यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की नज़र में- (दो)

Monday, August 26, 2024

 (विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। पिछली कड़ी में आपने मेरे अजीत अंकल की यादें पढ़ीं। तो इस कड़ी में प्रस्तुत है मेरे तीसरे नंबर के मामा श्री आनंद कुमार गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।

 इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )


1-                                                                                              आनंद कुमार गुप्ता

माँ के साथ मेरे आनंद अंकल...


दुनिया के लिए एक लेखिका प्रेम गुप्ता ‘मानी’, लेकिन मेरे लिए मेरी प्रेम दीदी से जुड़ी अनेक यादें हैं मेरे दिलो-दिमाग में, इसलिए जब डिम्पल ने मुझसे अपनी ऐसी ही किसी याद को साझा करने को बोला तो मैं सोच में पड़ गया। किस याद को बाँटू, किसे छोड़ूँ। फिर लगा, हम सबके लिए हमेशा चिंतित रहने वाली, हमारी छोटी सी तकलीफ़ में भी बेहद बेचैन हो जाने वाली प्रेम दीदी के साहस से जुड़े किसी किस्से को बताना ज़्यादा अच्छा रहेगा। इसीलिए उनकी शादी के पहले की ही दो घटनाओं का ज़िक्र मैं करूँगा जिससे किसी बाहरी मुसीबत में उनके न घबराने की प्रवृत्ति का पता चलता है।

पहला किस्सा है इलाहाबाद का...। जन्माष्टमी का अवसर था। हम लोग उस समय पुराना कटरा में रहते थे। वहाँ पास के किसी मंदिर में जन्माष्टमी की बहुत शानदार झाँकी सजी हुई थी। हम सब छोटे थे, विनोद दीदी सबसे बड़ी बहन थी और प्रेम दीदी उनसे छोटी, पर अक्सर कई मामलों में हम छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी आगे बढ़कर प्रेम दीदी ही उठाती थी। मैं प्रेम दीदी से अधिक जुड़ाव महसूस करता था। इसलिए जब हम लोग झाँकी देखने जाने की बेतरह ज़िद करने लगे, तो हारकर माताजी ने हम लोगों को जाने की इजाज़त दे ही दी। चूँकि उस अवसर पर अच्छी खासी भीड़ थी और हम लोग कई बच्चे जा रहे थे, इसलिए शायद कोई डर न होने के कारण माताजी ने किसी नौकर को हमारे साथ नहीं किया। वैसे भी दिन भर के थके किसी नौकर को रात में सिर्फ बच्चों की ज़िद की वजह से माताजी तंग भी नहीं करना चाहती रही होंगी। सो रात बारह बजे के आसपास, श्रीकृष्ण जन्मोत्सव का आनंद उठाकर हम सब मस्ती में वापस घर की ओर चल पड़े। प्रेम दीदी शायद उस समय तेरह-चौदह वर्ष की रही होंगी और अगर इसे एक छोटे भाई का अपनी बहन के प्रति लगाव न माना जाए तो कहूँगा कि मेरी प्रेम दीदी सुंदर भी बहुत थी। उस समय की प्रसिद्ध हिरोइन साधना की तरह ही दीदी के बाल भी आगे की तरफ फ्रेंच-कट कटे हुए थे और उन्हें देखने वाले सचमुच उन्हें साधना कहकर पुकार लेते थे। सोचता हूँ, अगर आज की तरह उस समय भी विडिओ बनाए जा सकते होते तो मेरी इस बात की सच्चाई भी साबित हो जाती। पर खैर! तो हम लोग लौट रहे थे कि अचानक हमें एहसास हुआ कि हमारे पीछे-पीछे कोई आ रहा है। पहले तो लगा कि कोई आसपास रहने वाले ही होंगे जो हमारी तरह झाँकी देखकर लौट रहे होंगे, पर पीछे मुड़कर देखा तो समझ आया, जो दो तीन लड़के पीछे चल रहे थे, वो आसपास तो शायद कभी नहीं देखे। दूसरे, जब आप अपने रास्ते जा रहे हों, तब आपका व्यवहार अलग होता है, तरीका अलग होता है, और जब आप किसी का पीछा-सा कर रहे हों, तब आपका तरीका साफ़-साफ़ फ़र्क दिखा देता है। इसी कारण छोटे होने के बावजूद हम सब समझ गए थे कि हमारे पीछे चलने वाले कोई आम राहगीर नहीं, बल्कि सड़कछाप गुंडे थे। विनोद दीदी और प्रेम दीदी भी ये बात समझ गई थीं, सो इससे पहले कि बदमाश लोग कुछ करने की सोच पाते, प्रेम दीदी ने अचानक सड़क किनारे पड़ी एक बड़ी सी ईंट उठा ली और बड़ी तेज़ी से चिल्लाते हुए बदमाशों की तरफ़ दौड़ पड़ी। एक पतली-दुबली, नाजुक-सी लगने वाली लड़की का ऐसा अचानक व अप्रत्याशित हमला-सा होते देख वे सब घबरा गए। प्रेम दीदी के इस पैतरें को समझते हुए विनोद दीदी भी चिल्लाते हुए उधर ही दौड़ी और हम बच्चे तो थे ही उनके नेतृत्व में...सो इस चिल्लम-चिल्ली में हम भी कूद पड़े। इन सब भागमभाग का ऐसा असर उन बदमाशों पर पड़ा कि एक-दो मिनट के अंदर ही वे सब अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए। हम सब किसी युद्ध में विजयी दल की तरह सीना ताने घर को लौटे। हाँ, इतना जरूर था कि घर में माताजी को कुछ पता चलने पर किसी तरह का प्रहार न झेलना पड़े, इस डर से हम में से किसी ने भी इस घटना का ज़िक्र किसी के सामने नहीं किया...और इस तरह प्रेम दीदी की वीरता की यह दास्तान अनसुनी ही रह गई।

