भुलक्कड़ माँ और गुमशुदा मौसा

Saturday, August 24, 2024

 


                      भुलक्कड़ माँ और गुमशुदा मौसा

                                                         प्रियंका गुप्ता

(विशेष नोट- इस संस्मरण को लिखने की शुरुआत 2019-20 में हुई थी, पर किन्हीं कारणोंवश इसे सामने लाने में थोड़ी देर हुई, पर वे मज़ेदार पल आज भी मेरी आँखों के सामने बिल्कुल सजीव-से हैं। - प्रियंका)

 

चिंटू-मीनाक्षी की सगाई का चित्र, माँ के साथ 

माँ के भुलक्कड़पने के वैसे तो कई किस्से हैं और उनमें से कुछ पहले भी सुना चुकी हूँ, पर इधर काफी लंबे समय से वो बेहद सुधरी हुई नज़र आ रही थी। सच कहूँ तो कभी-कभी इनका ये भुलक्कड़पन बहुत मिस भी करने लगी थी। लगता था जैसे ज़िंदगी का कोई रस सूख गया। पर कहते हैं न कि अगर सच्चे दिल से कुछ माँगो तो भगवान फट्ट से 'तथास्तु' बोल देते हैं। अब ये तो भगवान ही जाने कि मेरी ढेरों-ढेर मँगनी की लिस्ट में कुछ कम सच्चे दिल से माँगी हुई चीजें हैं या भगवान जी का भी सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है, जो अभी हाल में ही मैया ने अपने इस भूलने वाली आदत फिर से अपना ली।


तो घटना घटी अपने चिंटू की शादी में...चिंटू बोले तो मेरा छोटा भाई ‘अंकुर’, जिससे जुड़े कई किस्से मैं पहले भी अपने यादों के पिटारे से निकालकर आपके साथ बाँट चुकी हूँ। सो जैसा कि मैं बता रही थी कि अपने चिंटू भैया हो गए बड़े और चल पड़े घोड़ी चढ़ने की राह पर...। बात है दस दिसंबर, 2018 की।  जैसा कि अमूमन शादियों में होता है, आसपास से लेकर दूर-दराज तक के रिश्तेदार और मेहमान भी शादी में शामिल होने आए थे। लखनऊ से मेरी मौसी सीमा आंटी भी अपनी बिटिया दीपिका के साथ तीन-चार दिन पहले ही आ चुकी थी। दुर्भाग्य से सीमा आंटी के ससुर की तबीयत थोड़ी खराब चल रही थी, सो भानु मौसा ने अपने न आ पाने की मजबूरी पहले ही बता दी थी। वैसे भी दुनिया जानती और मानती है कि शादियों में अगर फूफा न हों तो अधिकतर शादियाँ बिना किसी के गुस्साये शांति से निपट जाती है...पर खैर! फूफा की इस दुनियावी छवि को थोड़ा किनारे करके मुख्य किस्से पर आती हूँ।


तो साहेबान! जयमाल भी निपट गया और अब बारी आई दूल्हा-दुल्हन के साथ सबके फोटो खिंचवाने की...। एक तो भीषण ठंड में माँ की बीपी की समस्या बढ़ जाती थी, सो इधर-उधर ज्यादा भागने दौड़ने की बजाय उन्होंने मीनाक्षी (चिंटू की पत्नी) की मम्मी के साथ आगे की पंक्ति में बैठकर बतियाना अधिक पसंद किया। अभी कुछ लोग बारी-बारी से फोटो खिंचवाने में तो कुछ लोग नाश्ते-खाने के चक्कर में इधर से उधर घूम रहे थे, कि तभी किसी ने आकर मम्मी के पैर छूकर उनसे नमस्ते की। माँ ने इस अचानक हुए स्नेह-अभिवादन से अचकचाकर नज़रें उठाई तो सामने भानु मौसा को देखकर खुश हो गई।


“तुम कब आए बेटा? (सीमा आंटी माँ से काफ़ी छोटी हैं, सो माँ मौसा जी को भी बेटा ही कहती हैं) पापा की तबीयत अब कैसी है?”


