अनामिका की आखिरी मौत

Wednesday, July 20, 2022

 साल 2020 न केवल पूरी दुनिया के लिए परेशानियों और उथल-पुथल से भरा रहा, बल्कि मेरे खुद के लिए भी व्यक्तिगत स्तर पर किसी रोलर-कोस्टर से कम नहीं था । ऐसे में प्रसिद्ध हिंदी साहित्यिक पत्रिका 'निकट' के लिए एक नई कहानी लिखने का प्रस्ताव मिलना एक सुखद हवा के झोंके की तरह साबित हुआ । उम्मीद नहीं थी कि जिस तरह के व्यथित  दौर से मैं गुज़र रही थी, उसके बीच कुछ अच्छा लिख भी पाऊँगी । पर कहानी छपने के बाद जिस तरह की उत्साहवर्द्धक पाठकीय प्रतिक्रियाएं मिलीं, उसने मन सम्हालने में बहुत बड़ा योगदान दिया ।

  


                      अनामिका की आखिरी मौत 

                                                    प्रियंका गुप्ता 


अनामिका आज मर जाना चाहती थी। किसी भी क़ीमत पर उसे आज शाम तक मरना ही होगा, वरना रात की गाड़ी से अगर मनीषा वापस आ गई...जैसा कि उसका आना तय था...तो फिर वो नहीं मर पाएगी।

ऐसा नहीं कि मनीषा को पता हो उसके मरने के प्लान का...ये तो उसका सीक्रेट था। पर उसके लौट आने पर उसका मरना इसलिए भी कैंसिल हो सकता था क्योंकि मनीषा बहुत बकबकिया थी। बिना टॉपिक के भी जो उस टॉपिक पर डेढ़ घंटा बोल ले जाए, वो शय थी वो...और अनामिका नहीं चाहती थी कि हर बार की तरह वो उसकी धाराप्रवाह बातों के बहाव में बहती हुई अपने इस सुसाइडल प्लान से दूर निकल जाए। आज उसे मरना है तो बस मरना है...।

अनामिका को कभी अहसास नहीं हुआ था कि मरने की बातें करना जितना आसान है, मरना उतना ही मुश्किल...। ऐसा नहीं है कि आपने सोचा कि चलो मरते हैं और झट से अगले पल मर लिए...। बहुत सोचना पड़ता है, प्लानिंग और प्लॉटिंग करनी पड़ती है। जाने कितना आगा-पीछा भी देखना पड़ता है, मसलन आप मरेंगे तो किस विधि से...कब मरना ज़्यादा मुफ़ीद होगा...। आपके मरने से आपके नाते-रिश्तेदार, अड़ोसी-पड़ोसी क्या-क्या क़यास लगाएँगे... क्या-क्या इल्ज़ाम धरेंगे आपकी पीठ पीछे...। मतलब आप तो टपक गए तो वो इलज़ाम आपके पीठ पीछे हो या सिर के ऊपर...ऑफिशियली उससे आपका तो कोई लेना-देना नहीं होगा, पर आपके परिवारवालों का तो होगा न...? तो ये भी देखना होगा कि आपके ऊपर जो तरह-तरह के क़यास लगाए जाएँगे, उनसे आपके घरवाले कैसे निपट पाएँगे...? निपटने लायक रहेंगे भी या किसी इल्ज़ाम या गिल्ट के बोझ तले खुद को ही निपटाने की न सोच बैठें । 

ये सब बातों पर ग़ौर करके ही आपको सुसाइड नोट तैयार करना होता है, बशर्ते आपका इरादा ऐसा कोई नोट छोड़ने का हो तो...। वैसे अनामिका का इरादा एक बिल्कुल फॉर्मल सा सुसाइड नोट छोड़ने का था...एकदम सिंपल...दो लाइन वाला- मैं अपनी मर्ज़ी से अपनी जान ले रही, इसके लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं...इसलिए मेरे घरवालों या दोस्तों को परेशान न किया जाए...। बस्स...! इतना सा लिख के नीचे अपना नाम लिख देती...या अगर मन किया तो अपने दस्तख़त भी कर देगी...आखिरी बार...।