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प्रेम दीदी की हिम्मत की ऐसी ही एक दूसरी घटना भी मुझे याद आती है। उस समय पिताजी का ट्रांसफर गोरखपुर हो चुका था और हम लोग पुलिस लाइन में बने किसी अंग्रेज के बहुत बड़े-से बँगले में रहते थे, जो पिताजी को उनके ऑफिस की तरफ से मिला था। वह विशाल बँगला काफ़ी सुनसान इलाके में था जो तीन तरफ से जंगल से घिरा था। हमारे बगीचे में अक्सर जंगल से भटकते हुए सियार, लोमड़ी, हिरण जैसे कोई जंगली जानवर भी आ जाते थे। अँधेरा होने से पहले ही माताजी हम सबको घर के अंदर कर लेती थी। पिताजी को ऑफिस की तरफ से कुछ नौकर-चाकर, माली आदि भी मिले थे, लेकिन उनका क्वार्टर हमारे मुख्य बँगले से थोड़ी दूर पर था। घर के काम जल्दी निपटाकर वे सब भी अपने क्वार्टर में जाकर सो जाते थे। सर्दी में तो आसपास का माहौल और भी सन्नाटे-भरे साँय-साँय वाला हो जाता था।

ऐसी ही एक सर्दी की रात थी। पिताजी शायद ऑफिस के किसी टूर के लिए शहर से बाहर थे। हम सबका खाना-पीना निबटाकर माताजी भी सो गईं थी, पर रजाई में घुसे एक-दूसरे से धक्का-मुक्की करते हम बच्चों की आँखों से नींद कोसों दूर थी। ऐसे में हमें घर के पिछले हिस्से में कुछ आहट-सी लगी। ऐसा लगा जैसे कहीं कोई दीवार में कुछ ठोंकने की कोशिश कर रहा हो। पहले तो अपने ही खेल में लगे हम लोगों ने इस ओर उतना ध्यान नहीं दिया, पर जब यह आवाज लगातार आती लगी, तब हम सबको चुपचाप सो जाने को कहती प्रेम दीदी का ध्यान पूरी तौर से उधर गया। चूँकि विनोद दीदी की शादी हो चुकी थी, इसलिए हम में से सबसे बड़ी प्रेम दीदी ही उस समय हमारे साथ थीं। उन्होंने हमें शांत रहने को कहा, पास में सिरहाने रखी टॉर्च उठाई और ज़्यादा छोटे भाई बहनों को स्नेह दीदी की निगरानी में छोड़कर हम तीन चार थोड़े समझदार भाई-बहन को साथ लेकर आवाज की दिशा में बढ़ने लगी। हम लोगों ने अपनी बुद्धि के अनुसार जो समझ में आया, वह सामान रूपी हथियार उठाया और अपनी सेनानायक के पीछे चल पड़े। प्रेम दीदी का शक सही था। पिछले कमरे की दीवार थोड़ी सी झरी हुई थी। मामला साफ़ था, उस तरफ जंगल था और सर्दी की रात में उस सुनसान बँगले के मुखिया का घर में न होने की ख़बर शायद इलाके के चोरों तक किसी मुखबिर के माध्यम से पहुँच चुकी थी। घर में सिर्फ एक महिला अपने छोटे बच्चों के साथ है, ऐसा जानकर उनको कोई डर नहीं लगा होगा। इसलिए वे चोर सेंधमारी करके हमारे घर को रातों-रात लूटकर रफ्फूचक्कर होने की फिराक में रहे होंगे। प्रेम दीदी ने आव देखा न ताव, पूरी शक्ति से सारे नौकरों का नाम लेकर चिल्लाते हुए ‘पकड़ो, मारो, जाने न पाए’ का नारा लगाने लगी, जिसमें हम सबने बेहद खुशी और उत्साह से उनका साथ दिया। शोर-शराबा सुनकर एक तरफ हमारी माताजी दौड़ती हुई वहाँ आ पहुँची, वहीं दूसरी तरफ रात के सन्नाटे को चीरती हम बच्चों की समवेत आवाज़ भी सब नौकरों के साथ-साथ उन चोरों तक भी जा पहुँची। इधर हमारे नौकर अपने-अपने क्वार्टर से लाठी-डंडा लेकर शोर मचाते, भागते हुए हमारे बँगले की तरफ आए, उधर पकड़े जाने के भय से वे चोर भी अपने-अपने औज़ार भी छोड़कर भाग खड़े हुए।

खैर! ये सब शांत होने के बाद एक बुजुर्ग नौकर जबरिया उस बाकी बची रात में हमारे घर के अंदर एक कोने में अपना बिस्तर डालकर सोये। अगले दिन पिताजी भी वापस आए और जब उनको यह पता चला तो पहले तो वे हम सबकी सुरक्षा की बात सोचकर चिंतित भी हुए, लेकिन हम सबकी समझदारी और खास तौर से प्रेम दीदी की हिम्मत की बात जानकर बेहद खुश भी हुए और प्रेम दीदी के साथ-साथ हम सबको भी उनकी शाबाशी मिली।

तो ये तो थीं मेरी प्रेम दीदी से जुड़ी दो हिम्मत-भरी यादें...प्रेम दीदी से जुड़े ऐसे अनगिनत रोचक किस्से हैं जो मुझे आज भी अच्छी तरह याद हैं, चाहे वो उनकी शादी के पहले के हों या शादी के बाद हम लोगों के साथ के...। उन तमाम किस्सों को मैं अक्सर डिम्पल के साथ साझा करता रहता हूँ, और इसी तरह प्रेम दीदी को आज भी अपने पास महसूस कर लेता हूँ।

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