यादों के झरोखे से- मानी अपने भाई बहन की यादों में- (छह)
Friday, August 30, 2024
(विशेष नोट- 24 अगस्त को मेरी माँ प्रेम गुप्ता 'मानी' का जन्मदिन होता है, इस बार मेरी बहुत इच्छा थी कि उनके जीवन के कुछ अहम लोगों से उनकी यादों और भावनाओं के बारे में पता करूँ। अपनी तरफ से उनसे जुड़ी कई मज़ेदार और गंभीर किस्से और यादें तो मैंने समय-समय पर यहाँ शेयर की ही हैं। इस बार उनके बाकी रिश्तों के नजरिए से भी उनके बारे में जानकर देखते हैं। पिछली कड़ी में आपने मेरे विवेक मामा के बचपन की एक याद पढ़ी। अब आज इस कड़ी में प्रस्तुत है मेरे सबसे बड़े मामा डॉ संतोष कुमार गुप्ता के दिल की बात, उनकी प्रेम दीदी के लिए...।
इस पूरी कड़ी के लिए बस एक बात और...चूँकि पूरे
परिवार और खानदान में मेरे व माँ के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति लेखन से जुड़ा हुआ
नहीं है, इसलिए उनके भावों को शब्दों में बाँधने
का सौभाग्य मैंने अपने हिस्से कर लिया। इसी बहाने मुझे भी इन यादों और भावनाओं का
एक हिस्सा बनने का मौका मिल गया। - प्रियंका )
वो
एक निशान और हमारा बचपन
-डॉ
संतोष कुमार गुप्ता
डिम्पल का आग्रह था कि प्रेम
दीदी के बाद बिल्कुल अगले नंबर का भाई होने के कारण मैंने बाकी भाई-बहनों की तुलना
में उनके साथ अधिक समय बिताया होगा, सो उनसे जुड़ी कोई याद तो बताना ही पड़ेगा।
अपने छोटे भाई-बहनों के
मुकाबले अपनी भावनाएँ सही तरह से व्यक्त कर पाने में मैं थोड़ा कच्चा हूँ। ऐसा नहीं
है कि अंदर से मैं कुछ महसूस नहीं करता, लेकिन ऊपर से मेरा रवैया बेहद निर्लिप्त
होता है। न अधिक सुख में सुखी, न बहुत दुख में दुखी...। प्रेम दीदी एक तरफ मेरे इस
स्वभाव से थोड़ी इरिटेट भी होती थी, दूसरी तरफ अक्सर मुझे साधु भी कहा करती थी,
दिन-दुनिया से परे, अपने में मगन इंसान...न उधो का लेना, न माधो का देना...।
यही कारण है कि आज भी मैं
प्रेम दीदी के बारे में कुछ कह पाने में खुद को असमर्थ पा रहा, लेकिन बचपन की एक
याद है जो मुझसे अधिक प्रेम दीदी के साथ उनकी अंतिम साँस तक बनी रह गई।
जैसा कि आम तौर से हर
भाई-बहन में होता है, हम सब में भी बचपन में छोटी-छोटी बातों पर खूब झगड़े हुआ करते
थे। मैं और दीदी भी खूब लड़ते थे, जिसकी शुरुआत मुँह-ज़बानी से होकर अंत एक-दूसरे का
झोंटा पकड़ने से होता था। हम दोनों ही एक-दूसरे का बाल छोड़ने को राजी नहीं होते थे।
‘पहले तुम छोड़ो...पहले तुम छोड़ो...की रट लगाते हुए, एक-दूसरे के बालों को अच्छी
तरह झिंझोड़ते हुए इस लड़ाई का समापन माताजी द्वारा ही हम दोनों को एक-एक भरपूर धौल
और आगे होने वाली कुटम्मस के भय के साथ किया जाता था। इसके बाद भी बिसूरते हुए हम
दोनों एक-दूसरे को काफ़ी समय तक काट खाने जैसे एक्स्प्रेशन देते रहते थे।
ऐसी ही एक लड़ाई में जाने
अपने आप या माताजी की धौल के कारण प्रेम दीदी के बाल मेरी मुट्ठी से निकल गए और
इसे अपनी हार मानते हुए मैंने आव देखा न ताव, पास में रखा एक नुकीले मुँह वाला
गिलास उठाकर प्रेम दीदी के मुँह पर फेंक मारा। गिलास उनके आँख से बस ज़रा ही ऊपर
पड़ा और अगले ही पल वहाँ से खून की धार बह निकली। मैं बहुत डर गया था...कुछ तो आने
वाले पलों में पड़ने वाली मार का भय और कुछ प्रेम दीदी की वैसी स्थिति देखकर
आत्मग्लानि से मैं भी चिल्लाकर रोने लगा।
मुझे तो खैर उस समय क्या ही
कोई चुप कराता, लेकिन प्रेम दीदी को तुरंत डॉक्टर के पास ले जाया गया। भगवान की
कृपा से कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ, दीदी की आँख बाल-बाल बच गई थी। लेकिन हमारी इस
लड़ाई का एक पर्मानेंट निशान प्रेम दीदी की दाहिनी भौंह के ऊपर रह ही गया। हालाँकि
आमतौर पर किसी का ध्यान उस पर नहीं जाता था, पर अगर कभी किसी को कुछ दिख भी जाता
तो दीदी बस यही किस्सा सुनाकर हँसती थी।
बाकी और यादों को कैसे शेयर
किया जाता है, मुझे नहीं आता। हाँ, अगर प्रेम दीदी के प्यार की बात करूँ, तो आज तक
भी मुझे अपनी हर उस तकलीफ़ में वो अपने पास दिखती हैं जो मेरे ऊपर पड़ी। मेरी जिन
तकलीफों के चलते मुझे कभी अस्पताल जाना पड़ा, उन सभी में वो सब कुछ छोड़-छाड़ कर मेरे
पास बैठी रही हैं। अगर कभी अपने मन की कोई परेशानी उनसे कही, तो उसमें मेरा मनोबल
बनने के साथ अपने संभव मेरा भला ही करने की कोशिश करती आई हैं।
ज़्यादा कुछ कह पाना मेरे बस
में नहीं है। इसलिए बस प्रेम दीदी की यादों को अपने मन में बसाये मैं अपनी बात
यहीं रोकता हूँ। वो जहाँ भी हों, बस खुश रहें, इतनी ही प्रार्थना है।
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