यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की यादों में- (पाँच)

Thursday, August 29, 2024

 (विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। अपनी तरफ से उनसे जुड़ी कई मज़ेदार और गंभीर किस्से और यादें तो मैंने समय-समय पर यहाँ शेयर की ही हैं। इस बार उनके बाकी रिश्तों के नजरिए से भी उनके बारे में जानकर देखते हैं। कल आपने मेरी सबसे छोटी मौसी संगीता की यादें पढ़ीं। तो इस कड़ी में आज प्रस्तुत है मेरे पाँचवे नंबर के मामा श्री विवेक कुमार गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।

 

इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )


 एक चप्पल और मेरी यादें

           -विवेक कुमार गुप्ता

 


सबने अपनी-अपनी बातें कही, लेकिन मैं सच में नहीं समझ पा रहा कि प्रेम दीदी के साथ की अपनी कौन सी विशेष याद साझा करूँ। ऐसा नहीं है कि हम दोनों में आपसी लगाव में कोई कमी थी, बल्कि सच कहूँ तो मैं ही वह आखिरी इंसान था जिसके बुखार में होने की बात सुनकर ही वो मुझको देखने आई और बस वही हम सबकी उनके साथ आखिरी बैठक हुई। जबसे होश सम्हाला, तबसे लेकर अब तक की जाने कितनी बातें और यादें मेरे मन में बसी हैं, कितने पल हैं जब मैंने उनकी कमी महसूस की है।

 

मैं बचपन से ही बहुत शरारती था, बड़े होकर भी मेरी वो शरारतें कायम रही। ऐसे में कितनी बार मैंने प्रेम दीदी की डाँट को अनसुना किया और जाने कितनी बार प्रेम दीदी ने माताजी और पिताजी के गुस्से से मुझे बिल्कुल वैसे ही बचाया जैसे एक चिड़िया माँ अपने बच्चों को अपने पंख के पीछे छिपाकर बचाती है।

 

मैं छोटा था और प्रेम दीदी अगर कहीं जाने लगती तो मैं ज़िद करके उनकी गोदी चढ़ जाता और वो मुझे लिए-लिए ही अपना काम करने चल पड़ती। ऐसे ही किसी समय की एक घटना मुझे बाद में पता चली, जो बेहद ही रोचक कही जा सकती है।

 

मैं शायद तब डेढ़-दो साल का रहा होऊँगा। हम लोग तब इलाहाबाद में ही रहते थे। एक दिन पता चला कि देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की रैली हमारे घर के सामने से भी निकलेगी। लाजिमी था कि ऐसे में उस गली में भी खूब भीड़ उमड़ पड़ती। लोग-बाग अपने घरों की छतों पर, चबूतरों पर और सड़क की दोनों तरफ भी इकट्ठा हो गए थे। पंडित जी का काफ़िला उस भीड़ के बीच से बहुत धीरे-धीरे ही निकल पा रहा था। पूरी जनता बेहद आह्लादित थी। हमारे परिवार के सब बच्चे भी बाहर निकलकर खड़े थे। मैं हमेशा की तरह प्रेम दीदी की गोद में था। जब तक पंडित जी हमारे सामने पहुँचे, उनको करीब से देखने की धक्का-मुक्की में मेरे एक पैर की चप्पल कहीं गिर गई। मेरे उम्र के बच्चे को इस बात से क्या लेना-देना था कि हमारे बिल्कुल पास कौन सी महान हस्ती है, मुझे तो बस अपनी चप्पल से मतलब था। मैंने उसी पल बुक्का फाड़कर रोना चालू कर दिया। प्रेम दीदी के बहलाये-फुसलाये भी मैं चुप होने को नहीं तैयार था। अचानक नेहरू जी ने अपनी खुली जीप वहीं रुकवा दी और खुद उससे उतरकर हमारे पास आ गए। उन्होंने मेरे गाल थपथपाते हुए दीदी से मेरे रोने की वजह पूछी। दीदी ने बता दिया कि मेरी चप्पल भीड़ में गिरकर कहीं गुम हो गई है...और लो! हमारे देश की इतनी बड़ी शख्सियत ने न केवल उसी पल अपने साथ चलने वाले पुलिसकर्मियों को चप्पल ढूँढने का आदेश दिया, बल्कि बिल्कुल किसी पारिवारिक बड़े की तरह खुद भी आसपास चप्पल ढूँढने में जुट गए। भीड़ हतप्रभ थी। मेरे विचार से अगर इतनी मुस्तैदी से घास में सुई भी ढूँढी जाती तो वह भी मिल जाती, फिर वह तो चप्पल ही थी। कुछ ही क्षण में चप्पल नेहरू जी के हाथ में थी, जिसे बेहद प्यार से उन्होंने खुद मुझे पहना भी दिया और साथ ही अपनी शेरवानी में टँका गुलाब भी दिया। इस कार्यक्रम के सम्पन्न होते ही उनका रुका हुआ काफ़िला फिर आगे बढ़ चला, मानो कुछ खास हुआ ही न हो।

 

मुझे तो खैर क्या कुछ समझ में आना था, पर दीदी और भैया लोगों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। यह घटना मेरे बड़े होने के बाद दीदी और भैया लोग अक्सर ही सुनाते थे। बस एक अफसोस है, काश! उस समय किसी ने वो दृश्य कैमरे में क़ैद कर लिया होता तो वह हमारे लिए कितनी बहुमूल्य धरोहर साबित होती। कम-से-कम मुझे ही वह देखने का मौका मिल जाता।

 

पर जो भी हो, हमारे परिवार के मन के कैमरे में तो वो पल आज भी बिल्कुल सजीव छपा हुआ ही है, और जब-जब इस बात का ज़िक्र होता है या होगा, तब-तब प्रेम दीदी भी हम सबकी नज़रों के सामने सजीव हो उठेंगी।

 

डिम्पल और चुनमुन अब भी पहले की तरह हमारे यहाँ आते रहते हैं तो कई बार मैं डिम्पल को देखकर ही अपनी प्रेम दीदी के अपने आसपास होने को महसूस कर लेता हूँ।

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