यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की नज़र में (तीन)

Tuesday, August 27, 2024

 (विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। अपनी तरफ से उनसे जुड़ी कई मज़ेदार और गंभीर किस्से और यादें तो मैंने समय-समय पर यहाँ शेयर की ही हैं। इस बार उनके बाकी रिश्तों के नजरिए से भी उनके बारे में जानकर देखते हैं। कल आपने पढ़ी मेरे तीसरे नंबर के मामा आनंद कुमार गुप्ता के दिल की बातें...। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है मेरे सबसे छोटे मामा सुनील गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।

 इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )



        सूना मन और फीके पकवान 

               -सुनील गुप्ता 



डिम्पल ने घर में सबसे कहा है, प्रेम दीदी के बारे में अपनी भावनाएँ या उनसे जुड़ी यादें लिखकर शेयर करने के लिए। जब मेरी बारी आई तो समझ नहीं आया क्या और कैसे लिखूँ? अपने बड़े भाइयों की तरह मैं भी वकालत के पेशे में हूँ और भगवान की कृपा से एक अच्छे वकील के रूप में अपने क्लाएंट्स के बीच में मेरी अच्छी साख है। अपने पेशे से संबंधित बातें मैं धाराप्रवाह कर सकता हूँ, पर जब बात आती है अपनी भावनाएँ खुलकर व्यक्त करने की, उसमें जाने कैसे चूक जाता हूँ। घर-परिवार के बीच भी अपने आप को लेकर मैं बहुत मुखर नहीं हूँ, हाँ सामने वाले को संक्षेप में समझ आ जाता है कि मैं किस समय कैसा महसूस कर रहा हूँ।

 

इसीलिए जब प्रेम दीदी से जुड़ी बातें साझा करने का मौका आया तो भी यही समस्या सामने आई। हम सब भाई-बहनों में बड़े होने के नंबर में वो दूसरे नंबर पर थीं, तो छोटे होने के मामले में मैं दूसरे नंबर पर हूँ। भाइयों में सबसे छोटा होने के कारण ही प्यार से सब मुझे गुड्डू कहकर बुलाते हैं, और हम सबमें सबसे छोटी, यानि मेरे बाद की बहन को गुड़िया कहते हैं।

 

जैसा कि हम सब भाई बहनों ने हमेशा से महसूस किया कि प्रेम दीदी दिल और आत्मा से हम सबसे जुड़ी थी। घर परिवार में छोटी-बड़ी कैसी भी समस्या हो, दीदी पूरी तरह से उसमें शामिल रहती थीं।

 

मुझे आज भी वह समय अच्छी तरह याद है, लगभग पंद्रह-सोलह साल पहले की बात है, जब मेरे गॉल ब्लेडर में पथरी का पता चला था और उसके ऑपरेशन की बात हुई थी। उस समय मैं भी एक युवक ही था, जब प्रेम दीदी को यह पता चला तो वो चिंतित हो गई। मेरी पथरी से पाँच-छह साल पहले दीदी की पथरी का ऑपरेशन हुआ था, जिसमें थोड़े complications हो चुके थे। उनके सर्जन के मुताबिक उन्होंने मुश्किल से दीदी को रीवाइव किया था। चूँकि पथरी की सर्जरी के क्षेत्र में वे एक जाने-माने सर्जन थे, अतः मेरे बारे में भी उन्हीं से परामर्श लिया गया। पूरे परिवार में प्रेम दीदी के अलावा सिर्फ मैं ही था, जिसे थाइरॉइड की समस्या थी। पता नहीं क्यों, पर इसके कारण भी दीदी सर्जरी की बात सुनकर मुझे लेकर बेहद परेशान हो गई। उस समय तो हम सबने उनकी इस चिंता को उनके अति-संवेदनशील स्वभाव का हिस्सा मानकर अनदेखा ही किया, पर आज लगता है, कहीं उन्हें किसी तरह का कोई पूर्वाभास हुआ था क्या?

 

खैर! ऑपरेशन का दिन आया। शाम को होने वाले ऑपरेशन के लिए मुझे सुबह ही भर्ती कर लिया गया था। प्रेम दीदी, अजीत भैया और गुड़िया भी मेरे ही साथ अस्पताल आ गए थे। सबसे छोटी होने के बावजूद गुड़िया भी हम सब की हारी-बीमारी में आगे बढ़कर सब करती है। सारी तैयारियाँ हुई और तय समय पर मुझे ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया। सारा procedure चल रहा था कि अचानक से अफ़रा-तफ़री मच गई। जाने एनेसथीसिया वाला कुछ अनाड़ी था या कुछ और, पर मैं नीम-बेहोशी में जाने लगा। कुछ ऐसी बेहोशी जिसे समझा पाना संभव नहीं। कुछ तो अलग-सा था उस समय...।

 

