एक लाइब्रेरी...कुछ आँसू...और ज़िंदगी...!

Saturday, September 02, 2017


                                    

एक अच्छा लेखक होने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी क्या होता है...? अच्छा लिखना...? अच्छा लिखना तो पहली शर्त होता ही है, पर अच्छा लिखने के लिए लोगों के हिसाब से अच्छा-खासा पढ़ना भी बेहद महत्वपूर्ण है |

अब मैं अच्छा लिखती हूँ या नहीं, ये तो नहीं मालूम...पर मैं पढ़ती बहुत अच्छा-खासा आई हूँ | बहुत छोटी उम्र में ही मैं लिखना-पढ़ना सीख गई थी...| उस उम्र में जब बच्चे पेंसिल पकड़ना सीख रहे होते हैं, मैं मात्राओं वाले वाक्य लिखने लगी थी | जैसे इन्सान को भूख लगने पर खाने की ज़रूरत महसूस होती है, अपनी दिमागी भूख शांत करने के लिए मुझे किताबों की ज़रुरत होती थी | चंपक, नंदन, पराग, बाल-भारती, चंदामामा, मधु-मुस्कान जैसी बाल पत्रिकाएँ मेरे लिए नाश्ते की तरह होती थी | घर आने के थोड़ी देर बाद पहले पन्ने से शुरू करके आख़िरी तक पहुँच कर ही दम लेती थी...| उसके बाद बेचैनी फिर शुरू...क्या पढूँ...? लगातार पढने के कारण मेरे पढने की स्पीड भी बहुत अच्छी हो गई थी | बच्चों की मैगज़ीन पूरी पढने में मुझे अधिक से अधिक आधा घंटे का समय लगता था | कॉमिक्स तो मेरे लिए पाँच-दस मिनट का खेल हुआ करता था | बाल पत्रिकाएँ ख़त्म हो जाती तो मैं घर में आने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ खंगालने लगती थी | उनकी कहानियाँ कभी तो मेरी बाल-बुद्धि को समझ आती, कभी सिर के ऊपर से निकल जाती| उस दौरान घर में सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएँ नियमित आया करती थीं | उनको भी मैं आदि से लेकर अंत तक चाट जाती थी |

थोड़ी बड़ी हुई, यानि करीबन सात-आठ साल की...तब पता चला कि लाइब्रेरी नाम की भी एक जगह होती है जहाँ दुनिया भर की किताबें, अखबार और पत्रिकाएँ पढी जा सकती है...| यह जानकारी भी मुझे अचानक ही मिली थी, जिसके पीछे एक मजेदार घटना है | अब यह बात और है कि वर्षों बाद जब यह घटना याद आई, मुझे खुद पर हँसी ही आई...पर जब यह दुर्घटना (?) मेरे साथ घटित हुई तो अपनी अज्ञानता पर शर्मिंदगी महसूस करती हुई मैं बुक्का फाड़ के रो दी थी | मेरी ज़िंदगी के ढेरों किस्से सुन चुके लोगों को भी इस बारे में कुछ नहीं पता क्योंकि वक़्त के साथ हज़ारों भूली-बिसरी यादों के समुन्दर में यह भी कहीं खो चुकी थी |

बात उस समय की है, जब मैं कक्षा दो यानि सेकंड क्लास में पढ़ती थी | पढने में होशियार थी, क्लास में अनुशासित होने के साथ-साथ कभी भी शरारत न करने के कारण मैं टीचरों की प्रिय भी थी...सो लाजिमी था कि मुझे उस साल क्लास का मॉनिटर बना दिया जाता  | सब कुछ बेहद अच्छा चल रहा था कि तभी अचानक एक दिन मेरी क्लास-टीचर मिस मैसी ने मुझे बुलाया और लाइब्रेरी जाकर वहाँ मौजूद सिस्टर को एक संदेशा देने को कहा | चूँकि हमारे स्कूल में तीसरी  कक्षा से हफ्ते में एक दिन लाइब्रेरी का पीरियड शुरू होता था, इसलिए सेकंड में रहते हुए ऐसा कोई चांस ही नहीं लगा कि मैंने कभी लाइब्रेरी का रुख भी किया हो...| मिस मैसी अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण बच्चों में बेहद कुख्यात थी और मुझे उनका भरपूर प्यार मिलने के बावजूद मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उनसे पूछ लूँ कि ये लाइब्रेरी आखिर है कौन सी बला...और इत्ते बड़े स्कूल में मैं उसे खोजूँ तो कहाँ खोजूँ...?

