हैसियत

Sunday, February 12, 2017


`सरस्वती सुमन' के फरवरी 2017 में छपी मेरी बालकथा- हैसियत...


संध्या अभी टॉमी को घुमाने लेकर गेट से बाहर निकली ही थी कि सहसा उसे सामने से विशाल आता दिख गया। उसको इस तरह अचानक अपनी गली में आता देख संध्या तय ही नहीं कर पा रही थी कि वह आगे बढ़े या तुरन्त वापस मुड़ कर गेट के अन्दर चली जाए। वह नहीं चाहती थी कि विशाल या उसके स्कूल का कोई भी और साथी उसे यहाँ देखे। पर जब तक वह कोई फ़ैसला ले पाती, विशाल उसके पास आ पहुँचा था।

"हैलो संध्या...कैसी हो? शाम को अपने कुत्ते को टहलाने निकली हो क्या?" कहते हुए विशाल की नज़र उस बँगले पर पड़ी, जिसके गेट से संध्या अभी-अभी बहर निकली थी,"अरे वाह! ये तुम्हारा घर है? कितना बड़ा और सुन्दर है। तुमने तो कभी बताया ही नहीं कि तुम कहाँ रहती हो। चलो, अब मुझे तो पता चल गया न, बाकी सबको भी पता चलेगा तो सभी बहुत खुश होंगे। फिर हम सब किसी दिन तुम्हारे घर भी आ सकेंगे छुट्टियों में...।"

"नहीं, प्लीज़ किसी को न बताना।" विशाल अपने उत्साह में अभी जाने और क्या-क्या बोलता कि संध्या ने उसे बीच में ही थोड़ा सख़्ती से टोक दिया,"मैं किसी को यहाँ नहीं बुला सकती, इसी लिए तुम प्लीज़ किसी को बताना भी नहीं कि तुमने मुझे यहाँ देखा है।"

अपने सख़्त लहज़े से विशाल का उतरा मुँह देख कर संध्या थोड़ा नर्म पड़ गई,"दरअसल तुम मेरे पापा की सख्तमिजाज़ी और गुस्सा नहीं जानते। उनको यह बिल्कुल पसन्द नहीं कि स्कूल के अलावा मैं अपने किसी भी दोस्त से मिलूँ। तुमने तो गौर किया होगा न कि मैं किसी ऐसे समारोह या जन्मदिन वगैरह में कभी नहीं आती, जो स्कूल के बाहर हमारे दोस्त करते हैं। बस इसी लिए मैं नहीं चाहती कि किसी को भी मेरे घर का पता मिले।"

संध्या की इस सफ़ाई से विशाल थोड़ा सामान्य हो गया। उसने संध्या को ढांढस देते हुए कहा,"निश्चिन्त रहो, मैं किसी को भी नहीं बताउँगा।"

विशाल की बात से संध्या बिल्कुल निश्चिन्त हो गई। विशाल सिर्फ़ उसका सहपाठी ही नहीं था, बल्कि एक बहुत अच्छा दोस्त भी था। पढ़ाई के अलावा अन्य क्षेत्रों भी वह उसकी बहुत मदद करता था। वह अक्सर उसे नई-नई जानकारियाँ देता रहता था और उसकी किसी भी परेशानी में सदा उसकी हरसम्भव सहायता करने को तैयार रहता था।

विशाल तो अपने रास्ते चला गया, पर संध्या उदास हो गई। न चाहते हुए भी उसे विशाल से झूठ बोलना पड़ा था। वो आखिर कैसे उसे पता चलने देती कि यह आलीशान बँगला उसके पिता का नहीं, बल्कि उनके मालिक का था। उसके पिता तो इस बँगले के चौकीदार थे और उसकी माँ यहाँ की महाराजिन...यानि कि खाना बनाने वाली। वह तो अपने माता-पिता के साथ इसी बँगले के पिछवाड़े बने सर्वेन्ट्स क्वार्टर में रहती थी। यह तो संध्या का सौभाग्य था कि मालिक और मालकिन बहुत सहृदय और परोपकारी थे। जब उनको यह पता चला था कि संध्या पढ़ाई में बहुत होशियार थी और उसके माता-पिता उसे किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, तो उन्होंने न केवल उसकी पढ़ाई-लिखाई का सारा भार अपने ऊपर ले लिया बल्कि उन तीनों द्वारा कोई अन्य कार्य करने पर उसका पैसा भी अलग से देते थे। इसी क्रम में वह उनके टॉमी को भी रोज़ सुबह शाम टहलाने ले जाती थी, जिसके बदले हर महीने वे उसको अच्छी-खासी रकम दिया करते थे।

