यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की नज़र में- (चार)

Wednesday, August 28, 2024

(विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। अपनी तरफ से उनसे जुड़ी कई मज़ेदार और गंभीर किस्से और यादें तो मैंने समय-समय पर यहाँ शेयर की ही हैं। इस बार उनके बाकी रिश्तों के नजरिए से भी उनके बारे में जानकर देखते हैं। कल आपने मेरे सबसे छोटे मामा सुनील की यादें पढ़ीं। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है मेरी सबसे छोटी मौसी डॉ संगीता गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।

 

इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )


                                    माँ सी मेरी बहन 

                                             - संगीता गुप्ता 

माँ के साथ संगीता उर्फ गुड़िया 


बहनापा साझा यादों और अनकही समझ का एक ताना-बाना है, एक ऐसा बंधन जो भरोसे और बिना शर्त प्यार के धागों से बुना गया है। बहन के लिए कुछ शब्द कहना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि उसके प्यार के अनगिनत रूप हैं। फिर भी मैंने अपनी प्यारी बड़ी बहन के लिए कुछ पंक्तियाँ समर्पित की हैं। बहनों का आपस में एक अलग ही रिश्ता होता है। ये चाहें एक दूसरे से कितना लड़ लें, लेकिन मुश्किल के समय में हमेशा साथ नजर आती हैं। बहनों के साथ जो रिश्ता होता है, उसे समझना मुश्किल है। ऐसे ही कुछ यादें प्रेम दीदी के साथ की है।

 

मैं अपने बहन भाइयों में सबसे छोटी और शैतान थी या कह लीजिए लड़ाका थी। जब मम्मी बाहर जाती थी तो प्रेम दीदी को परिवार की जिम्मेदारी सौंप के जाती थी। प्रेम दीदी फटाफट अपने घर के काम निपटाकर हमारे घर आ जाती। लेकिन इस बीच मैं किसी न किसी से इतना झगड़ चुकी होती कि दीदी को झक मारकर मुझे अपने साथ ले जाना पड़ता था और फिर मुझे वो खूब अच्छे पकवान बनाकर खिलाती थी। ऐसे ही बहुत-सी यादें हैं, जो प्रेम दीदी से जुड़ी हैं।

 

सबसे बड़ी बात तो मेरे जन्म से ही जुड़ी है। मैं प्रेम दीदी की शादी के तीन-चार महीने बाद ही पैदा हुई थी। उस समय दीदी हमारे यहाँ ही थीं। रात का वक़्त था, जब मेरा जन्म हुआ। उस समय घर की बड़ी के रूप में वो ही मौजूद थी। दाई ने मेरे जन्म के कुछ देर बाद मुझे लाकर दीदी की गोद में दे दिया। नौ मई की उस गरम रात में थकी-मांदी, निंदियाई-सी प्रेम दीदी ने मुझे अपने दुपट्टे में लपेटा और मुझे कलेजे से चिपटाये सो गई। तो आप कह सकते हैं कि अपनी माँ से भी पहले जिस स्पर्श को मुझ नवजात ने महसूस किया था, वो प्रेम दीदी का था। शायद यही वजह है कि मैं उनके इतने करीब रही। डिम्पल दीदी की शादी के कई साल बाद हुई, इसलिए जब तक वो नहीं आई, दीदी की गोद पर मेरा ही अधिकार और कब्ज़ा रहा। डिम्पल के आने के बाद शायद कभी-कभी मेरे बालमन में यह बात आती रही होगी कि यह कौन आई, जिसने मेरी जगह दीदी की गोद ले ली। कभी-कभी जब मैं ज़िद करती थी, तो डिम्पल को किसी और की गोद में देकर दीदी मुझे उठा लेती थी। मैं रिश्ते में मौसी हूँ, शायद उससे ज़्यादा मैं खुद को उसकी बड़ी बहन समझती थी। उसके बाद भी बरसों-बरस तक दीदी के साथ कहीं बाज़ार वगैरह जाने में मैं ही बाज़ी मार लेती, घर आकर डिम्पल को इस बात पर चुपके से चिढ़ाती और फिर हम दोनों में मारपीट हो जाती।   