अनामिका ने ये सब तो तय कर लिया था, इसी लिए सुबह ही ड्रावर से अपना पसंदीदा राइटिंग पैड और पेन भी निकाल कर बेड पर रख दिया था। ये पैड उसने कितने मन से खरीदा था। स्टोर में देखते ही पहली नज़र में भा गया था। सोचा था, अगर बाकी लड़कियों की तरह ज़िंदगी में किसी से कभी प्यार होगा तो उसे इसी पर प्रेमपत्र लिख के भेजेगी...पर उसकी बात सुन के ही मनीषा कितनी ज़ोर से हँसी थी...मैडम, किस ज़माने में जी रही हो...? अरे जागो, हम ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी में हैं...। तुम्हारे हिसाब से बोलूँ तो इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में पहुँच गए हैं। अब लव-लेटर लिखने जैसा बोरिंग काम कोई नहीं करता...। ज़्यादा बुज़ुर्ग बनने का मन हो तो भी मेल चलेगा, वरना वाट्सएप्प ज़िंदाबाद...। जस्ट अ फिंगर अवे... क्विक, इंस्टेंट एंड कम्पलीट फन...।

मनीषा की बात वैसे आज के ज़माने के हिसाब से एकदम ठीक थी, पर उसे कभी रास नहीं आई। पता नहीं ढेर सारी पुरानी फिल्मों का असर था या दादा की किताबों के कलेक्शन से चुरा कर पता नहीं किस दुनिया की कहानियों का प्रभाव...बचपन से उसे उनके ज़माने को अपनी दुनिया में फैनटेसाइज़ करना बेहद पसंद था |

अनामिका को पता नहीं क्यों हमेशा लगता था, वो ग़लत सदी में पैदा हो गई है | उसे सन उन्नीस सौ पचास के दशक में पैदा होना चाहिए था...या पचास न भी सही तो भी सत्तर का दशक बिलकुल परफेक्ट होता उसके लिए...| पचास की प्रॉब्लम यह होती कि जितनी बंदिशें लड़कियों पर अब भी हैं, तब उससे भी पचास गुना ज़्यादा होती...और ऐसे में अनामिका जैसी लड़की के लिए प्यार करना तो दूर, प्यार के बारे में सोचना भी शायद नामुमकिन होता | हाँ, सत्तर में बॉबी का जादू चल गया था, तो प्यार-व्यार उतना बड़ा टैबू न रहा हो शायद...| हालाँकि माँ के अनुभव इससे अलग हैं बिलकुल....| माँ का कहना है कि दुनिया चाहे जितनी भी आगे निकल जाए...चाँद पर जाए या मंगल से भी दूर किसी ग्रह पर जाकर बस जाए, कुछ बातें हैं जो लड़कियों को मानना हमेशा ज़रूरी होगा...| कुछ बंदिशें लड़कियों की भलाई सोच कर ही लगाई गई हैं, पर अब के बच्चे उन्हें अपनी आज़ादी में ख़लल मान कर उनकी अवहेलना करते हैं और बाद में पछताते और रोते हैं | इसमें भी दीगर बात ये है कि जीवन भर का रोना और पछताना भी ज्यादातर लड़कियों की ही क़िस्मत में लिखा होता है |

माँ की कुछ-कुछ बातें तो उसकी समझ में आई भी...पर अधिकतर के बारे में उसका सोचना यही है कि माँ पिछले जनरेशन की हैं और उसी नाते अपनी अगली जनरेशन को ऐसी नसीहतें देना वो अपना सामाजिक कर्तव्य समझती हैं | हो सकता है, कभी वह भी अपनी औलादों को ऐसी ही बातें समझाती...| पर औलादों की बारी लाने के लिए अनामिका को ज़िंदा रहना होगा, जबकि अनामिका तो आज शाम तक हर हालत में मरने ही वाली है |

