चलो...कुछ तमाशा हो जाए...
Wednesday, January 20, 2016कल यूँ ही बैठे-ठाले दिल किया, कई दिनों से पेण्डिंग पड़ी कुछ मूवी मे से कोई एक देख ही लूँ...। कम्प्यूटर में मूवी फ़ोल्डर खोला, सामने ‘तमाशा’ थी...। इस फ़िल्म के लिए मैने लोगों के मिक्स्ड रिव्यू पढ़े थे...। किसी को बेहद पसन्द आई, किसी को बेकार लगी, और कुछ ने इसे औसत का दर्ज़ा दिया था...। निर्णय मुझे खुद को ही करना था...देखूँ या नहीं...। सो फ़िल्म देखने का निर्णय कर मैने पेन-ड्राइव में मूवी ट्रान्सफ़र की...और टी.वी में लगा सामने बैठ गई...।
शुरुआत में ही समझ आ गया था कि फ़िल्म थोड़ा ‘हट के’ होगी...। लेकिन अगर सच कहूँ तो थीम पूरी तौर से हट के थी भी नहीं...। ये तो वही जाने कितनी सदियों से चलती आ रही खोज है, जिसे आधुनिक रूप देकर फ़िल्म हमारे सामने पेश कर दी गई है...। अपने अन्दर के असली ‘मैं’ की खोज...। उस असमय ही मार दिए गए ‘बचपन’ की खोज...। उस पूरी फ़िल्म के दौरान रह रह कर मुझे शेक्सपियर की बात याद आ रही थी...यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सब यहाँ अपना-अपना क़िरदार निभाने आए हैं...। पर्दा गिरा...रोल ख़त्म और हम रंगमंच से रुख़्सत...।
हम जब अपनी उम्र के बेहद मासूम दौर में होते हैं, शायद तभी अपने असली ‘मैं’ के साथ होते हैं...। समय बीतने के साथ जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, समझदार होते जाते हैं, हमारे अन्दर का वो ‘मैं’ तिल-तिल कर अपनी मौत मरना शुरू कर देता है...। और सबसे मज़े की बात...उस ‘मैं’ के यूँ ख़त्म होने का कहीं कोई मातम...कोई अफ़सोस तक नहीं होता हमको...। हम समझदार होने की प्रक्रिया में इस कदर डूबे होते हैं कि जान ही नहीं पाते कि हमारी सोच-समझ सब कुछ किसी और की देन है...। क्या अच्छा है, क्या बुरा...यह हम तय नहीं करते, हमारे आसपास के लोग तय करते हैं...। हमारा परिवार, हमारे बुजुर्ग, हमारा समाज...हम दुनिया इनकी नज़रों से तौलते-परखते हुए कब अनजाने ही उनके फ़ैसले पर अपनी मोहर लगाने लगते हैं, पता ही नहीं चलता...। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ़ हमारे छुटपन में ही होती है, जब शायद हम बहुत से फ़ैसले लेने में खुद को असमर्थ पाते हैं...। ये दुनिया हमारे लिए नई जो होती है...पर उसके बाद...?
अपने अन्दर के ‘मैं’...अपने अन्दर के बच्चे को मारने की प्रक्रिया हमारे बड़े होने के साथ शुरू हो जाती है...। ऐसे न बोलो...लड़की हो तो ऐसे ज़ोर से न हँसो...भागो नहीं...कूदो नहीं...खेलो नहीं...। रिमझिम बारिश में फुहारों में भीगो नहीं...नज़रें झुका के रहो...जो मन में है, ख़बरदार उसे ज़बान दी तो...वगैरह...वगैरह...। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ लड़कियों पर ही बन्दिश है, बहुत सारी रोक-टोक तो लड़कों पर भी लागू होती है...। ज़िन्दगी के छोटे फ़ैसले खुद लेने की कौन कहे, ज़्यादातर बड़े फ़ैसले भी हम खुद से नहीं लेते...। जिनसे ज़िन्दगी बदल जाए, वो भी नहीं...।
इस बात में बहुतों का यह भी तर्क होगा कि अगर कोई और बताने-समझाने वाला न हो, तो हम शायद बहुत से ग़लत फ़ैसले भी ले लेंगे अपने जीवन में...। मानती हूँ यह बात...। पर अब भी मेरा सवाल तो वहीं-का-वहीं...सही क्या है, ग़लत क्या है, इसका फ़ैसला कौन लेगा...? जो मेरे लिए सही...वो आपके लिए ग़लत...। जो आपकी नज़रों में सही, कौन जाने मेरी निगाह में वही दुनिया का सबसे ग़लत फ़ैसला हो, जो आपने अपने लिए चुन लिया...।
सोच के देखिए ज़रा...अगर सिद्धार्थ घर छोड़ने का फ़ैसला न लेते, तो गौतम बुद्ध कौन बनता...? कृष्ण गोवर्धन पर्वत को तर्जनी पर न उठाते तो इन्द्र को चुनौती कौन देता...? एक छोटी-सी लड़की दुनिया के नियम के अनुसार घर बसा लेती तो मदर टेरेसा का ममत्व किसे पता चलता...? मन्नू लक्ष्मीबाई बनने के बावजूद अगर सात पर्दों में रह जाती तो ‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी’ कह कर अंग्रेजों को कौन ललकारता...? भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला खाँ सरीखे लोग अगर बस नून-तेल-लकड़ी के चक्कर में रहते तो आज भी हम शायद गुलामी का अभिशाप झेल रहे होते...। सम्पूर्ण सिंह कालरा अगर ‘मेरे घर मिरासी पैदा हो गया’ सुन कर चुपचाप अपने ‘मैं’ को मार लेते तो आज गुलज़ार की बेहतरीन नज़्मों का आनन्द हम-आप कैसे उठाते...?
