किसी ख़्वाब सी अधूरी...एक कहानी ये भी...
Tuesday, April 04, 2017(दादी के गिने-चुने चित्रों में से एक...मैं उनकी गोद में...)
यादें पेड़ नहीं होती जो किसी एक जगह टिकी रहें...| यादें तो हवा होती हैं, सर्र से एक तरफ से आती हैं और फुर्र से दूसरी तरफ उड़ भी जाती हैं...| उन्हें हम पकड़ तो नहीं सकते...पर अगर चाहें तो उनके साथ बहते हुए उन्हें महसूस कर सकते हैं...|
बाहर जब
गर्म हवा के थपेड़े तन को झुलसा रहे हों तो ऐसे में किसी पुरानी याद की छाँह में
बैठ कर थोड़ा सुस्ता लेने को दिल करता है...| तो भला बचपन के अलावा कौन सा ऐसा पल
होगा जब आपको बेहद सकून मिला होगा...?
हमारे आसपास बहुत सारे लोग ऐसे भी मिल जाएँगे जो मेरी बातों से पूरा इत्तेफ़ाक नहीं
रखेंगे...| उनके लिए जवानी के कुछ हसीन पल ज़िंदगी की सबसे बड़ी धरोहर होगी...|
पर आज जिनकी
याद आ रही है, उनसे मेरा बचपन और किशोरावस्था तो जुडी रही है, पर मेरे जवानी की
दहलीज़ पर कदम रखते-रखते उन्होंने अपनी उम्र की आख़िरी सीढ़ी भी पार कर ली थी...| बात
कर रही हूँ अपनी दादी की...जिनका असली नाम तो उनके माँ-बाप ने सावित्री देवी रखा
था, पर जिस दिन वे ससुराल की देहरी चढी...उस दिन अपने सामंती-ज़मींदार परिवार की
रानी बहू हो गई...|
जब से मैंने
होश सम्हाला, उनका एक ही रूप देखा...| लगभग चार फुट लंबा कद, बेहद गोरा रंग, थोड़ा
लम्बोतरा झुर्रीदार चेहरा...हल्का पोपला मुँह...माथे पर मध्यम आकार की लाल बिंदी, थोड़ी
झुकी-सी कमर और उस कमर तक लहराते सन-जैसे
सफ़ेद बाल, माँग में ढेर सारा जोगिया सिन्दूर, ज़्यादातर रेशमी साड़ी में लिपटे उस पतले-दुबले
शरीर को देख कर बस ऐसा लगता था मानों उस
पर कभी चमड़ी चढ़ी ही न हो...| कुल मिला कर उन्हें देख कर किसी को भी चाँद पर चरखा कातती बुढ़िया की याद आ सकती थी...|
होश
सम्हालते ही उनका यही रूप देखने की एकलौती वजह यही थी कि उनकी तेरह संतानों में
सबसे बड़ी संतान, मेरी बुआ के अलावा उनकी आख़िरी संतान मेरे पिता ही बच पाए थे...|
बाकियों को क्या हुआ होगा, इसकी कोई जानकारी हमे नहीं थी...| कुछ तो इस कारण कि उस
ज़माने में डॉक्टर या अस्पताल की कोई ख़ास व्यवस्थाएँ हुआ नहीं करती थी, सो शायद खुद
उन्हें भी कभी पता नहीं चलता होगा कि घर में हुई ऐसी असामयिक मृत्यु के क्या कारण
थे...| दूसरे, जन्म हो या मरण...हर बात सिर्फ भगवान की इच्छा मान कर संतोष करना ही
उन्हें सिखाया गया था, इसलिए इन बातों के
लिए घर में सवाल उठाने की तो किसी की हिम्मत भी नहीं थी...|
दादी को
मेरी नानी ने अपने बचपन से देखा था | नानी की सबसे बड़ी भाभी (यानी माँ की सबसे बड़ी
मामी) जिन्होंने नानी को एक तरह से पाला ही
था, वो मेरी दादी की छोटी बहन थी | इसलिए लाजिमी है कि नानी बचपन से दादी के
मायकेवालों से अच्छे से परिचित थी | इसलिए नानी के मुँह से ही सुना था कि दादी
अपनी जवानी में अच्छी-खासी सुन्दर हुआ करती थी |
पर मानों
बहुत आम-सी बात हो, दादी की सुन्दरता भी सामन्ती रंग में रंगे दादा की अय्याशियों
और तानाशाही पर कोई रोक नहीं लगा पाई...| अपने समय में करोड़पतियों में शुमार रईस
पिता की बेलगाम औलाद के रूप में दादा ने ज़मींदारी ख़त्म होने के बाद भी कोई काम
करना अपनी बेइज्ज़ती ही माना...| पहले घर
के हीरे-ज़वाहरातों का नम्बर लगा, दादी के शरीर के जेवर तो खैर क्या बचने थे...और
फिर अपने बिगड़े शौकों के लिए एक-एक करके ज़मीने और हवेलियाँ औने-पौने दाम पर बिकती
गई...| आख़िरी हवेली तो सिर्फ इस कारण बच गयी क्योंकि तब तक मेरे छोटे दादा ने बड़े
भाई के सामने आवाज़ उठाना सीख लिया था...| दादा शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा उन्हें