इस समय सुसाइड नोट और मनीषा के लौट आने की चिंता से ज़्यादा अनामिका को फ़िक्र इस बात की थी कि आखिर मरने के लिए उसे तरीका कौन सा अपनाना चाहिए...| सबसे आसान तरीका तो होता, नींद की गोलियाँ खाकर सो जाओ | पर बुरा हो अब के नए रूल्स का...कितने मेडिकल स्टोर्स पर जाकर माँगा, पर कोई भी स्टोर वाला बिना प्रिस्क्रिप्शन के दवा देने को तैयार हुआ ही नहीं...और वो अकेले किस डॉक्टर के पास जाए, ये उसकी समझ में भी नहीं आया और सच मायने में उसकी हिम्मत भी नहीं पड़ी...| डॉक्टर से जाकर वो क्या बीमारी बताती...? नींद न आने की...? जबकि आजकल उलटा वो ज़रूरत से ज़्यादा सो रही...भले ही वो नींद उसके जागे रहने जैसी ही है, जिसमें उसको पूरा अहसास-सा रहता है कि उसके आसपास क्या चल रहा | हालाँकि मनीषा इसे उसका भ्रम ही बताती है, पर उसे अपने आप पर और अपने अनुभवों पर पूरा भरोसा है | एक बार तो उसे लगा था मानों उसके कमरे में ढेर सारे घोड़े और उनके घुड़सवार मौजूद हों, पर उसने इस अनुभव की बाबत किसी को कभी कुछ नहीं बताया, वरना क्या भरोसा...लोग उसे ही पागल समझते...|

अनामिका नॉर्मली वैसे भी किसी से ज़्यादा कुछ भी शेयर नहीं करती...| न दिल की खुशी, न मन का गम...| जब किसी की कोई बात नागवार भी लगती है, तो भी मुस्करा कर रह जाती | विरोध का स्वर उसके मुँह से इतना धीमा निकलता कि सामने वाला इधर-उधर नज़रें घुमा कर उस अजीब-सी आवाज़ का स्रोत ढूँढने की कोशिश करता और फिर उसे अपने कानों का बजना मान कर अपनी बात पर वापस टिक जाता | दादी बताती थी कि वो बचपन से ऐसी ही थी...एकदम घुन्नी-सी...| ताई का बेटा उसके हाथ से बिस्किट-चॉकलेट छीन कर खा जाता या उसे मौक़ा पाकर कूट भी देती, तो भी वो बस एक ‘ऐं’ की हल्की ध्वनि से अपना विरोध-प्रदर्शन करके ख़ामोश हो जाती | खैर! ये सब बातें अब किस काम की जब अनामिका आज शाम तक मर ही जाने वाली है...|

अभी तो अनामिका बस इसी उधेड़बुन में है कि मरे तो कौन विधि मरे ? कल तो मरने की जल्दी में बिना सोचे-समझे बाज़ार जाकर नायलॉन की रस्सी भी ले आई थी, पर फिर कमरे के पँखे को देख कर उसकी हिम्मत छूट गई | कौन जाने ये मरियल-सा लगने वाला पँखा उसका बोझ सम्हाल भी पाएगा या उसको लिए-दिए खुद ही शहीद हो जाएगा | वैसे भी उसके कमरे की छत इतनी ऊँची नहीं, जहाँ किसी स्टूल या कुर्सी पर खड़े होने के बाद उसको लुढ़का के इंसान खुद भी लुढ़क सके | वो तो अभी भी अगर ज़मीन पर खड़ी होकर अपने हाथ उठा कर छलाँग मारे तो खट से पँखे को छू सकती है, वो भी बिना कहीं लुढ़के हुए...| ऐसी परिस्थिति में उसने पँखे से लटकने का ख़याल एकदम ही दिल से निकाल दिया | 

अनामिका को थोड़ी कोफ़्त भी हुई...| बेकार में रस्सी खरीदने में इतनी मेहनत की | खुद पर भुनभुनाते हुए उसने रस्सी को अलगनी की तरह बालकनी में बाँध दिया | दस मिनट बाद उसने शांत मन से अलगनी की ओर देखा तो एक अनजाना सा संतोष महसूस हुआ | मनीषा से दबी ज़बान से कब से कह रही थी कि जब बाज़ार जाए तो अलगनी ले आए...| टेम्पररी तौर पर नाड़ा बाँध कर काम चला रही थी | अचानक उसे याद आया, सुबह नहा के जो कपड़े धोये थे, वो तो सूखने डाले ही नहीं...| उसके जाने के बाद मनीषा के सिर पर बोझ छोड़ कर क्यों जाए...? कपड़े फैलाते हुए उसे लगा, आज के बाद तो वो रहेगी नहीं, तो ऐसे में अगर मनीषा इस पर अपने कपड़े सूखने डालेगी, तो क्या उसे याद करेगी...? उसे पता भी चलेगा कि इस दुनिया से रुखसत होने से पहले वो उसके बारे में कितना सोच रही थी ? 