हालाँकि लड़ाई में मैंने अपने बड़प्पन का मान रखते हुए डिम्पल को कभी मारा नहीं, उल्टा चिढ़ी हुई वो ही मेरे घने, घुँघराले बालों को अपनी मुट्ठी में जकड़ लेती थी। ऐसे में प्रेम दीदी ही उसे धमकाती, मेरी मम्मी यानि उसकी नानी उसे फुसलाती, तब कहीं जाकर मामला थोड़ा शांत होता। सच कहूँ तो मेरे और डिम्पल के बीच यह बहनों वाले स्टाइल की लड़ाई अभी कुछ साल पहले तक हुई है। हाँ, बस अब मारपीट नहीं होती थी, लेकिन वाक-युद्ध तगड़ा होता था। ऐसे में प्रेम दीदी कभी तो रेफ़री का काम करते हुए, हम दोनों को ही डाँटते और समझाते हुए मामला सुलटा देती थी, पर कभी-कभी इरिटेट होकर वो हम दोनों को ही आपस में लड़ने-कटने देती हुई बस इतना कहती थी- दोनों लड़ो-कटो, हमसे कोई मतलब नहीं...। तुम दोनों आपस में समझो...। ऐसे में आपस में मुँह-फुलौवल होने के बाद अलग-अलग मौके पर, एक-दूसरे की पीठ पीछे हम दोनों ही एक-दूसरे की चुगली प्रेम दीदी से ही करके अपने मन की भड़ास निकालते। कुछ दिन की बंद-बोलचाल के बाद फिर वही ढाक के तीन पात...यानि मैं और डिम्पल फिर से बहनापे और लँगोटिया यार वाले रूप में आ जाते।

 

सच कहूँ तो हम दोनों के बीच चाहे जितनी बहसबाज़ी हो जाए, समय पड़ने पर एक-दूसरे के लिए हम हमेशा मौजूद रहते हैं...एक-दूसरे का सहारा बनकर...।

 

प्रेम दीदी एक बहुत लंबे समय तक, लगभग डिम्पल की शादी तक, अक्सर जब डिम्पल को कोई बढ़िया कपड़ा दिलाने जाती, तो मुझे भी साथ ले जाती...और वहाँ मुझे भी मेरी पसंद का कपड़ा दिलवा देती। इस तरह से वो मुझे भी अपनी बेटी जैसा ही समझती रही। हाँ, जब डिम्पल की शादी हो गई, उसका बेटा चुनमुन आ गया तो उनके ऊपर खर्चे का भार कुछ इस तरह बढ़ा कि मैं इस बात के लिए उनको मना ही करने लगी। बाद में भी कई बार हम लोग साथ शॉपिंग करने जाते, वो मुझे भी सामान दिलाने को आगे बढ़ती, पर मैं ही पसंद न आने का बहाना बना देती। प्रेम दीदी जानती थी कि अगर कोई चीज मुझे पसंद नहीं है, तो वह मैं इस्तेमाल नहीं करने वाली...। लेकिन प्रेम दीदी कई बार मौका पाकर कभी जन्मदिन के नाम पर, तो कभी त्योहार के शगुन के नाम पर मुझे रुपये पकड़ा देती थी। मैं मन में सब समझती थी कि पहले की तरह मुझे कुछ न दिला पाने की कमी वो ऐसे पूरा करने की कोशिश करती थी। इसके अलावा वो हम सभी को खिलाने-पिलाने में भी बेहद तेज़ थी। वैसे मेजबान तो वो बहुत अच्छी थीं ही। क्या परिवार, क्या कोई बाहरी...जिसने भी उनका आतिथ्य अनुभव किया, वो इस बात के लिए उनको भूल ही नहीं सकता। अपने पास कुछ बचे, न बचे, इसकी परवाह किए बिना वो बार-बार, लगातार आग्रह करते हुए अपने घर आए व्यक्ति को नाश्ता-खाना खिलाती थीं। जब तक स्वास्थ्य ने साथ दिया, वो अपने हाथ के स्वादिष्ट पकवान बनाकर सबको खिलाती रहीं।

 

सबसे छोटी होने के बावजूद कुछ मामलों में मेरी बहस प्रेम दीदी से हो जाती थी। हम कुछ समय के लिए एक-दूसरे से गुस्सा भी हो जाते थे, लेकिन उनके रहते मेरे मन  में एक बहुत बड़ा ढाढस भी रहा कि हमारे सिर पर किसी बड़े का साया है। यही भावना हम सभी भाई-बहन के मन में प्रेम दीदी के लिए रहती थी।

 

हम सभी अक्सर अपने मम्मी-पापा, स्नेह दीदी, माया दीदी, विनोद दीदी को याद करते थे, लेकिन उन सभी के जाने का दुख प्रेम दीदी के सानिध्य में थोड़ा सम्हल जाता था, लेकिन इस लिस्ट में यूँ अचानक से किसी दिन प्रेम दीदी का नाम भी जुड़ जाएगा, बुरे-से-बुरे ख्वाब में भी ऐसा नहीं लगता था।  

 

प्रेम दीदी ने जब अचानक साथ छोड़ा, उस समय डिम्पल और चुनमुन के अलावा मैं भी वहीं अस्पताल में रुकी थी। इन दोनों के सामने मैं ही उस समय किसी बड़े के रोल में थी, खुद को एक लंबे समय तक सम्हाले रखना मेरी मजबूरी भी थी और समय की माँग भी...।

 

खैर! प्रेम दीदी आज भले शारीरिक रूप से हमारे आसपास नहीं हैं, पर मुझे पता है, जब भी मैं और डिम्पल एक-दूसरे के साथ होते हैं, वे वहीं से हमें देखकर मुस्कराती जरूर होंगी।

-संगीता गुप्ता 

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