ऑपरेशन में एक-डेढ़ घंटा लगने की उम्मीद थी, इसी कारण ‘हम तो यहाँ बैठे ही हैं’, बोलकर दीदी ने दोनों को वहाँ से भेज दिया था। अजीत भैया नीचे कमरे में थे और गुड़िया भी उस समय नीचे ही किसी काम से गई थी। मुझे तो कुछ होश नहीं था, सो वास्तव में क्या हुआ होगा, नहीं मालूम...पर बाहर बैठी प्रेम दीदी तक ख़बर पहुँच गई कि उनका मरीज सिंक हो रहा। प्रेम दीदी की एक खासियत थी कि बेहद नर्वस स्वभाव की होने के बावजूद वह संकट के समय ऊपर से खुद को संयत रखती थीं। उन्होंने तुरंत अजीत भैया को फोन किया और गुड़िया को भी फोन करके तुरंत ऊपर पहुँचने का बोलकर फोन काट दिया था। इतना सब करते-करते ही शायद उनके सब्र और संयम का बाँध टूट चुका था, गुड़िया और भैया के आते ही दीदी बस इशारे से ऑपरेशन थिएटर की तरफ दिखाते हुए फफककर रो पड़ी। गुड़िया ने भी पता नहीं इसका क्या अर्थ निकाला और वह उनको सम्हालते हुए खुद रोने लगी। यह सब देखकर अजीत भैया भी घबरा तो गए ही थे, पर फिर भी किसी तरह खुद को सम्हालते हुए उन्होंने थिएटर से अंदर-बाहर भागती एक नर्स को रोक ही लिया। जो पता चला, उसका सारांश यह था कि एनसथीसिया वाले की लापरवाही से मुझे ज़रूरत से ज़्यादा एनेस्थीसिया का डोज़ दे दिया गया, जिससे मेरे दिल की गति एकदम बंद-सी होने लगी थी, परंतु स्थिति थोड़ी सम्हालने की कोशिश ज़ारी है। मज़े की बात यह कि इस दौरान डॉक्टर साहब अंदर ही से पता नहीं किस चोर रास्ते से सटक गए। शायद उन्हें डर था कि यदि ऑपरेशन होने से पहले ही मुझे कुछ हो गया तो बहुत सारे केस की तरह मेरे परिवार वाले भी उनकी पिटाई न कर डालें।

 

परंतु ईश्वर की कृपा और बड़ों के आशीर्वाद से मैं सुरक्षित रहा और कुछ दिनों के अंतराल के बाद एक अन्य डॉक्टर की देखरेख में मेरी पथरी का सफलतापूर्वक ऑपरेशन सम्पन्न हो गया।

 

लेकिन उस दिन मैंने प्रेम दीदी के दिल में अपने लिए जो प्यार, चिंता और अपनापन महसूस किया वो जैसे किसी और ही लेवल का था। मुझे निगरानी के लिए उसी अस्पताल में एक दिन रोकने की सलाह वहाँ के दूसरे डॉक्टरों ने दी, जिसे मजबूरी में ही सबने स्वीकार तो कर लिया, पर जब तक मैं वहाँ से सही-सलामत घर नहीं आ गया, प्रेम दीदी एक पल के लिए भी मेरे सिरहाने से नहीं हटीं। मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए वे लगातार माँ दुर्गा के मंत्र का जाप करती रहीं।

 

अगले महीने किसी और अस्पताल में दूसरे सर्जन द्वारा हुए मेरे फाइनल ऑपरेशन में भी उनकी उपस्थिति लगातार बनी रही। हम लोगों में से किसी के ऊपर भी आई किसी भी समस्या के समय वे सब कुछ भूलभाल कर बस हमारे पास ही बने रहना चाहती थीं, और इसी से पता चलता है कि हम सबसे उनका स्नेह व लगाव बिल्कुल अपनी संतान जैसा ही था। शादीशुदा, नाती-पोतों वाली ऐसी बहन, जो इतनी गहराई से मायके से जुड़ी रहे, मैंने तो शायद ही देखी हों। लड़कियों को वैसे तो हमेशा ही मायके वालों से लगाव होता है, लेकिन फिर भी वे समय-असमय प्राथमिकता अपने ही परिवार को देती हैं। हमारी विनोद दीदी ऐसी ही बहन थीं, परंतु प्रेम दीदी सबसे अलग, सबसे निराली थीं।  

 

अपनी इस याद को समाप्त करते-करते मैं बस एक बात का और ज़िक्र करना चाहता हूँ। मुझे खाने का बहुत शौक है। मुझसे भोजन के मामले में परहेज बिल्कुल नहीं होता। ज़ाहिर है, यह बात प्रेम दीदी को भी पता थी। जब कभी भी मैं उनके घर जाता, चाहे भले ही पाँच मिनट के काम से क्यों न पहुँचा हूँ, वे बिना कुछ खिलाये मुझे वहाँ से आने नहीं देती थी। डिम्पल लाख खुद से नाश्ता-पानी ला रही हो, पर जैसे उनका दिल नहीं मानता था और वो खुद रसोई में जाकर सब कुछ खुद चेक करती थी कि मुझे कोई चीज देने में डिम्पल चूक न जाए। उनकी इस आदत से कभी-कभार डिम्पल इरिटेट भले हो जाए कि- हम गुड्डू अंकल को सब दे तो रहे हैं, पर आपको भरोसा नहीं होता,- पर सच कहूँ, अंदर-ही-अंदर मैं दीदी के इस प्यार और लगाव से अभिभूत महसूस करता था। लगता था, दीदी नहीं, सामने मेरी माँ ही हैं जो बैठकर- ये और खाओ, वो थोड़ा चख तो लो, पूरा खा लो- कहती हुई मुझे खाता देखकर खुद तृप्त हो रही हैं।

 

आज दीदी के बिना भी डिम्पल और चुनमुन के लिए मैं अक्सर वहाँ जाता हूँ, डिम्पल अब भी सब कुछ लाकर मुझे खिलाती है, पर सच कहूँ, प्रेम दीदी के बिना जो सूनापन दिल में लगता है, उससे वहाँ सामने परोसा छप्पन-भोग भी फीका ही लगता है।

-सुनील गुप्ता 

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