खैर! कहानियों में पढ़े सुने सारे जाने-अनजाने देवी-देवताओं को याद किया... `मेरी तुम लाज राखो गिरधारी’ स्टाइल में  भगवान को टेरा और लाइब्रेरी की खोज में चल दी...| रास्ते में सीनियर क्लास के जाने दीदी मिली या भैया, ये याद नहीं, पर कोई तो मिला जिससे मैंने लाइब्रेरी का पता पूछा | पर हाय री मूढ़ बुद्धि! पता पूछते समय भी यह ख्याल नहीं आया कि उन्हीं से पूछ लूँ कि यह लाइब्रेरी दिखती कैसी है और उसमें होता क्या है...|

फिलहाल इतने बरसों बाद ठीक से यह भी याद नहीं कि मैं उसी मंजिल पर पहुँची थी या कहीं और, पर लाइब्रेरी के नाम पर जिस जगह मैं घुसी, वह असल में केमिस्ट्री लैब था (जो ज़ाहिर है बाद में जाना) | उस समय वही मुझे सामान्य कक्षाओं से कुछ अलग लगा | सबसे बड़ी बात, वहाँ सिस्टर ही मौजूद थी | मैंने राहत की साँस ली और परमिशन के साथ सिस्टर के पास जाकर मिस मैसी का संदेशा सुना दिया | सुनकर उनके चेहरे पर हैरानी के भाव आए और उन्होंने कुछ दुविधा के साथ (अंग्रेजी में) पूछ ही लिया...तुम्हें यकीन है कि ये संदेशा मेरे लिए ही है ?

अब तक मेरे अन्दर बहुत कुछ उमड़-घुमड़ चुका था, सो अंग्रेजी गई तेल लेने...मैं हिन्दी में ही बुक्का फाड़ कर रो दी...आप चलिए मेरे साथ...| मुझे इस तरह रोते देखना वहाँ प्रैक्टिकल कर रहे भैया-दीदियों के लिए मनोरंजन का साधन बनते देख सिस्टर ने पहले तो मुझे पुचकार के चुप कराया, फिर मेरा हाथ थामे मेरे साथ क्लास में आ गई...| सारी बात जान कर वे खुद लाइब्रेरी वाली सिस्टर तक मेसेज पहुंचा देने की बात कहते हुए, हँस कर मेरा गाल थपथपाते हुए चली तो गई, पर मिस मैसी का गुस्सा अपने चरम पर था | तमतमाते चेहरे के साथ उन्होंने दांत पीसते हुए बस इतना ही कहा...यू स्टुपिड, इडियट...कभी लाइब्रेरी नहीं देखी क्या...?

ज़िंदगी में पहली बार किसी टीचर से डांट सुन कर, इडियट और स्टुपिड का अर्थ जानने के कारण अपमानित महसूस करके, रोना तो मुझे बहुत आया , पर अपने क्लास के बच्चों के सामने रोकर मैं अपना और मज़ाक नहीं बनवाना चाहती थी | सो चुपचाप अपनी सीट पर जाकर सिर झुका कर अपने आँसू पी गई | आश्चर्यजनक रूप से मेरा मज़ाक किसी ने नहीं बनाया | एक तो ये कि अधिकाँश बच्चों के साथ भी मेरा व्यवहार हमेशा दोस्ताना था, दूसरी और सबसे बड़ी वजह...उनमे से भी किसी ने अपनी ज़िंदगी में कभी लाइब्रेरी नहीं देखी थी |

