यादों के झरोखे से - कुछ अपनों के मन की

Monday, September 09, 2024

विशेष- कानपुर की वरिष्ठ कहानीकार और एक बेहद विनम्र, आत्मीयता से भरपूर शख्सियत हैं- सुश्री शशि श्रीवास्तव, यानि मेरी शशि आंटी...। माँ  (प्रेम गुप्ता 'मानी') के साथ इनके संबंध दो साहित्यकारों से अधिक दो सहेलियों जैसे थे। जब दोनों बातें करती थीं, तो एक तरफ तो मकसद एक-दूसरे की साहित्यिक गतिविधियों को लेकर एक-दूसरे को उत्साहित करना होता था, लेकिन दूसरी तरफ दोनों की जाने कौन-कौन सी बातें हो जाया करती थी। सबके साथ बेहद आत्मीयता से भरी, लेकिन चुनिंदा लोगों के साथ अंतरंग हो पाने वाली मेरी माँ शशि आंटी से किसी भी चीज  को लेकर अपने मन की बातें शेयर कर लेती थीं, यहाँ तक कि कभी-कभी मुझसे या प्रांजल से किसी बात पर नाराज होने पर हमारे बारे में भी अपनी भड़ास आंटी के सामने निकालकर बाद में मुझसे एक गर्व-भरी मुस्कान के साथ कहतीं... क्या समझती हो, तुम लोग के बारे में भी शशि जी से सब कह दिया। ऐसे में मुझे अक्सर हँसी भी आती थी और अंदर से एक सकून-सा भी महसूस होता था, कि चलो...माँ के पास भी अपनी एक ऐसी सहेली है, जिनसे वो कुछ भी कह सकती हैं... मन हल्का कर सकती हैं। जहाँ तक मेरा अनुमान है, शशि आंटी का भी माँ के साथ कुछ ऐसा ही हाल था। 

आज शशि आंटी की इस पोस्ट को यहाँ लगाते हुए बहुत अच्छा महसूस हो रहा। मेरी ओर से माँ की प्रिय सखी और मेरी शशि आंटी को एक बड़ा-सा थैंक यू तो बनता ही है। 

-प्रियंका 


                  

                एक फोन कॉल से शुरू हुआ सफर

                                                                        -शशि श्रीवास्तव 

वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्णबिहारी और मानी जी के साथ 


उस दिन कौन सी तारीख़ थी और कौन सा दिन ये तो याद नहीं, पर संभवत यह अगस्त का अंतिम सप्ताह या सितंबर का पहला सप्ताह था। खैर! दिन तारीख जो भी थी, क्या फर्क पड़ता है, पर जो भी था बहुत अच्छा और यादगार था। उस ख़ास दिन क्या हुआ था। हुआ ये था कि पहली बार मानी जी से बात हुई थी, फोन पर। कथाक्रम पत्रिका में प्रकाशित उनकी कहानी मे दिए गए उनके नंबर पर बात करने से पहले मैने सौ बार सोचा कि इतनी बड़ी लेखिका हैं, पता नहीं कैसे रिएक्ट करेंगी? ठीक से बात करेंगी कि नहीं? पर फोन पर बात करने पर उधर से जो प्रतिक्रिया मिली, वो ऐसी थी मानों हम वर्षों पुराने परिचित हैं। उस दिन फोन पर ही मैंने उनसे मिलने की इच्छा जताई और जब मिले तो ऐसा लगा कभी अपरिचित थे ही नहीं। फिर तो जब-जब भी मिले, हर बार समय कम पड़ गया। क्या करते, हम घरेलू जिम्मेदारियों से बंधे थे। ख़ैर! जितना भी हमारा ये सात आठ साल का साथ था, उसमें हर रोज ना सही, तीसरे चौथे दिन तो हम कभी-कभी एक घंटा तक बात करके अपना सुख दुख बांट लिया करते थे। जहाँ आज कल हर जगह गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, साहित्य भी जिससे अछूता नहीं है। लेकिन इसके विपरीत मानी जी जब भी फोन करतीं, वे ना केवल मेरे लेखन की सराहना करतीं, बल्कि शायद मेरा मन रखने के लिये दो चार लोगों का नाम भी मेरी तारीफ करने वालो में जोड़ लेती और कहतीं कि ये फलाने, वो ढिमाके भी आपके लेखन की तारीफ कर रहे थे। और फिर मुझे ज्यादा से ज्यादा लिखने को प्रेरित भी करतीं। प्रियंका से मैगजीनों के एड्रेस भिजवातीं। और फिर हर बातचीत के दौरान कहानी भेजने की याद दिलाती रहतीं। साहित्य के अलावा हम एक-दूसरे से अपने सुख-दुख की भी तमाम बातें करके मन हल्का कर लेते।

मानी जी से मेरी ही क्या, हम सभी कानपुर वाले लेखकों की आखिरी मुलाकात 21 मई, 2023 को उनके ही घर पर हुई साहित्यिक संस्था ‘यथार्थ’ की उनकी उपस्थिति वाली आखिरी गोष्ठी में हुई थी, जहाँ उन्होंने मुझे सम्मानित करने का एक सरप्राइज़ कार्यक्रम प्लान कर लिया था। मेरे अतिरिक्त यथार्थ के हर सदस्य को इसकी जानकारी थी। यह मेरे लिए मानी जी का आत्मिक प्रेम और लगाव ही था, जिसके कारण वे मुझे यह अप्रत्याशित सम्मान देकर खुश होते हुए देखना चाहती थी।

क्या क्या बताऊं उनसे जुड़ी यादों को? कभी सोचा नहीं था कि यूं अचानक हाथ छुड़ाकर चली जाएँगी। खैर! जैसी ईश्वर की इच्छा। अब मन और आँखें दोनों भारी हो रहे हैं। अब ईश्वर से प्रार्थना है कि इस जन्म में जो उन्हें नहीं मिल सका, हर वो सुकून और शांति उस जन्म में उन्हे जरूर मिले।

 

-शशि श्रीवास्तव

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