आसमां से आगे, जहां और भी है...

Thursday, September 12, 2019



कल वाट्सएप पर एक मैसेज आया | मैसेज आज के माता-पिता और उनके बच्चों के बीच के सम्बन्ध पर आधारित था | एक अच्छे खासे लम्बे-चौड़े मैसेज का लब्बोलुआब यही था कि आज हमारी परवरिश के तरीकों और उससे जुडी सोच के चलते बच्चे हमारे बच्चे कम, और हमारे मालिक ज़्यादा बन गए हैं | उसमें तीन-चार अलग-अलग घटनाएँ दी गईं थी, हरेक घटना में एक निरीह-सा पिता और उसकी बदतमीज़ संतान की उदंडता का जिक्र था | जाहिर है, इस तरह की घटनाओं को पढ़-सुन कर किसी भी अभिभावक के अन्दर आक्रोश उठना स्वाभाविक है | ऐसी संतानों के लिए बहुत सारे लोग घृणा या धिक्कार भी महसूस करेंगे | उस मैसेज के लेखक के अन्दर भी कुछ ऐसी ही भावनाएँ हिलोरें ले रही थीं | अंत में उसने आजकल की दोस्ताना परवरिश को आरोपित करते हुए हर माता-पिता को यही सलाह दी थी कि अपने बच्चों के दोस्त होने की चेष्टा न करके उनके लिए हमेशा एक कड़क अभिभावक ही बन कर रहिए, तभी आपकी संतान सही रास्ते पर रहेगी और आपकी हर आज्ञा का पालन करेगी |

मैसेज चूँकि ग्रुप में था, सो अलग-अलग लोगों ने उस पर अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी | ज़्यादातर लोग इस मैसेज के पक्ष में थे | एक-आध लोगों ने दबे शब्दों में विरोध भी जताया पर चूँकि बहुमत विरोध सहने के मूड में नहीं था, सो माहौल गरम होता देख कईयों ने एकदम सन्नाटा भी खीँच लिया | पर इन सारी बहसबाजियों और पक्ष-विपक्ष के तर्कों को चुपचाप पढ़ते हुए मेरे मन में कई सवाल उठ खड़े हुए |

अभी हाल में ही किसी से बातें करते हुए खुद मेरे और उनके बीच भी इसी बात को लेकर चर्चा हो चुकी थी | उस समय भी हम दोनों का बहुत सारे मसलों पर मतैक्य नहीं हो पाया था | पर समयाभाव के कारण वो चर्चा आधी-अधूरी ही छूट गई और कहीं न कहीं यह मुद्दा मेरे दिमाग़ से निकल भी गया था | पर एक बार फिर इसी मसले पर कई अलग-अलग परिवेश और परवरिश के लोगों के विचार जान कर मैं फिर सोच में पड़ गई कि अपने बच्चों के प्रति हर माँ-बाप या घर के बड़े-बुजुर्गों की एकमात्र शिकायत- आजकल के बच्चे बिलकुल बेलगाम हो गए हैं, किसी की सुनते ही नहीं...| हम लोग के ज़माने में तो ऐसा होता ही नहीं था- में कितनी सच्चाई है और कितना भ्रम और ग़लतफ़हमी...?

हम में से हरेक ने कभी न कभी अपने बच्चो को लेकर यह जुमला इस्तेमाल किया ही है | झूठ क्यों कहूँ, कभी किसी समय में अपने बेटे के किसी निर्णय से सहमत न होने पर खुद मेरे भी मुँह से यही बात निकल जाती है, पर अगले ही पल मैं खुद के अन्दर झाँक कर, अपने बड़ों के जीवन की कुछ घटनाओं को याद करके खुद से सवाल कर लेती हूँ...क्या सच में...?
क्या सच में सिर्फ आजकल के बच्चे ही अपनी मनमानी करते हैं ? क्या सिर्फ आज की पीढ़ी ही बड़ों की बात नहीं मानती और बहुत सारे मामलों में अपने निर्णय पर अडिग रहती है ? क्या हमारी पीढी, हमारी पिछली पीढी और उनकी भी पिछली पीढ़ियों ने आँख मूँद कर अपने बड़ों की हरेक छोटी-बड़ी आज्ञा का पालन किया ही है ?