बात सिर्फ़ अपने ‘मैं’ को बचाने भर की नहीं है...बात हमारी असल खुशी की है...। ज़िन्दगी की सारी आपाधापी...सारी भाग-दौड़ हम जिस खुशी की तलाश में करते हैं, जीवन के अन्तिम पलों में हम पाते हैं, असल में हम कभी खुश थे ही नहीं...। हम एक भ्रम में जीते रहते हैं...। हम खुश हैं क्योंकि हमारे आसपास के लोग हमसे...हमारे काम से...हमारे जीवन से संतुष्ट हैं...। वे जैसे व्यवहार की अपेक्षा हमसे करते हैं, उस तरह के व्यवहार से वे सन्तुष्ट हैं...इस लिए हम भी खुश हैं...। पर असल में हम सब खुश नहीं होते...हम संतुष्ट होते हैं...। हम खुद भूल चुके होते हैं कि हम कभी अन्दर से कैसे थे...। सबके लिए जीते-जीते हम खुद के लिए जीना भूल जाते हैं...।
सच कहिएगा...दुनिया के नियम, रीति-रिवाज़, तौर-तरीके अपनाते-आजमाते हुए क्या कभी आपने ज़िन्दगी के किसी एक खूबसूरत से लम्हें में...उस एक पल के लिए सारे बन्धनों को ताक पर रख कर सिर्फ़ अपने हिसाब से अपनी खुशी जाहिर करने की कोशिश की है...? नहीं न...? अक्सर बारिश के बहते पानी में कागज़ की नाव चलाने की ख्वाहिश क्या इस कारण नहीं दबा ली है कि उम्र के ऐसे मोड़ पर इस तरह बचपना करते हुए आपके आसपास के लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे...? बेहद तकलीफ़ और दर्द से गुज़रने के बावजूद आपने चुपचाप अपने आँसू क्या सिर्फ़ इस लिए नहीं रोक लिए कि आपको यूँ कमज़ोर पड़ते देख कर लोग क्या कहेंगे...? पर्फ़ेक्ट बनने के चक्कर में हम-आप बेतरतीबी का मज़ा लूटना भूल चुके हैं...। समय बर्बाद होने के डर से हम फ़ुर्सत के पल एन्जॉय करने से घबराते हैं...। हम बुद्धिमान होने की कोशिश में बेवकूफ़ी करने से कतराते हैं...। नतीज़ा...? अन्तिम साँसों तक हम समझ नहीं पाते कि साँस लेने और ज़िन्दा रहने में क्या फ़र्क था...और जब तक समझ आता है, रंगमंच का पर्दा गिर चुका होता है...।
‘तमाशा’ एक फ़िल्म के रूप में मुझे कैसी लगी, यह मैं नहीं बताऊँगी...। बताना चाहिए भी नहीं...क्योंकि यह तो आप तय करेंगे...अपने ‘मैं’ से पूछ कर...। खुद के साथ किसी सफ़र पर निकलने के लिए इतनी सी शुरुआत, और वो भी बिना किसी तमाशे के, बनती तो है न...?
2 comments
ReplyDeleteमेल से प्राप्त एक आम गृहणी और पाठिका सुश्री छाया श्रीवास्तव की प्रतिक्रिया :
तमाशा मूवी से शुरू की हुई बात को शेक्सपियर के कथन से गुज़ारते हुए, ज़िन्दगी को एक रंगमंच के रूप में प्रस्तुत करते हुए तुमने उसकी पूरी विवेचना कर डाली ।
बहुत अच्छी भाषा में सिर्फ अपने ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोगों के मन के उदगारों को व्यक्त किया है । इसके लिए जितनी भी तारीफ की जाए कम है ।
ReplyDeleteमेल से प्राप्त एक आम गृहणी और पाठिका सुश्री छाया श्रीवास्तव की प्रतिक्रिया :
तमाशा मूवी से शुरू की हुई बात को शेक्सपियर के कथन से गुज़ारते हुए, ज़िन्दगी को एक रंगमंच के रूप में प्रस्तुत करते हुए तुमने उसकी पूरी विवेचना कर डाली ।
बहुत अच्छी भाषा में सिर्फ अपने ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोगों के मन के उदगारों को व्यक्त किया है । इसके लिए जितनी भी तारीफ की जाए कम है ।