घर आकर मैंने जिद पकड़ ली...हमको लाइब्रेरी देखनी है | इस बालहठ की वजह तब भी नहीं बताई माँ को...और उन्होंने भी ये सोच के इस ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया कि हो सकता है किसी मैगज़ीन वगैरह में मैंने यह शब्द पढ़ लिया होगा | असल वजह तो सिर्फ़ मैं ही जानती थी |  ‘बेवकूफ़’ का शब्द किसी तीर की तरह कहीं कलेजे में जाकर फँस गया था | इस घाव का मलहम सिर्फ़ एक ही था और वह यह कि जो मैं नहीं जानती, उसके बारे में जानूँ...| आखिरकार रोज़-रोज़ के मेरे अनुरोध और जिद के चलते एक दिन माँ-पापा मुझे शहर की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी लाइब्रेरी लेकर चले ही गए | वहाँ किताबों के अथाह भण्डार को देख कर मानो मेरी आँखें ही चुँधिया गई...| बाप रे ! इत्ती किताबें...और ये जान कर तो और भी आश्चर्य हुआ कि कोई भी चाहे तो वहाँ रोज़ आकर, चुपचाप बैठ कर कोई भी किताब पढ़ सकता है...| जितनी मन चाहे, जो मन चाहे, वो किताब...| उस दिन एक बात का अफ़सोस बेहद शिद्दत से हुआ था...हम लोग इस लाइब्रेरी के पास घर क्यों नही ले लेते...?

बहुत देर तक पता नहीं कितनी किताबों को हसरत से उलट-पुलट कर, उन्हें न पढ़ पाने के अफ़सोस के साथ मैंने बच्चो के सेक्शन से एक किताब चुन ली...| तब तक कहानियाँ तो मालूम था, पर उपन्यासों से मेरा कोई साबका नहीं पड़ा था | माँ-पापा में से किसी ने भी ध्यान नहीं दिया कि जो किताब मैंने चुनी थी वहाँ बैठ कर पढ़ने के लिए, वह असल में एक बाल-उपन्यास था | एक किनारे बैठ कर मैं उसमें ऐसा डूबी कि समय का पता ही नहीं चला | एक घंटा बीतते-बीतते माँ थोड़ा ऊबने लगी थी क्योंकि उनको घर की चारदीवारी  में, आराम से बैठ कर पढ़ना भाता था...और मैं ऐसी किताबी कीड़ा जो जंगल में भी किताब पढ़ सकती थी | उन्होंने किताब वापस रख कर घर चलने को कहा तब थोड़ी हैरानी के साथ मैंने उन्हें बताया कि जो कहानी मैं पढ़ रही थी, वो इत्ती लम्बी है कि अभी भी ख़त्म नहीं हुई...| तब जाकर अपनी ज़िंदगी में पहली बार जाना कि मैं कहानी नहीं, उपन्यास पढ़ रही थी |

हर लाइब्रेरी की तरह उस लाइब्रेरी में भी बिना मेम्बरशिप के किताब घर नहीं ले जाई जा सकती थी और इतनी इंटरेस्टिंग किताब को अधपढ़ा छोड़ के जाने के नाम पर ही मैं रुआँसी हो उठी थी, सो हार कर माँ ने वहाँ कुछ देर और रुकना मंज़ूर कर लिया | इस तरह अपनी ज़िंदगी का पहला उपन्यास, पहली बार किसी लाइब्रेरी के शांत वातावारण में बैठ कर मैंने ढाई से तीन घण्टों के बीच ख़त्म किया | उस दिन से तो उपन्यासों का ऐसा चस्का लगा कि पापा के ऑफिस लाइब्रेरी से मँगवा-मँगवा कर मैंने जाने कितने उपन्यास पढ़ डाले| कुछ उपन्यास तो मैंने बारम्बार पढ़े...और हर बार पढ़ के लगा, कुछ नया पढ़ रही | मेरी ऐसी `आल टाइम फेवरिट लिस्ट’ में बाबू देवकीनंदन खत्री का लिखा-चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता-संतति, भूतनाथ, रोहतास मठ- तो सबसे पहली पायदान पर था, जिसे मैंने कक्षा तीन की गर्मी की छुट्टियों में पढ़ डाला था...और उसके बाद से तो हर गर्मी की छुट्टी में ये सभी मेरे पास ज़रूर मिलते थे | इसके अलावा मैं शायद छठीं कक्षा में थी जब मैंने शिवाजी सामंत का `मृत्युंजय’ पढ़ा था...और कर्ण की पीड़ा से उद्वेलित होकर ज़ार-ज़ार रोई थी | कई सारे पसंदीदा लेखकों के साथ शरतचंद्र मेरे सर्वाधिक प्रिय लेखक थे | उनका कोई भी उपन्यास मैं कभी भी पढने को तैयार रहती थी | इनके अलावा बिमल मित्र का `मुजरिम हाज़िर’ , आशापूर्णा देवी का `प्रथम प्रतिश्रुति’ , बंकिमचंद्र चटर्जी का `आनंदमठ’ और `कपाल-कुण्डला’...आदि-आदि...एक लम्बी फेहरिस्त थी मेरी प्रिय किताबों की जिन्हें मैंने एक से अधिक बार पढ़ा...| स्कूल की लाइब्रेरी से मैं Enid Blyton की किताबें खोज के लाती थी | जासूसी उपन्यासों को भी पढ़ने का शौक भी मुझे उन्हीं की किताबों से चढ़ा...| एनिड ब्लाइटन की लिखी शायद ही कोई किताब हो जो मैंने छोड़ी हो...| बड़े होने पर मैंने खाली वक़्त में हिन्दी के भी कई जासूसी उपन्यास पढ़े, पर अफ़सोस की बात ये है कि कुछेक को छोड़ कर मुझे अधिकाँश में फिल्मीपना और घिसा-पिटापन ज़्यादा मिला |

