल जाती...सिर्फ इस वजह से क्योंकि पापा फ़िल्में देखने के बेहद शौक़ीन थे...(अब भी हैं...) | सो टीवी ज़रूर चलती और एक बालसुलभ रूचि के साथ मैं भी वहीं जम जाती...| माँ तब भी उस में शामिल नहीं होती...| एक तो उस कमरे में उनकी मौजूदगी के दौरान दादा की आग बरसाती आँखें लगातार उनको घूरती रहती, दूसरे पता नहीं किस भेदभाव के तहत पूरा परिवार तो ऊपर बैठता, पर माँ के लिए किनारे...दरवाज़े के पास एक बोरा बिछा दिया जाता...| माँ बेहद अपमानित महसूस करती और मैं अपने अन्दर उबलता एक गुस्सा नहीं दबा पाती...जो एक जिद के रूप में उभर जाता...माँ मेरे पास ही पलंग पर बैठेंगी...| ऐसे में  फिर किसी अप्रिय स्थिति को बचाने के लिए माँ सिर-दर्द का बिलकुल परफेक्ट बहाना बना कर अपने कमरे में ही लेट रहती...| पर जाने क्यों, फिल्म देखने का मेरा सारा उत्साह अनमनेपन के बादलों से घिर ही जाता...|

बाकी दिनों में इतनी बड़ी हवेली में मेरे साथ खेलने के लिए तो कोई होता नहीं था, सो उसकी पुरानी-जर्जर दीवारों से मेरी अच्छी खासी दोस्ती हो चुकी थी...| उनमे बसे अतीत के कण मुझे बड़ी शिद्दत से अपनी ओर खींचते थे...| बड़े-बड़े हॉलनुमा कमरे...उन कमरों की पंद्रह-बीस फुट ऊँची छतें...मोटी-मोटी दीवारें, जो अपनी आख़िरी साँसें गिनने के बावजूद पूरी शानोशौकत से अकड़ी खड़ी होतीं...उन दीवारों में बने नक्काशीदार ताखे...भारी-भरकम दरवाज़े...उन पर लटकती, बेवजह खड़क जाने वाली मोटी-मोटी साँकलें...सब मुझे किसी और ही दुनिया में ले जाते...|

वो दुनिया मेरी इस दुनिया से बिलकुल अलग होती...बेहद रोशन...और पुरसकून भी...|


(...जारी है...आगे पढ़िए उस हवेली से जुड़ी यादें...)

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