ही मानते थे, इसलिए उनकी बात इस मामले में भी मान ही गए...|
मेरे पापा
की पैदाइश से भी दस साल पहले परबाबा के गुज़र जाने के कारण दादा पर किसी का कोई वश
नहीं चलता था...| दादी उनके लिए घर के कोने में पड़े किसी सामान से अधिक कुछ भी
नहीं थी...| पर दादा मेरी दादी की आख़िरी साँस तक उनकी ज़िंदगी का ही दूसरा नाम बने
रहे...| उनको शायद घुट्टी में घोल कर पिलाया गया था- भला है, बुरा है, जैसा भी है...तेरा
पति तेरा देवता है...| सतियों की कहानियाँ उनकी आदर्श थी, सो दादा के हर अच्छे-
बुरे कामों में पूरी श्रद्धा से वे भी सहभागी बनी रही...पर मजाल है, कभी उन्हें
ज़रा भी गलत समझा हो...| दादा के अत्याचारों पर दुखी होकर कभी-कभार आँसू बहाने के
बावजूद वे उनसे मिले हर दुःख-दर्द को भी
अपने पूर्वजन्म के पापों का फल मानती रही...|
दादा के लिए
भले ही मेरा कोई अस्तित्व न रहा हो, पर दादी अक्सर मेरे लिए अपना प्यार जता ही
देती थी...| मेरी नानी की ही तरह दादी भी पाक-कला में निपुण थी | हाँ, नानी के
विपरीत दादी छुआछूत बहुत मानती थी...| दादी के कच्चे खाने यानि दाल-चावल वाली रसोई
पूरी-सब्जी या अन्य व्यंजनों वाली रसोई से बिलकुल अलग थी...| व्यंजनों वाली रसोई
में तो एक बार आप हाथ धोकर कोई खाने का सामान अलमारी से निकाल भी सकते थे, पर अगर
दाल-चावल वाली रसोई में आपका इसी तरह प्रवेश हो गया तो फिर तो उनका गुस्सा सातवें
आसमान पर होता था...| पूरी रसोई फिर से धुली जाती...और फिर इस फ़ालतू की मेहनत और
लगातार बडबडाते जाने से थक-हार कर आखिर में अक्सर वे रोने बैठ जाते थी...|
दादा के
कारण ही उस कच्ची उम्र में भी ददिहाल जाने का तो मेरा कोई चाव नहीं रहता था, पर
अक्सर जाड़ों की छुट्टी में हफ्ते-दस दिन के लिए हम लोग वहाँ जाते ही थे...| मेरे
आने की खबर सुन कर दादी पहले ही मेरी पसंद की कुछ चीज़ें बना के रख देती...जिनमे से
करोनी की बर्फी मेरी सबसे ज़्यादा फेवरेट थी...| उसके बाद किसी एक दोपहरी को दादा
के सो जाने के बाद चुपचाप वे माँ के पास बैठ जाती...अपनी एक ही ख्वाहिश बार-बार
लेकर...कि मेरी शादी वे अपनी आँखों से देख कर ही इस दुनिया से जाना चाहती हैं,
ताकि अपने आख़िरी बचे एक-दो जेवरों को वे अपने हाथ से मुझे दे सकें...| वे जेवर
उन्होंने बड़ी सावधानी से अलमारी में बने एक छोटे से तहखानेनुमा खंदक में छुपा रखे
थे...| अब ये बात और है कि उनकी ये आख़िरी ख्वाहिश भी उनके दिल में दबी जाने किन
इच्छाओं की ही तरह भगवान ने पूरी नहीं होने दी | मैं बमुश्किल चौदह-पंद्रह साल की
ही रही हूँगी, जब वे इस दुनिया से चली गई...| उनके वे आख़िरी जेवर भी दादा ने जाने
बेच दिए या उनका क्या हुआ, इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता...|
कभी-कभी जब
उनके बारे में सोचती हूँ तो सिवाय उनके लिए दुःख होने के मुझे और कुछ याद नहीं
आता...| उनकी बहुत सीमित सी यादें हैं मेरे पास...| हो सकता है पोती और बहू के संग
वे भी अपनी कुछ यादें, कुछ सपने बाँटना चाहती रही हों, पर पति की छाया बन के चलने के
उनके संस्कारों ने शायद कभी उन्हें खुद के बारे में सोचने का मौक़ा दिया ही नहीं...|
पति की इच्छाएँ ही उनकी आख़िरी मंजिल हुआ करती थी |
अपनी मौत से
चंद दिनों पहले किसी बात पर नाराज़ होकर उनपर हाथ उठाने वाले दादा की- मरो तो चैन
मिले- की चाहना भी शायद उन्होंने इसी लिए पूरी कर दी...|
1 comments
प्रियंका का गद्य भी उनके काव्य की तरह सधा हुआ होता है। संस्मरण तो इनकी लेखनी से जीवन्त हो जाते हैं। हर्दिक बधाई !!
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