कुछ ख़्वाब...कुछ ख्वाहिशें...(निवेदिता-अमित) मेरी नज़र में...
Tuesday, January 19, 2016इधर नए साल की शुरुआत हुई और उधर हाथों में `कुछ ख़्वाब, कुछ ख्वाहिशें’ थी...| निवेदिता-अमित श्रीवास्तव का पहला संयुक्त कविता संग्रह...| किताब पढने से पहले कुछ देर बैठी बस सोचती रह गयी...पिछले साल जाने कितने ख़्वाब देखे...इस नए साल के आने के साथ साथ कितनी नई ख्वाहिशों ने सिर उठा कर अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी है, क्या इस किताब में ऐसी ही कुछ ख़्वाबों...कुछ ख्वाहिशों की तामीर हुई होगी...?
मन तो बावरा होता है वैसे भी...सो इससे पहले कि
वो अपने देखे ख़्वाबों-ख्वाहिशों के फेर में पड़ता, मैंने किताब खोल ली...| शुरुआत
में ही कवि-द्वय ने लिख दिया...कविताओं का सृजन मन को तरल भी करता है और सरल
भी...सो इन सहज-सरल शैली में लिखी गयी रचनाओं संग बहने के लिए मैं भी तैयार हो
गई...|
पहले हिस्से में निवेदिता जी की 45 कविताएँ हैं...| पहली कविता ही आपको बरबस
अपनी ओर खींच लेगी, क्योंकि मानो ये कविता खुद कह रही हो कि एक कवि के लिए उसकी
कविता आखिर है क्या...|
सोचती हूँ
आज
उन शब्दों को
स्वर दे दूँ
जो यूँ ही
मौन हो
दम तोड़ गए
और
अजनबी से
दफ़न हो
सज रहे हैं
एक
शोख मज़ार सरीखे
एहसासों के दलदल में...|
निवेदिता जी की कविताएँ विभिन्न मनोभावों को
खूबसूरती से कागज़ पर उकेरी गईं दास्तानों सरीखी लगती हैं...| उनकी रूमानी कविताएँ
भी मन भिगो जाती हैं...| जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते होंगे (यहाँ मैं उन्हें
जानने की बात कर रही...पहचान तो बहुतों से
होती है न...) उन्हें यह बहुत अच्छी तरह महसूस हुआ होगा कि एक बेहद हंसमुख,
चुलबुले से रूप के पीछे बहुत गहरे भीतर एक बेहद भावुक और संवेदनशील इंसान मौजूद
है...| वे अपनो को प्यार बांटती हैं तो उन्हीं अपनों का प्यार पहचानती भी
हैं...तभी तो कह देती हैं न...
सबसे अलग हो तुम
जानते हो क्यों
सब देखते हैं
लबों पर थिरकती हँसी
स्वर में बोलते अट्टहास
पर तुम
तुम तो देख लेते हो
इन सबसे परे
मेरी आँखों में तैरती नमी...|
जी जाता है वो जिसे कोई लबों के पीछे यूँ छिपे
आँसू अपनी हथेलियों में सोख लेने वाला मिल जाए...| मुझे नहीं पता कि पुरुष पाठकों
को यह कविता कितना लुभाएगी, पर हर स्त्री इसमें खुद को देखने की कोशिश ज़रूर करेगी...|
`मेरी आँखें सोना चाहती हैं’ शीर्षक कविता शायद किसी
को थोड़ी निगेटिव लगे, पर मुझे यह बहुत मार्मिक लगी...| माँ वैसे तो सभी के लिए
बहुत अनमोल होती है, पर एक बेटी शायद जितनी करीब अपनी माँ के होती है, उतना किसी
और के नहीं...| एक बेटी के दिल के भावों को शब्द देती यह कविता मुझे तो बहुत छू
गयी...|
अगली कविताएँ `तुमने कहा था’, `आइसक्रीम सा
जीवन’ बहुत अच्छी हैं, पर जाने क्यों `सीता की अग्निपरीक्षा’ शीर्षक कविता मुझे
उनकी सब कविताओं पर भारी लगी...| मेरी सबसे प्रिय कविता कह सकती हूँ मैं इसे...| जब
कभी भी रामायण का ध्यान आया, सीता की मनःस्थिति के बारे में सोचने से खुद को कभी न
रोक पाई...| जाने कितनी सदियाँ बीत गई , पर
आज भी कहीं-न-कहीं, कोई न कोई सीता किसी अग्नि-परीक्षा से गुज़रती ही है...|
कोई ज़रूरी नहीं कि हर किसी के भाग्य में कोई मर्यादा पुरुषोत्तम हो ही, पर हर
स्त्री में यह समाज सीता का ही प्रतिरूप खोजता है...| सबसे ज्यादा सोचनीय बात यह
है कि जो खुद सीता थी, उसे भी समाज ने नहीं बख्शा...तो एक आम नारी को किस प्रकार
बरी करेगा भला,,,? इस लम्बी कविता में निवेदिता जी ने जो भी सवाल उठाए हैं, उनमे
से हरेक सवाल एक औरत इस समाज से पूछना ही चाहती है, पर फिर वही भय...लोग क्या कहेंगे...जुबान
पर ताले जड़ देता है...| वे कहती हैं-
तो हाँ, ये पाप तो राम ने भी किया
तब भी अग्निपरीक्षा सिर्फ और सिर्फ
सीता की !