अनामिका अचानक अनमनी-सी हो उठी | उसके दुनिया से जाने के बाद भी सब कुछ वैसा ही चलता रहेगा...कहीं कुछ नहीं बदलेगा | वो हो, न हो...किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा...? हाँ, थोडा फ़र्क पडेगा भी तो सिर्फ उसकी माँ को और अगर दादी ज़िंदा होती, तो उनको...| दादी शायद छाती पीट-पीट कर रोते हुए भगवान जी से शिकायत भी करती कि उनके जाने की उम्र थी और उन्होंने बुला लिया उनकी नन्हीं-सी जान पोती को...| अनामिका को अचानक बेवजह हँसने का मन हुआ...| दादी अगर ज़िंदा होती तो कभी न रोने वाली वो मजबूत औरत दहाड़ें मार कर रोते हुए कितनी फनी लगती | माँ भी रोयेगी, पर थोड़ा धीरे...पर पापा को शायद रोने की जगह गुस्सा आएगा...और वो उस गुस्से को हमेशा की तरह माँ पर निकालेंगे...और भेजो लड़की को बाहर...| किसी से नैन-मटक्का करके धोखा खाया होगा और हमारी नाक कटाने के लिए मर भी गई...| अब भुगतो जीवन भर की बदनामी अपने माथे...| हम तो किसी को मुँह दिखाने के भी काबिल नहीं रहे |

अनामिका को कभी ये समझ नहीं आता था कि उसकी हरेक बात से पापा की नाक फटाक से कट भी जाती थी और वो हमेशा अपने मुँह छुपाने की बात कह कर भी सबसे ज्यादा देर तक घर से बाहर भी रह लेते थे | कुछ साल पहले तक तो पापा की ऐसी बातों पर वो अपना मुँह सबसे छुपा कर अपने कमरे में और दुबक कर रहने लगती थी और सबसे छुप कर बहुत रोया भी करती थी...अक्सर एकदम बेआवाज़...पर धीरे-धीरे उसने मुँह छुपाना थोडा कम कर दिया...| हाँ, बेआवाज़ रोना बदस्तूर जारी रहा...उस पर उसका कोई कण्ट्रोल ही नहीं था | उसको अगर मुँह छुपाना ही होता तो बस पापा से छुपा लेती...मुँह के साथ-साथ अपने पूरे वजूद को भी...| पापा को कुछ महसूस ही नहीं होता था...उसका वजूद होता तो भी, न होता तब तो बिलकुल नहीं...| उन्हें बस अपनी नाक, अपना मुँह सही-सलामत चाहिए होता था, जिसे वो जब चाहें, किसी के सामने भी उठाए फिर सकें...|

अनामिका को हमेशा लगता था, उसके घरवालों के पैदा होने की सेटिंग में भगवान जी थोड़ा गड़बड़ा गए...| दादी को थोड़ा देर से भेजना था, वो पुरानी होकर भी नया मॉडल लगती थी | माँ को अक्सर खुल कर साँस लेने के लिए अपनी सास की शरण में ही जाना पड़ता था | माँ भी अपने में एक अलग ही पीस थी तो पापा तो पूरे म्युज़ियम ही थे | ये उपमाएँ उसकी नहीं थी, बल्कि दादी कभी मज़ाक के मूड में होती तो कहती | उसे कभी-कभी आश्चर्य होता...जिस बेटी को सिर्फ़ बेटी होने की वजह से पापा कभी प्यार नहीं कर पाए, उसे पुराने ज़माने की होने के बावजूद दादी कैसे प्यार कर पाती थी ? एक बार अपने खोल से निकल कर बहुत हिम्मत करके उसने पूछ भी लिया था तो दादी ने उल्टा उसी के सामने एक सवाल दाग दिया था...किसी को प्यार करने से पहले अगर हमें कुछ तय करना पड़े तो क्या उसे प्यार कहना चाहिए...? वो कुछ बोल नहीं पाई थी | ऐसा नहीं था कि वो सोचती तो उसे उसका सटीक जवाब न मिल पाता, पर उसे ज़रूरत ही क्या थी जवाब देने की...जब कि वो अच्छे से समझ गई थी कि इस सवाल के खोल में लपेट कर उसे दादी ने जवाब ही दिया है...| दादी भी कहीं दूर ताकती-सी कहीं खो गई थी और वो तो बस उनकी गोदी में मुँह घुसा गहरी नींद सो गई थी | उसे नहीं लगता उससे गहरी नींद कभी वो सोई होगी...|