सामने खड़े शख्स ने भी उनकी दोनों बातों का समुचित जवाब दिया, “अभी आया हूँ दीदी, और पापा भी पहले से ठीक हैं। आप कैसी हैं?”


“हम बिल्कुल ठीक हैं, लेकिन तुम ऐसा करो, पापा को ऐसी तबीयत में ज्यादा देर तक अकेले छोड़ना ठीक नहीं...तुम फटाफट फोटो खिंचवाकर और खाकर घर निकल जाओ। अच्छा लगा तुम आ गए, वरना घर की शादी में परिवार का कोई एक भी शामिल न हो पाए तो बुरा फ़ील होता है।”


उन्होंने भी माँ की बात पर हामी भरी और दुबारा पैर छूकर स्टेज पर चढ़ गए। दस मिनट बाद माँ ने देखा तो वे कहीं नहीं थे। माँ को लगा, खाना खाने चले गए होंगे। तभी सामने से सीमा आंटी हाथ में कुछ खाने का लिए आती दिखाई दी तो माँ ने उन्हें आवाज़ लगा दी, “तुम यहाँ अपना खाने का लेकर घूम रही, उधर पता नहीं भानु के पास कोई है भी या नहीं। कम-से-कम तुम तो देख लो कि वो ठीक से खा-पी लें।”


अब तो भैया सीमा आंटी को देखते ही बनता था। सबसे पहला सवाल उनका यही था- क्या पहनकर आए हैं? माँ ने छूटते ही बता दिया- पैंट-कमीज़ और जैकेट...। सुनकर सीमा आंटी अच्छा-खासा टेंशनिया गई- दीदी, हमसे बोले थे कि पापा को छोड़कर नहीं आएँगे, लेकिन हम तब भी उनका सूट, कमीज़, जूता-मोजा-टाई, सब एक तरफ रख आए थे कि मान लो, रमा दीदी कुछ देर के लिए पापाजी को सम्हालने आ ही जाएँ तो शादी में यही पहनकर आइएगा कायदे से, लेकिन नहीं...उनको तो करना अपने मन का ही है। बताओ दीदी, घर की शादी है, दूल्हे के फूफा हैं आप, अच्छा लगता है पैंट-कमीज़ और जैकेट पहनकर आना? चार लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे, कि आपके पास एक ढंग का सूट भी नहीं है पहनने को...? और बताओ, हमको एक बार बताए भी नहीं कि निकल चुके हैं, यहाँ आ रहे।


सीमा आंटी शायद और भी भड़ास निकाल लेती, पर माँ ने उन्हें सख्ती से रोक दिया- तुम पहले जाकर उनको देखो कि ठीक से खा-पी लें, ये बातें बाद में कर लेना...। आ गए, यही अच्छी बात है। अब ये सब बातें करके इस समय उनसे बहस न कर लेना। वापस जल्दी लौटने को हैं, और किसी लड़के को भी बोलो, उनको ठीक से अटेन्ड कर ले।


अब इतने बड़े हॉल और उससे भी बड़े भीड़-भड़क्के वाले लॉन में किस तरफ मौसा जी कहाँ हैं, बेचारी सीमा आंटी कैसे ढूँढती? सो एक दिशा में सीमा आंटी गईं, दूसरी दिशा में दीपिका...। तब तक माँ की नज़र मेरे तीसरे नंबर के मामा आनंद अंकल पर भी पड़ गई, सो उन्हें आवाज़ देकर माँ ने संक्षेप में उन्हें सब बताकर उनको भी – दूल्हे का फूफा खोजो अभियान- में शामिल कर लिया।


दस-पंद्रह मिनट बीतते-न-बीतते तीनों लोग हारे हुए गुप्तचरों की तरह हथियार डाले हुए माँ के पास वापस आ गए...भानु मौसा जी कहीं नहीं मिले। माँ को भी थोड़ा टेंशन हो गया। अच्छा होता कि जब उनसे मिलने आए थे, तभी दो मिनट अपने पास रोककर किसी को उनके साथ कर देती, पता नहीं बुरा ही मान गए हों और कहीं बिना खाये-पिये तो नहीं चले गए?