सोच कर देखिए...आपकी अंतरात्मा से बस एक ही जवाब आएगा- नहीं! पचास-सौ सालों के इतने पास के समय का तो छोड़िए, प्राचीन काल में स्वयं नारायण के अवतार कहे जाने वाले हमारे भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपने बड़ों की बातें नहीं मानी, उल्टा अपने बड़ों की गलत बातों के विरोध में अटल-अविचल होकर खड़े हो गए | जाने कितनी शरारतें और बदमाशियाँ की | बार-बार माँ से पिटे पर क्या हर बार मटकी फोड़ कर कंस के प्रति सांकेतिक विरोध करने की अपनी मंशा से बाज आए...? इंद्र की पूजा रुकवा कर उन्होंने अपना निर्णय ही तो सर्वोपरि रखा न...?
मेरी बातों को काटने के लिए शायद आपका तर्क होगा कि वो तो भगवान थे, उनसे आम इंसानों की तुलना क्या करना...? पर आप ही बताइए, उनकी पिटाई करते समय क्या माता यशोदा के लिए भी वो भगवान् थे ? नहीं न...?

चलिए, भगवान् के समय को भी भूल जाइए, हम अपनी पिछली सदियों की बात करते हैं | हमारे देश में व्याप्त बहुत सारी कुरीतियों में से एक...बर्बरता की हद तक पहुँचने वाली कुरीति- सतीप्रथा को ख़त्म करने वाले राजा राममोहन राय का अपने विचारों के चलते पिता से मतभेद इस कदर बढ़ा कि उन्होंने अपना घर ही छोड़ दिया था | बाल-विवाह का विरोध और विधवा विवाह का प्रबल समर्थन करने वाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर को भी जाने कितनी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था | इन सब उदाहरणों पर भी कुछ लोगों की प्रतिक्रिया होगी कि ये सब तो अपने समय के महान व्यक्ति थे...| पर वे महान थे तो आगे आने वाले समय के लिए न, अपने माता-पिता या तत्कालीन समाज की नज़र में तो उनको कितना भला-बुरा कहा गया होगा या एक संतान के तौर पर उन पर प्रश्न उठाये गए होंगे न...?

इन समाज सुधारकों की या किन्हीं भी ऐसे महान व्यक्तित्व की बात भी हम छोड़ ही देते हैं | मैं ज्यादा दूर न जाकर अपने परिवार, अपने नाना की बात बताती हूँ | मेरे नाना को उनके पिता पीढ़ियों से परिवार में चली आ रही ज़मींदारी के काम में ही लगाना चाहते थे, पर मेरे नाना का दिल तो खुद को साबित करना चाहता था | पढ़ने में बेहद होशियार मेरे नाना बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे, पर उनके पिता ने समय से पूर्व ही उनकी शादी करा दी थी और छोटी उम्र में ही पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ सिर पर आ जाने के कारण इंग्लैंड जाने का सपना तो सपना ही रह गया, पर फिर भी उन्होंने अपना घर, अपना शहर छोड़ कर इलाहबाद जाकर अपनी वकालत की पढाई पूरी की ही | वो भले ही बाद में एक नामी वकील बने, पर अपने पिता के लिए वे उनकी अवज्ञा करने वाली संतान के रूप में ही रहे |

इन सारे उदाहरणों को देने से मेरा आशय सिर्फ इतना ही है कि अपने बच्चो को लेकर, उनकी इच्छाओं, उनके निर्णयों को लेकर उनके अटल इरादों के लिए माता-पिता को भी अपना नज़रिया बदलना होगा | आज के बच्चे बहुत बिगड़े हैं, हमारी बात नहीं मानते...इस सनातन वाक्य को बोलने से पहले आपको भी अपनी उसी उम्र को याद करना होगा | अपने बचपन, अपनी जवानी के गलियारों में झाँक कर देखना होगा |

अपने अन्दर झाँकने के बावजूद भी अगर आपको लगता है कि आपने अपने बच्चो का दोस्त बन कर गलती की और उसके परिणामस्वरूप वो उदंड हो गए, बदतमीज़ हो गए तो जान लीजिए, आपने दोस्ती की परिभाषा को न तो खुद समझा है और न अपने बच्चे को समझा पाए हैं |  

