सफ़र के साथी- एक

Tuesday, August 29, 2017



कभी कभी किसी इंसान को वर्षों से जानते होने के बावजूद आप उसकी क़ाबिलियत, उसकी शख्सियत और उसकी उपलब्धियों से उस तरह वाक़िफ नहीं हो पाते, जैसा कि आपको होना चाहिए या आपको लगता है कि आप हैं, पर असलियत उससे बहुत अलग होती है...|

कुछ कुछ ऐसा ही अनुभव अभी हाल ही में मुझे भी हुआ जब मैं अपनी माँ सुश्री प्रेम गुप्ता `मानी’ को मिले एक सम्मान के लिए उस समारोह में उनके साथ गई | वहीं पर श्री विनोद श्रीवास्तव, जिन्हें मैं बचपन से विनोद अंकल कहती आ रही हूँ, और जिन्होंने कविता के क्षेत्र में  कानपुर का नाम रोशन किया है, उन्हें भी सम्मानित किया गया | माँ के परिचय देने और उनके बारे में बोलने का सौभाग्य तो मुझे प्राप्त हुआ, परन्तु जब बारी विनोद अंकल की आई तो हम सब उनकी उपलब्धियों की बात सुन कर दंग रह गए | वहाँ उपस्थित मेरे जैसे कई अन्य लोग भी उनकी इस कामयाबी से लगभग अनभिज्ञ ही थे |

आज के ही नहीं, बल्कि हमेशा से होता आया है कि किसी भी क्षेत्र में दो तरह के प्रतिभाशाली लोग होते हैं- एक वो, जो अपनी हल्की सी सफलता का ढिंढोरा सब जगह पीट देंगे...और दूसरे वो, जो अपनी हर उपलब्धि को चुपचाप अपने तक ही सीमित रखते हुए बिलकुल खामोश रहेंगे | मेरी माँ और विनोद अंकल जैसे लोग इसी दूसरी कैटेगरी में शामिल होते हैं...| प्रचार-प्रसार से कोसों दूर, बस अपने में मगन रचनाशीलता में डूबे हुए लोग...|

उस दिन उस सम्मान समारोह में उनके विस्तृत परिचय को सुन कर मुझे लगा कि ऐसे चुपचाप रह कर अपना काम करने वाले लोगों को सामने लाने के लिए कुछ करना बेहद ज़रूरी है, सो आज विनोद अंकल के बारे में एक परिचय मेरी ओर से भी...|

दो जनवरी उन्नीस सौ पचपन को कानपुर में ही जन्मे और शिक्षा-दीक्षा प्राप्त किए हुए विनोद श्रीवास्तव जी का जुड़ाव अपने  पैतृक गाँव गौनहा (लालगंज, रायबरेली) से भी बहुत गहराई तक रहा|  उनकी अनगिनत यादें, चाहे वो बचपन में अभावों के बीच भी की गई शरारतें हों, या फिर युवा मन के सपने और आकांक्षाएँ...हर कुछ घूम फिर कर अपने गाँव की मिट्टी से ही जुड़ जाता है |

दो गीत संग्रहों- भीड़ में बांसुरी- और- अक्षरों के कोख से- के अलावा इनके गीत और कविताएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी छपते रहते हैं | प्रदेश और देश में होने वाले साहित्यिक कवि-सम्मेलनों में तो इनकी उपस्थिति तो जैसे अनिवार्य ही है | यही नहीं बल्कि आम जनता के बीच सराहे जाने वाले इस कवि की रचनाओं का प्रसारण अनेकों बार आकाशवाणी के लखनऊ, नई  टिहरी, जम्मू-कश्मीर, छतरपुर और आगरा केन्द्रों से होने के साथ साथ दूरदर्शन के भी लखनऊ, इंदौर तथा भोपाल केन्द्रों से भी किया गया है |

हिन्दी सेवा के लिए देश के चार राज्यों के राज्यपालों द्वारा विशिष्ट सम्मान और अनेकों अन्य पुरस्कारों से नवाजे जाने वाले श्री विनोद श्रीवास्तव आज भी  ज़मीन से जुड़े इंसान के रूप में सबसे मिलते हैं | दैनिक जागरण समूह के सहयोगी संस्थान लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी में वर्तमान में एक महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत विनोद जी अपने व्यस्त समय के बीच भी अपनी कलम के लिए समय निकाल के बस गुपचुप साहित्य साधना में जुटे रहते हैं |

उनकी कई लोकप्रिय रचनाओं में से कुछ तो ऐसी हैं, जिन्हें तकरीबन हर जगह पर श्रोताओं ने आग्रह करके सुना है, जैसे-
जो आग नहीं दिखती जल में, वह हममे हो तो बात बने...या फिर,
नदी के तीर पर ठहरे, नदी के बीच से गुज़रे ; कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती...आदि |

परन्तु उनकी कई सारी बेहतरीन कविताओं में ख़ास उनके गाँव की यादों को समर्पित यह कविता जितना उनके दिल के क़रीब है, उतना ही जब पहली बार उन्होंने यह कविता मुझे सुनाई थी, तब से यह मेरी भी बहुत पसंदीदा हो गई...| गद्य के रूप में तो मैंने कई संस्मरण पढ़ें हैं, पर एक गीत के रूप में उनकी यादों का यह सफ़र निश्चय ही लुभावना है...|
लीजिए, पेश है वो गीत...

आँगन-चौबारे-गलियारे
आँखों में हरिया गए
मंदिर-ताल, खेत-ओसारे
याद बगीचे आ गए

ट्रेन पकड़ने की तैयारी में
मन खिलता जाता था
खुल कर मौन चिहुंकता
यादों में कोई मुस्काता था

होते ही शुरुआत सफ़र की
उसके बोल लुभा गए

प्लेटफार्म पर खड़े हुओं में
`दादा’ को हम हेरते
दादा झाँक-झाँक डिब्बों में
हमें ढूँढते-टेरते

वे दिन थे जो भी सबके सब
पंख पसारे आ गए

कथा सत्यनारायण की औ’
चुहलें बेसिर-पैर की
अपनी रखें छिपा कर-
हँसी उड़ाते सारे गैर की

खाएँ पंजीरी-पियें चरणामृत
मन की मौज उड़ा गए

अल्लसुबह जाना बागों में
गिरे टिकोरे बीनना
महुए की खुशबू सी कोई
मन की खुशबू चीन्हना

गीत-कहानी बनते-बनते
रिश्ते नाच नचा गए

वीर पुतरिहा बाबा के
चरणों में मत्था टेकना
कुलदेवी की ड्योढी पर
अंतर की पीर उडेलना

फूल सरीखे स्वप्न गाँव के
बीच शहर पथरा गए...|

इस गीत की आखिरी पंक्तियों में व्यक्त दर्द क्या कहीं से आपको अपना-सा नहीं लगता...? एक गीतकार/कवि की सारी सफलता शायद इसी जनव्यापी दुखों में निहित होती है...|


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1 comments

  1. Ye waali kavita sacch mein again ki yaad dila gay I :)

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