अनामिका को लगा, आज जब वो मरेगी तो शायद उस नींद से भी ज़्यादा गहरी नींद होगी...| किसी के आवाज़ देने या हिलाने से भी नहीं टूटेगी और न ही वो अचानक चौंक कर उठेगी ही...पसीने में तरबतर...|

अनामिका ने अचानक अपनी गोद में पड़ी अपनी हथेली को देखा...| अनजाने ही उसने मुट्ठी बाँध ली थी, जो इस समय पसीने से भीगी हुई एकदम चिकनी हो रही थी | पता नहीं क्यों जब वो सोने के बारे में सोचती है, उसकी हथेली पसीज जाती है | उसे लगता है ये कोई बीमारी है, पर किसी से पूछने से उसे घबराहट होती है | जाने कोई क्या समझे...? 

वैसे अनामिका को आम तौर पर कोई नहीं समझ पाता | मनीषा तो अक्सर खिजला जाती है...ऐसे दही जमा कर न बैठा करो हमेशा...| मुझे लगता है इस घर में मैं ही पागल हूँ जो दीवारों से बतियाती रहती हूँ...| कभी कुछ बोलोगी नहीं तो क्या मुझे सपना आएगा कि तुम्हारे मन में चल क्या रहा है ? पर अनामिका उसके गुस्सा दिखाने का बिलकुल बुरा नहीं मानती | उस बेचारी की क्या ग़लती...? अनामिका थी ही ऐसी...पूरी दुनिया में सिर्फ़ दादी ही थीं, जो उसे समझ पाती थी...वो बोले, चाहे न बोले...| 

शायद यही वजह थी कि पापा के लाख विरोध के बावजूद दादी ने उसे कॉलेज की पढ़ाई के लिए बाहर भेजने की ज़िद पकड़ ली थी | घर में कोई नहीं समझ पाया था, पर अनामिका समझ गई थी कि दादी आखिर क्या सोच और समझ कर ये फ़ैसला ले रही थीं | ताउजी का बेटा उसी साल तो पढ़ाई पूरी करके बाप-चाचा का कारोबार सम्हालने वापस घर लौटा था, जिस साल से अनामिका को नींद से चौंक कर जागने की बीमारी लगी थी | उसने भी पापा का पक्ष लिया था...दादी, घर बैठी तुम क्या जानो, बाहर की दुनिया कितनी ख़राब है जवान-जहान लड़कियों के लिए...| इसे यहीं पढ़ने दो, फिर अच्छा लड़का देख कर हाथ पीले कर देंगे | पापा ने भी ‘हाँ’ में गर्दन हिलाई भर थी कि दादी अपने चंडी-अवतार में आ गई थी...| चारपाई के पास पड़ी अपनी चप्पल हाथ में उठा कर उन्होंने जो खींच कर ताऊ के बेटे को मारी थी कि पूरा घर सन्नाटे में आ गया था | दादी की आँखों में जाने ऐसा क्या था कि उसके बाद न पापा के और न किसी और के मुँह से कुछ निकल पाया था | वो तो इन सबसे पहले ही घबरा कर अपने खोल में घुसी हुई बेआवाज़ रोये जा रही थी | इस चप्पल-काण्ड की बाबत तो माँ ने ही बताया था उसे बाद में...उसके हॉस्टल जाने की तैयारी करते समय...| 

उस बार भरे बुढ़ापे के बावजूद दादी आई थीं उसे हॉस्टल छोड़ने...और हर साल छुट्टियों में अपने साथ गाँव ले जाने के बाद कॉलेज खुलने पर वही आती रहीं...| पर अब की बार तो वो ही चली गईं और उसके लाख मना करने के बावजूद पापा ने उसे कॉलेज के आखिरी साल में हॉस्टल छोड़ के आने का जिम्मा ताऊ के बेटे को ही दे दिया | 