कुल मिलाकर आज तक मैंने हिन्दी-अंग्रेजी की जितनी भी अच्छी किताबें पढी हैं, जिनमे से अधिकतर लाइब्रेरी से लेकर ही पढ़ी, उनके लिए कहीं-न-कहीं आज मैं अपनी टीचर मिस मैसी की भी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ...क्योंकि न उन्होंने उस दिन मुझे इस तरह डांटा होता, न मेरे बालमन ने खुद को अपमानित महसूस किया होता...और न मेरे ऊपर एक लाइब्रेरी से पहली मुलाक़ात का इतना पॉजिटिव असर हुआ होता...|

मेरे लिए तो मिस मैसी उसी कुम्हार की तरह हैं जिन्होंने (गुस्से में ही सही), मिट्टी के एक लोंदे को उठा कर तेज़ी से घूमते एक चाक पर फेंका और अनजाने ही उसे एक खूबसूरत आकार दे दिया...|   



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4 comments

  1. आपकी कहानी पढ़कर बहुत अच्छा लगा इस तरह बचपन की कहानी बताकर आपने बचपन की याद दिला दी आज अपने बचपन को याद करते हुए कह सकता हूँ की ऐसा बचपन भगवान् किसी को ना दे जब किताबें भी ऐसे समय पर ही पढ़ने को मिल पाती थी जब सभी साथी खेलने में व्यस्त होते थे तो उन्ही की किताबो से काम चला लिया करते थे और कहानी और उपन्यास की बात तो दूर की कौड़ी हुआ करती थी उपन्यास तो तब जाना जब प्रेमचंद्र जी के गोदान उपन्यास के बारे में पढ़ें।

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    1. आपकी बात से सहमत हूँ, पर शायद उन किताबों की असली अहमियत सबसे ज़्यादा आपकी निगाहों में ही रही होगी...| कहीं न कहीं ज़िंदगी के ऐसे संघर्ष भी हमारे आज को सही दिशा दे जाते हैं...|
      शुभकामनाएँ...|

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  2. Ye tumhare daant waala kissa to yaad Thai achhhe se. Tumne hi to bataya that. :)
    Aur library sun kar humko engg ki library yaad aa gayi...ussey pahle library nahi jaate the...haan lek in tumhare tarah him naasamajh nahi the ki library kya hota Thai ye jaante bhi nahi the :P

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    1. अब अगर तुम इंजीनियरिंग में जाकर लाइब्रेरी के बारे में न जानते तब तो हम कुछ भी नहीं कह पाते न तुम्हारी समझ को लेकर...😁😋
      और हम तो उस समय कितने छोटे थे, ये तो देखो भैय्यू...😀

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