कुछ बातें...चुप-सी...

Thursday, May 07, 2020

श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का नाम हिन्दी साहित्य जगत में किसी से अनजाना नहीं है । जो लोग लघुकथा या काव्य-विधा से जुड़े है, या हाइकु-तांका-सेदोका और चोका जैसी जापानी काव्य-विधाओं से परिचित हैं, उनके लिए तो ये नाम स्वयं में किसी स्कूल से कम नहीं होगा । मन से बेहद सरल, स्वभाव से शांत-गंभीर काम्बोज जी सबको साथ लेकर चलने में यकीन रखते हैं...और कई बार तो जाने कितनों को अपने से पहले लाकर दुनिया के सामने खड़ा कर देते हैं ।

पेशे से  केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य  रह चुके काम्बोज जी की वैसे तो मैं छात्रा नहीं रही, पर फिर भी मेरे गुरु हैं...क्योंकि जापानी काव्य-शैली की विधाओं में न केवल वे मुझे लेकर आए...बल्कि उँगली पकड़ कर उस अनोखी विधा के रास्ते पर मुझे खड़ा होना और चलना भी सिखाया...। आज हाइकु, तांका और चोका जैसी विधाओं में जो कुछ भी थोडा-बहुत मैं कर पाई हूँ, उसका सारा श्रेय श्री काम्बोज जी को ही जाता है ।

वैसे आमतौर पर तो मैं उनकी लाडली बेटी हूँ, पर आज एक अन्दर की बात बता रही । सारा लाड-दुलार एक तरफ...और जहाँ मैंने उनके दिए किसी होमवर्क को करने में आलस दिखाया नहीं कि वहीं उनके अन्दर का शिक्षक मुझे हड़काने बाहर आ जाता है । शायद यही वजह है कि अपनी लीक से हटकर कई अलग विधाओं में भी मैं अपना हाथ आजमा पाई हूँ । ऐसा नहीं है कि वे बहुत स्ट्रिक्ट टीचर हों, बल्कि समय आने पर  कई बार  मेरे 'गुड वर्क' पर वे दिल खोलकर शाबाशी भी दे देते हैं ।

अब गुरु अपने शिष्य पर गर्व करे, वो तो होता ही रहेगा; पर जिस गुरु पर उनके शिष्यों को गर्व हो, ऐसा कम ही होता है । जिन लोगों को वे साथ लेकर चले, जिनको अपने से भी आगे पहुँचाने में कभी गुरेज नहीं किया, उनकी तारीफ़  करने में वे कभी कंजूसी नहीं करते...। पर ऐसे काम्बोज जी की जब बारी आती है कि वे अपनी किसी उपलब्धि के बारे में भी बोलें, वे हमेशा कन्नी काट जाते हैं ।

उनकी सारी उपलब्धियों के बारे में तो मैं आज नहीं बता सकती, पर एक उपलब्धि मेरे दिल के बहुत करीब है । चूँकि एक कच्ची उम्र में लेखन शुरू करके बड़े होने तक भी मैं खुद बच्चों के लिए लिखती रही, इसलिए मुझे बहुत अच्छी तरह इस बात का अहसास है कि खुद दिमाग़ी तौर पर बड़े होने के बावजूद दिल से बच्चा बनकर बच्चों के लिए उन्हीं के मनोभावों को समझते हुए सहज-सरल शब्दों में लिखना कितना कठिन है ।

काम्बोज जी ने बड़ों के लिए, बड़ों के साथ चाहे जितना भी काम किया हो, पर अपने अन्दर उन्होंने आज भी एक बच्चा छुपाकर रखा है, जो बच्चों की जुबान बोलता भी है और समझता भी है । शायद यही वजह है कि देश में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बच्चों के लिए काम करने वाली संस्थाओं और संगठनों ने हमेशा बाल-पाठकों के लिए काम्बोज जी का रचनात्मक सहयोग लिया है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने तो उनके बाल-संग्रह छापे और दूसरी भाषाओं/ बोलियों मे अनूदित भी कराए। यही नहीं,अंतर्राष्ट्रीय संस्था- रूम टू रीड- ने भी साग्रह उनसे समाज के पिछड़े इलाकों में रह रहे बच्चों के लिए विशेष रचनाएँ लिखवाईं,कुछ का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी कराया। हिन्दी -शिक्षण का पाठ्यक्रम भी उनकी देख्ररेख  में तैयार कराया,जो पिछले करीब आठ-दस वर्षों से लगातार उन बच्चों के मानसिक और शैक्षिक विकास के लिए उपयोग हो रहा है। ।