ताऊ का बेटा दुनिया के सामने चला तो था उसे सुरक्षित हॉस्टल पहुँचाने के लिए, पर वो यहाँ आने तक भी किसी से नहीं कह पाई कि दुनिया में सबसे ज़्यादा असुरक्षित तो वह उसी के साथ थी | माँ से विनती की थी कि पापा को किसी तरह मना लें कि अब वो अकेले भी वापस लौट सकती है, पर उससे ज़्यादा घुटी आवाज़ तो माँ के गले में परमानेंट फिट थी न...सो न इधर से कोई आवाज़ निकली, न उधर सुनी गई...| पापा ने दादी का बस इतना-सा मान रखा कि हर बार की ही तरह इस बार भी उसे लेकर गाड़ी ही भेजी, बस अब की दादी और ड्राइवर, दोनों का ओहदा बेहद कुशलता से ताऊ के बेटे ने ही सम्हाल लिया था | गाड़ी तो खैर ज़रुरत से ज़्यादा ही देर से हॉस्टल पहुँची...पर माँ के फोन पर ‘सब बढ़िया’ का आश्वासन देते ताऊ के बेटे ने फोन रखते ही उसे बहुत अच्छे से समझा दिया था कि अगर उसने किसी से भी सच्चाई बयान करने की कोशिश की तो उससे बुरा कोई न होगा...| अब उसकी रखवारी दादी रही नहीं...और बाकी किसी की औक़ात नहीं कि उसके सामने ‘चूं’ भी कर सके...| उस समय भी अपने बहते आँसुओं को रोकने की नाक़ाम कोशिश करती...अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों को सम्हालने का यत्न करती अनामिका के गले से बस एक मरियल सी हुँकारी ही निकल पाई थी | इस सारे काण्ड के बीच भी अनामिका बस ‘गें-गें’ ही कर रही थी...जैसे बरसों पहले नींद से अचानक जागते समय करती थी |

दादी कितना समझाती रही ज़िंदगी भर...विरोध करने के लिए बचपन की तरह सिर्फ़ ‘ऐं’ की टिन्नी-सी आवाज़ न निकाला करो...गला खोल कर, ऊँचे स्वर में जोर से दहाड़ मार कर चिल्लाना सीखो...वरना कभी किसी को घुटी चीखें सुनाई नहीं देती | अनामिका दादी के जाने के बाद दादी की सीख अपनाना चाहती थी, पर असफल रही...|

दादी की याद आते ही अनामिका की आँखें भर आई | जी किया दादी अगर सामने होती तो वह भाग कर जाती और उनके सीने से चिपट कर सुबक लेती | जाने से पहले एक बार दादी को जीभर कर देखने का दिल किया तो अपना लैपटॉप ऑन करके बैठ गई | मोबाइल से छुप छुप कर उसने दादी की जाने कितनी कैंडिड फोटोज खींची थी | दादी को सामने से फोटो खिंचवाना कभी पसंद नहीं आता था | कभी अगर ज़रुरत होती भी तो पहले घंटों झींकती, तब कहीं जाकर एक फोटो खिंच पाती | उसमें भी ऐसा टेंशन भरा लुक होता कि उसे बोलना पड़ता...दादी, हल्का सा मुस्कुरा दो, पैसे नहीं लगेंगे...और आप फ्री में हीरोइन भी दिखने लगोगी | दादी को हमेशा उसकी हीरोइन वाली बात पर हँसी आ जाती और वह झट से कैमरा क्लिक कर देती |

अनामिका ने दादी के नाम वाला फोल्डर खोल लिया | आज एक आखिरी बार वो दादी को देख ले इस दुनिया से जाने से पहले...कौन जाने उस दुनिया में दादी से मिलना होगा भी या नहीं...| फोल्डर में दादी अलग-अलग कामों में लगी हुई थीं...| अपने कपड़े तहाती...बालों में कंघी करती...रोटी से कौर तोड़ कर मुँह की ओर ले जाती...यहाँ तक कि गुस्से में किसी पर चिल्लाती हुई भी...| अनामिका को दादी की हरेक अदा पर फिर से प्यार आ रहा था | सहसा एक फोटो पर उसकी नज़र टिक गई | दादी ठीक उसकी ओर देखते हुए कुछ कह रही थी | अनामिका ने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने की कोशिश की, पर कुछ याद नहीं आया कि इस फोटो के वक़्त वो उससे क्या कह रही थी, जब उसी क्षण में उसने उन्हें अपनी स्क्रीन पर क़ैद कर लिया था | अनामिका ने उस फोटो को अपना वॉलपेपर बना लिया | अगर संभव हुआ तो दादी की इसी फोटो को देखते हुए वो अपनी अंतिम साँस लेगी...| उन्हीं से तो सुना था कि इंसान को अपने आख़िरी पलों में जिसका ध्यान रहता है, मरने के बाद भी वह उसके पास रह जाता है | क्या पता, ऐसे मरने पर उस दुनिया में भी वह दादी के पास ही रह पाए...|