एक औरत कभी यूँ भी उदास हो जाती है, जब इस
दुनिया-समाज को उसकी उदासी की कोई वजह
दिखाई ही नहीं देती...| औरत के कोमल मन को पहचान पाना इतना आसान कहाँ होता है...?
तलाश रही हूँ अर्थ उस लम्हें का
जब तुमने अपने बढ़ते हुए क़दमों को रोक
जतला दिया था मान अपने साथ चलने का
बताओ उदासी का भी कोई कारण होता है
क्या !
निवेदिता जी ने रूमानी अहसास लिए हुए भी कई सारी
कविताएँ रची हैं, पर उसमे भी एक अलग सा दर्द है...| अगर मैं कहूँ कि निवेदिता जी
शब्दों के पंखों पर संवेदना रचती हैं, तो शायद गलत नहीं होगा...| `क्यों आते हो’
कविता में ऐसी ही दर्द भरी संवेदना पाठक का मन भी गीला कर जाती है...| उनकी
संवेदनाएं जितनी गहरी हैं, चाहतें और ख्वाहिशें उतनी ही छोटी और मासूम...|
इस संग्रह का अगला हिस्सा अमित जी की 41 कविताओं से सजा हुआ है...| जाने मैं सही हूँ या गलत, पर अमित जी मुख्यतया रोमांस
के रचयिता हैं...| लेकिन उनकी रूमानी कविताओं में भी कहीं कोई दोहराव नहीं है, यह
सबसे अच्छी बात लगी मुझे...| उनकी कविताओं में भी एक छुपा दर्द झलकता है, जो उनके
संवेदनशील होने का परिचायक है...| उनकी कविताओं में एक कशिश है जो बरबस अपनी ओर
खींच लेती है...| `विद्योत्तमा, लौट आओ फिर एक बार’ में यह कशिश बड़ी शिद्दत से
झलकती है...| कुछ कविताओं में उनके अन्दर का चुलबुलापन जैसे किसी झिरी से झाँकने
लगता है...| `इंतज़ार’ शीर्षक कविता इसका बहुत अच्छा उदाहरण होगा |
अमित जी की इतनी सारी कविताओं में से मेरी सबसे
ज़्यादा पसंदीदा है- स्मृति की एक बूँद मेरे काँधे पे-
उस रात
काजल
लगी
आँखों
में
जो एक
आँसू
टपका
था तुम्हारा
मेरे
काँधे पे
वक्त
के साथ
आँसू
तो सूख गया
पर
काजल का
वो एक
कण
ठहरा
हुआ है वहीं
अब भी
मेरे
काँधे पे
बन एक
तिल छोटा-सा
रखता
है जब कभी
हथेली
उसपे
लगे
रूह में जैसे
उतर आई
हो तुम |
अमित जी की कुछ अन्य कविताओं में अलग-अलग भाव भी उतनी ही खूबसूरती से
मौजूद हैं | कभी वे पिता हैं, तो कभी एक दोस्त भी...|
अंत में बस इतना कहना चाहूँगी, निवेदिता-अमित के
सारे संयुक्त ख़्वाब, सारी ख्वाहिशें हमेशा
पूरी हों, और वो सफलता की ऊँचाई चढ़ते जाएँ...आमीन !
कुछ ख़्वाब कुछ ख्वाहिशें (निवेदिता-अमित)
हिन्द युग्म,
हौज खास, नई दिल्ली
मूल्य: रु 100
6 comments
भैया-भाभी की इतनी सुन्दर कवितायें हैं इसमें..और तुमने इतने अच्छे तरीके से लिखा है ये पोस्ट. इस किताब को तो बेस्टसेलर बनना ही चाहिए. हम भी सोचे हैं लिखने के लिए. जल्दी ही.
ReplyDeleteसोचे तो थे कि तुम्हारे इस पोस्ट का ही कॉपी-पेस्ट कर लेंगे, लेकिन उसके बाद भाभी क्या हाल करेंगी मेरा ये तो समझ ही रही होगी..तो नो कॉपी-पेस्ट. ओरिजनल लिखना है :)
क्या बोलूँ ... मेरे मन को समझा इसलिए शुक्रिया ... या फिर इतना प्यारा लिखा इसलिए ... चश्मेबद्दूर !!!
ReplyDeleteअभिषेक & प्रियंका ,
ReplyDeleteकिताब पर नाम जरूर तुम्हारे भैया - भाभी का लिखा है ,पर सच पूछो तो इसके लिये प्रेरित तो तुमने ही किया था .... और हां अभी बाबू अपनी भाभी से डरना तो चाहिए ,है न ..... :)
हमें भी ये समीक्षा करने ही नहीं आता .........सुन्दर समीक्षा !
ReplyDeleteइन ख़्वाबों और ख्वाहिशों को पूरा होने में एक दुआ हमारी भी है......
ReplyDeleteसुन्दर समीक्षा लिखी है प्रियंका....
अनु
सटीक और सार्थक समीक्षा । बस अब किताब मंगाते हैं ।
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