ख़ास तौर से वे रचनाएँ तो मैं यहाँ नहीं दे सकती, पर काम्बोज जी (जिन्हें मैं इतनी देर से काम्बोज अंकल नहीं बुला पाई...इस लेख के चक्कर में...) के व्यक्तिगत खजाने में से निकालकर तीन अप्रकाशित बाल-कविताएँ मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही...। आप खुद देखिएगा...उनके अन्दर कितना प्यारा बच्चा बैठा हुआ है...।
{ वैसे बाल-साहित्य में भी अगर उनका सतत योगदान देखना हो तो उनके ब्लॉग- पतंग- पर जाकर भी देखा जा सकता है |}


श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की तीन बाल-कविताएँ


1-हाथी दादा धम्मक-धम्मक





हँसी -ठिठौली बच्चों की सुन ,
खिले हज़ारों फूल ।
हाथी दादा धम्मक-धम्मक  ,
जा पहुँचे स्कूल  ।

पकी जामुने, जमकर खाईं
खूब दिखाई शान ।
खा-पीकर फिर मच्चक-मच्चक ,
पहुँच गए मैदान ।

सवेरे से मैच क्रिकेट का
था वहाँ पर जारी ।
बैट पकड़कर मारे छक्के
जीत गए थे पारी ।

 ड्राइंग रूम में दादा जी ,
फिर अचानक आए ।
दीवार पर अपनी सूँड से ,
कई चित्र बनाए ।

 लाइब्रेरी में जाकर फिर
पुस्तक एक उठाई ।
सूप जैसे कान हिलाकर
कविता एक सुनाई ।

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2-‘कोवा-कोवा का-का-का’






तोता टें-टें करता है

कुहू- कुहू कोयल गाती ।
टिवी-टू-टि-टिट्-टिवी-टि-टिट्
चीख टिटिहरी चिल्लाती ।
छत पर घूमे इधर-उधर
करे  कबूतर  गुटर्र गूँ ।
गौरैया घर में चहकी
चीं-चीं-चीं-चीं, चूँ- चूँ-चूँ ।
सुबह जाग मुर्गा बोला-
कुकड़ू-कूँ कुड़- कुकड़ू-कूँ ।
बैठ नीम की डाली पर
करती  फाख्ता -तूहू -तू
जब-जब बादल घिरते है
पिहू -पीहू करता मोर ।
‘कोवा-कोवा का-का-का’
जलमुर्गी करती है शोर ।

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3-तुम क्यों आए जंगल में?




बहुत भीड़  ये जब से आई जंगल में ।
जमकर सबने धूल उड़ाई जंगल में ।
हुआ रात भर धूम-धड़ाका होटल में
नाचे-गाए छुटे पटाखे होटल में ।
शोर बहुत था पेड़-पहाड़ी काँप उठे
बाघ घड़ीभर सो न पाए जंगल में ।
झीलों में भी कूड़ा-कचरा भर डाला
बोलो कैसे  प्यास बुझाएँ जंगल में।
छुपें कहाँ हम पेड़ घने सब काट दिए
झाड़ी तक भी नजर न आए जंगल में
भूखा-प्यासा बाघ सभी से पूछ रहा-
मेरा घर था -‘तुम क्यों आए जंगल में?’

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(सभी चित्र pixabay.com से साभार )



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5 comments

  1. मैं अब तक आपके इस पोस्ट को पढी ही नहीं थी. काम्बोज भाई न जाने कितनों को ऊँगली पकड़कर लिखना सिखा चुके हैं, जिनमें मैं भी हूँ. मैं तो उन्हें अपना बड़ा भाई मानती हूँ. उनकी कुछ बाल पुस्तकें पढी हूँ. काम्बोज भाई अपनी उपलब्धि जल्दी बताते नहीं और हम सभी की उपलब्धि ज़रूर सबको बताते हैं.
    उनकी लेखनी चाहे जिस विधा में हो कमाल है. इतना सुन्दर पोस्ट लिखने के लिए आपको बधाई.

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  2. मेरे लिए आप सब कितना अच्छा सोचते हैं। हृदय से महसूस करता हूँ कि आप अपने ही तो हैं।

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