संध्या अपनी कक्षा के सभी बच्चों के बीच अपनी तीव्र बुद्धि और अच्छे व्यवहार के कारण बहुत लोकप्रिय थी और वह नहीं चाहती थी कि उसकी आर्थिक स्थिति और असलियत जान कर उसके वे सब दोस्त उससे नाता तोड़ लें। वह उनमें से किसी की भी दोस्ती खोना नहीं चाहती थी।

कई दिन यूँ ही बीत गए। अपने वायदे के मुताबिक विशाल ने किसी को कुछ भी नहीं बताया था। संध्या अब इस बात को लगभग भूल ही चुकी थी कि सहसा एक सुबह स्कूल पहुँचते ही विशाल बेहद प्रसन्नतापूर्वक उसके पास आया,"जानती हो संध्या, अब तुमको अपने पापा से अपने किसी दोस्त को मिलने के लिया डरना नहीं पड़ेगा। कम-से-कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं। मैं इस रविवार खुलेआम तुम्हारे घर आ रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे पापा ने ही बुलाया है।"

संध्या कुछ भी समझ नहीं पा रही थी। विशाल यह क्या कह रहा था? उसे यूँ आश्चर्य से मुँह ताकता देख विशाल खिलखिला कर हँस पड़ा,"नहीं समझी न कुछ? अरे बुद्धू! मेरे और तुम्हारे पापा एक-दूसरे को अपने बिजनेस के सिलसिले में बहुत अच्छी तरह जानते हैं। मुझे भी पहले यह बात नहीं पता थी। पर कल जब पापा ने बताया कि आने वाले इतवार को हमको किसी के यहाँ रात के खाने पर चलना है, और पते के रूप में तुम्हारे बँगले का पता बोला, मैं तो झट से समझ गया कि पापा ज़रूर अंकल की बात कर रहे। मैने सोचा तो यह था कि उस दिन ही तुमको सरप्राइज़ दूँगा, पर खु्शी के मारे रहा नहीं गया, सो बता दिया।"

संध्या का दिल धक्क से रह गया। उसका उतरा मुँह देख विशाल का मन बुझ-सा गया। वह और संध्या तो इतने अच्छे दोस्त हैं, इस नाते यह ख़बर सुन कर तो उसे खुश होना चाहिए था पर यहाँ तो वह बस ‘अच्छा’ और ‘मुझे कुछ काम करना है,’ कह कर अपनी किताब पर गर्दन झुका कर बैठ गई। वह समझ नहीं पा रहा था कि अचानक यह इतना अजीब बर्ताव क्यों कर रही।

उस पूरे दिन संध्या और विशाल, दोनो का मन उखड़ा-उखड़ा रहा। छुट्टी में भी दोनो एक दूसरे से विदा लिए बिना अपनी-अपनी बसों में बैठ कर चले गए। घर पर दोपहर में माँ से भी उसका यह बर्ताव छिपा नहीं रहा। उन्होंने बहुत ज़ोर देकर पूछा तो संध्या और ज़्यादा बात को अपने मन में न रख सकी और माँ को सारी बातें सच-सच बता दी। सुन कर माँ हतप्रभ रह गई। उन्हें सपने में भी यह गुमान नहीं था कि संध्या इस तरह अपनी असलियत से शर्मिन्दगी महसूस करेगी। पर सब कुछ जान कर भी वे उसे बिना कुछ भी मशवरा दिए चुपचाप वहाँ से चली गई।