दोस्ती का मतलब ये बिलकुल नहीं है कि एक दोस्त दूसरे के साथ उदंडता या बदतमीज़ी से पेश आय और न ही ये कि एक दोस्त की मनमानी या इच्छा मानना दूसरे दोस्त की बाध्यता ही हो| अगर आपका बच्चा आपके साथ बदतमीज़ है या आपको अपने बच्चे की इच्छाओं या निर्णय-शक्ति का सम्मान करना नहीं आता तो आप दोनों ही एक दूसरे के दोस्त नहीं...| सिर्फ कुछ विषयों पर खुल कर अपने बच्चे के सामने चर्चा कर लेने मात्र से आप दोनों दोस्त नहीं हो जाते| इसलिए जब तक एक असली दोस्त की तरह आप दोनों एक दूसरे का सम्मान करना, एक दूसरे की भावनाओं को, विचारों को समझना और सहज रूप से अपने मतभेदों को सुलझाना नहीं सीख जाते, छोड़ दीजिए ये कहना कि आपका अपने बच्चों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध है और आप दोनों पक्ष ही ये स्वीकार कर लीजिए कि आज भी आप आपस में बस अभिभावक और संतान ही हैं...|

दोस्त होने से तात्पर्य यह है कि दोनों ही पक्ष सहज भाव से अपने विचार एक दूसरे के सामने रख सकें और जो पक्ष वास्तव में सही हो, दूसरा उसकी बात मान सके | यहाँ पर बड़े होने और एक अभिभावक भी होने के नाते आपकी ही ज़िम्मेदारी ज़्यादा हो जाती है कि यदि आपके बच्चे का निर्णय वास्तव में ग़लत है, तो उसे उस निर्णय से होने वाली समस्याओं, लाभ और हानि के बारे में सही और शांत तरीके से समझाया जाए | अगर इसके बाद भी बच्चा अपने निर्णय पर अडिग रहना चाहता है, तो आप भी उसके तर्कों को सच की कसौटी पर परख कर देखिए...| अगर उसका पक्ष भी दमदार है तो जब तक ज़िंदगी और मौत जैसा रिस्क न दिखे, कोशिश कीजिए कि आप उसका साथ दीजिए...| हो सकता है आपसे इतर जाकर भी वो आपको भविष्य में गर्वित होने का मौक़ा ही दे | इस तरह के उदाहरणों से भी हमारा समाज भरा पड़ा है, जहाँ बच्चों ने अपने माता-पिता के सहयोग या असहयोग के साथ भी अपनी एक ऊँची मंजिल पाई है |

कभी कभी एक पंछी बन कर भी देखिए, बच्चे को उड़ना सिखाइए...उसके पंख न कुतरिये...| फिर देखिएगा, शायद आप भी कभी कहें...वो देखो, मेरे बच्चे की परवाज आसमान से भी आगे है...|

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5 comments

  1. Bahut kuch kah diya hai tumne aur bahut to aisa jo mere man ki baat hai. Tumse to discussion bhi hua hai is masle par. Lekin sab baaton se sahmat hote hue bhi ye kahna chahenge ki ab bachchon me rishton ko lekar utni gambheerta dheere dheere kam hoti jaa rahi hai, mere khayal se. Wajah bahut kuch hai is maamle me.

    Aur aakhiri line se sahmat :)

    Is par to itna kuch kahna hai ki ek post hi ban jayegi.. :)

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    1. तो देर किस बात की, बना डालो एक पोस्ट :)

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  2. सही विचााभिव्यक्ति अक्सर लोग खुद का भूतकाल भूल जाते हैं और अपेक्छा करते बच्चों को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने की

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  3. यह एक बहुत गंभीर विषय है. गलती चाहे अभिभावक की हो या संतान की, आपसी तालमेल अब सही नहीं रह पाता है, यह तो सच है. बहुत सारी वजहें हैं, परिस्थितियाँ भी अलग अलग होती हैं. पर इतना ज़रूर है कि वक़्त के साथ सोच बदली है, और शायद इस कारण भी रिश्ते नाजुक हो रहे हैं. सिर्फ किसी एक कारण को उचित नहीं कहा जा सकता. इस विषय पर चिन्तन की ज़रुरत है.

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