सीमा आंटी भी उनको लगातार फोन मिलाने की कोशिश कर रही थीं, पर शहर के मानो एक दूसरे ही हिस्से में शांत वातावरण में बने उस विशालकाय आयोजन-स्थल में हर खूबी मौजूद थी, सिवाय अच्छे नेटवर्क के...सो फोन था कि उसने भी इस घड़ी में अपने नेटवर्क की ‘हर-घड़ी कनेक्टिविटी’ के अपने वायदे पर कोई ध्यान नहीं दिया।


अभी इस गठजोड़ की यह ‘चाय पर चर्चा’ टाइप का डिस्कशन चल ही रहा था कि तभी सबकी नज़र कहीं से आती हँसती-बोलती मुझ नाचीज़ पर पड़ी। तुरंत मुझे भी उस चर्चा में शामिल किया गया। पहले तो मैं हैरान हुई, फिर भानु मौसा का पूरा विवरण और वर्णन सुनने के पश्चात बिल्कुल भी परेशान हुए बिना मैं अगले कुछ पलों तक बिना कुछ बोलने की स्थिति में आए खी-खी करते हुए हँसी, फिर मेरे दिमागी हालत पर संदेह करती हुई परेशान माँ ने जब मुझे डाँटा, तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू पाकर मेरे मुँह से बस इतना निकल पाया- मौसाजी आते, तब तो मिलते न...।


अब परेशान और कंफ्यूज़ होने की बारी उन सबकी थी। माँ अपनी बात पर बिल्कुल अटल थी...अरे नहीं भई, भानु आकर हमसे मिले हैं, हालचाल पूछा, स्टेज पर जाकर फोटो खिंचवाई चिंटू के साथ...फिर उधर खाने गए बाहर...।


माँ के इस कॉन्फिडेंट बयान के पूरा होने तक मेरी हँसी भी काबू में आ चुकी थी, इसलिए तब जाकर मैं सबको असली बात बता पाई। वो भानु मौसा नहीं, बल्कि गुड्डू अंकल, यानि मेरे सबसे छोटे मामा सुनील के दोस्त व हम सभी के पारिवारिक डेन्टिस्ट डॉ अक्षय गुरहा थे...। मामा के नाते वे भी माँ को दीदी ही कहते थे, घर में सबसे परिचित थे और इत्तिफ़ाक की बात, उस समय उनके पिताजी की तबीयत भी खराब ही चल रही थी।


जैसा कि ज़ाहिर था, बहुत अधिक लंबे अंतराल के बाद कभी-कभी शक्लें भूल जाने वाली माँ ने डील-डौल में काफ़ी कुछ भानु मौसा जैसे दिखने वाले डॉ अक्षय को भानु मौसा समझ लिया क्योंकि मौसा से मिले हुए भी उन्हें लगभग दो साल बीत चुके थे। माँ हल्का-फुल्का अब भी संशय में थीं, लेकिन जब मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि थोड़ी देर पहले मैं खुद बाहर खाना खा रहे डॉ गुरहा से मिली हूँ, बाकायदा पाँच-सात मिनट उनसे बात हुई है और उनके पास गुड्डू अंकल को भी देखा है, तब कहीं जाकर माँ को भी विश्वास आया कि जो कुछ हुआ था, वह उनके ही भुलक्कड़पने का कमाल था।


कहने की ज़रूरत नहीं कि सच का पता चलने पर उस पल हम सब किस तरह खिलखिलाकर हँसे थे, जिसमें सीमा आंटी की भी हल्की झेंपी हुई-सी हँसी शामिल थी।

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