अब शाम घिर रही थी | अनामिका को अब तो मरना ही था | पर कैसे...यह वो अभी भी तय नहीं कर पा रही थी | अपने हाथ से अपने को चाकू मार ले या ब्लेड से नस काट सके...इतनी हिम्मत नहीं थी उसमें...| ट्रेन के नीचे आने से भी उसको डर लगता था...| उस तरह मर गई तो शरीर कैसा अजीब पिच्ची-सा हो जाएगा...| गन्दा-सा...माँस का लोथड़ा भर...| खुद उसे ही सोच कर उबकाई आ रही थी तो माँ का क्या हाल होगा...? चूहा मार दवा या फिनायल का कोई भरोसा नहीं...ऊपर से सुना है उसको खाकर बहुत तकलीफ़ भी होती है |

अनामिका बहुत पेशोपेश में थी | उसे दादी की बेतरह याद आ रही थी | पर अब ज्यादा इंतज़ार नहीं करना होगा उनको भी...वो खुद जाने वाली थी उनके पास...| 

कमरे में अँधेरा घिरने लगा तो वो एकदम चौंकी...| अभी सुसाइड नोट भी तो लिखना है...ऐसे सोच-विचार में ही पड़ी रही तो मरने का वक़्त भी हो जाएगा और वो बिना कुछ लिखे चली भी जाएगी | उसने उठ कर कमरे की बत्ती जलाई और मानो एक आखिरी बार सूर्यास्त देखने के लिए बालकनी में चली गई...| ललछौंवा आसमान बेहद खूबसूरत लग रहा था | अनामिका को अचानक से दादी के साथ गाँव में देखे गए ऐसे सूर्यास्त और सूर्योदयों की याद आ गई | जाने क्यों उसे लगा, अगर अभी मनीषा आ जाए तो...?

अनामिका नहीं जानती, अगले पल क्या हुआ...| उसके सामने से दुनिया शायद बस पलटने ही वाली थी कि लगा, किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया हो...| सामने पूरे गर्व के साथ सूरज इस दुनिया से विदा ले रहा था...बिलकुल वैसा ही लाल-जोगिया जैसे सुबह की किरणों के साथ इस धरती के ऊपर तने आकाश पर पदार्पण करते वक़्त लगता है...बल्कि शायद इस समय उसकी लालिमा सुबह से भी ज़्यादा गहरी थी...ज़्यादा खूबसूरत...| रात की कालिमा चुपके से आ भले रही थी, पर दिन भर की अपनी उपलब्धियों पर दर्प से भरे सूरज की लालिमा अब भी उस कालिमा पर भारी ही पड़ रही थी | सूरज भी जानता था...रात आएगी तो ऐसी अंधियारी कालिमा भी साथ होगी, पर कितनी देर...? भोर होते ही उसे तो भागना ही होगा न...|

अनामिका ने एक गहरी साँस ली तो जैसे आसमान की लालिमा अपने पूरे तेज़ के साथ उसके भीतर तक उतरती चली गई | क्षण भर ठहर कर उसने बालकनी से नीचे देखा और कमरे में वापस आ गई | सामने मेज़ पर लैपटॉप की स्क्रीन पर दादी उसे अब भी वैसे ही देख रही थी...प्यार से...| अनामिका ने पल भर दादी को देखा और अचानक उन्हें सीने से चिपटा कर एक तेज़ चीख के साथ फूट-फूट कर रो पड़ी |

अनामिका ने आखिरकार दादी की सीख मान ही ली थी...| 

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