उस पूरी रात संध्या बिल्कुल भी सो नहीं पाई। जाने क्यों उसे पूरा यक़ीन था कि जब उसके दोस्त उसकी सच्चाई जानेंगे, वे उससे नफ़रत किए बिना नहीं रहेंगे। जाने कितनी देर यूँ ही सोचते-विचारते आखिरकार उसने एक उपाय ढूँढ ही लिया। हल मिलते ही उसका मन शान्त हो गया और अगले ही पल वह एक गहरी नींद में सो गई।

दूसरे दिन सुबह स्कूल पहुँचते ही वह सीधा विशाल के पास चली गई और उससे अनुरोध किया कि वह बाकी के बच्चों को भी इकठ्ठा कर ले,"मैं आज तुम सबसे कुछ कहना चाहती हूँ," अपने सब दोस्तों को अपने आसपास देख कर संध्या ने बड़े शान्त भाव से अपनी बात शुरू की," आज मैं आप सबके सामने अपनी एक ऐसी ग़लती स्वीकारने आई हूँ, जो मुझसे जानते-बूझते हुई। सारी बातें सुन कर आप सब मुझे जो भी सज़ा देंगे, वह मुझे स्वीकार्य होगी।" कह कर संध्या ने शुरू से लेकर आखिर तक सारी बातें सच-सच अपने दोस्तों के सामने कह डाली। अन्त में वह यह स्पष्ट करना नहीं भूली कि उसे अपने माता-पिता पर बेहद गर्व है, जिन्होंने ग़रीब होने के बावजूद मेहनत-मशक्कत करते हुए भी उसे अच्छी शिक्षा दिलाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। साथ ही यह भी, कि वह अपने मालिक-मालकिन की भी बहुत आभारी है, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के उसे उसके सपने पूरे करने में दिल खोल कर मदद की है।

संध्या की सारी बातें सुन कर कुछ पलों के लिए पूरी कक्षा में एकदम सन्नाटा हो गया। संध्या की आँखें डबडबा आई। उसके पास दोस्ती की जो दौलत थी, आज वह भी उससे छिन गई। आज वह सच में ग़रीब हो गई। बेहद भारी मन और कदमों से वह अपनी सीट तक जाने के लिए मुड़ी ही थी कि सहसा ताली बजाते विशाल की आवाज़ सुन कर ठिठक गई,"दोस्तों, मुझे मालूम था कि मेरी यह दोस्त एक-न-एक दिन अपने बड़े दिल और मजबूत हौसलों का परिचय दुनिया को ज़रूर देगी। माना इससे जानते-बूझते एक ग़लती हुई है, पर इसका इरादा किसी को भी किसी तरह का नुकसान पहुँचाना नहीं था। अगर इससे ग़लती हो भी गई तो क्या हुआ? ग़लती इंसान ही करते हैं न? हमको इसकी एक ग़लती देखने की बजाय इस बात की ओर गौर करना चाहिए कि अपनी ग़लती को यूँ खुल कर दूसरों के सामने स्वीकारने में बहुत हिम्मत और हौसले की ज़रुरत होती है। हम यह कैसे भूल जाएँ कि किसी की असली हैसियत उसके कर्मों से पहचानी जानी चाहिए, न कि उसकी ग़रीबी-अमीरी से। आज मेरे मन में तो अपनी इस बहादुर और ईमानदार दोस्त के लिए सम्मान और भी बढ़ गया है, बाकी आप लोग जैसा उचित समझें, वैसा करें।"

संध्या को विशाल की बात का असर देखने के लिए एक पल की भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। पूरा कमरा तालियों के शोर से इस तरह भर गया कि उसमें पहले पीरियड की सूचना देते घण्टे की आवाज़ भी किसी को सुनाई न दी।

संध्या को आज पता चल गया था, असली हैसियत और सच्ची दोस्ती किसे कहते हैं...।

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2 comments

  1. कहानी बहुत अच्छी लगी प्रियंका . सहज सरल और एकदम स्वाभाविक .

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