मैं घर लौटा- (श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’)...मेरी नज़र में
Friday, January 15, 2016
मैं घर लौटा- (श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’)...मेरी नज़र में
जाने कितने युग बीते की बात है मानो...जब क्रौंच-वध की पीड़ा ने वाल्मीकि को इतना उद्वेलित किया कि बरबस उनके मुख से सृष्टि की पहली कविता निकली थी-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत् क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ।।
सहृदय व्यक्ति के अन्दर एक कवि छुपा होता है...और बात जब श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी यानी कि मेरे काम्बोज अंकल की हो, तो यह बात सौ प्रतिशत सही साबित होती है ।
काम्बोज अंकल से बिना मिले भी जितना मैं उन्हें जान पाई हूँ, उस हिसाब से वे न केवल बेहद सहृदय हैं, बल्कि निज-स्वार्थ से परे रह कर एक सच्चे साहित्य साधक भी हैं...। जितनी शिद्दत से लघुकथा के आकाश पर उनकी रचनाएँ अपनी चमक बिखेर रही, उतनी ही सोंधी सुगन्ध उनकी पद्य रचनाओं ने भी साहित्य उपवन में बिखेर रखी हैं...। हाइकु, तांका, सेदोका, चोका आदि जापानी काव्य-शैलियों को भारत में एक सम्मानित मुक़ाम दिलाने में इनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता, परन्तु इन विधाओं से इतर आज मैं उनकी कविताओं की बात करना चाहती हूँ...।
फुटकर रूप से तो दसियों बार इनकी कविताएँ पढ़ कर मैं हमेशा सोचती थी...काश! ऐसी कविताएँ मेरी कलम भी रच पाती...पर पिछले महीने जब डाक से उनका सद्य-प्रकाशित कविता संग्रह- मैं घर लौटा- मिला, तो लगा,जैसे कोई तराशा हुआ हीरा मेरे हाथों में आ गया हो...। दुर्भाग्यवश उन पलों में मैं बेटे की खराब तबियत से जूझ रही थी, सो जब अंकल ने हाल पूछने के लिए फोन किया, मैने बिना पूछे ही बोल दिया...आपकी यह नायाब किताब हाथ आ गई है, पर मानसिक रूप से अशान्त होने के कारण अभी पढ़ कर इससे मिलने वाले आनन्द से खुद को वंचित नहीं करना चाहती...। हमेशा की तरह अंकल की स्नेहासिक्त हँसी कानों में पड़ी थी और सारा क्लान्त मन एकदम से शान्त हो गया था...। वैसे भी जाने कितनी बार बेहद अशान्त-से पलों में अंकल की पॉज़िटिव बातों ने...उनके दिए मानसिक सम्बल ने मुझे बड़ी मजबूती से उबारा है, इसकी गिनती नहीं है मेरे पास...।
ख़ैर! फिलहाल बात अंकल की अनमोल 86 कविताओं से सजे इस संग्रह की करने आई थी मैं...अपनी-उनकी बातें फिर कभी...। यूँ तो इसकी कोई कविता मुझे कहीं से कमज़ोर नहीं लगी, पर कुछ कविताएँ एक पाठक की हैसियत से मेरे दिल के बेहद क़रीब आ गई...। यहाँ उनमें से कुछ कविताओं का ज़िक्र करना चाहूँगी...।
रिश्ते कौन नहीं बनाता...? कुछ रिश्ते भगवान और समाज के बनाए होते हैं, तो कुछ इंसान खुद अपने दिल से गढ़ लेता है...। पर रिश्ता चाहे जैसे भी बना हो, उनका छलना हमेशा पीड़ा ही देता है...।
‘आराम न भाया है’ शीर्षक कविता की अन्तिम पंक्तियों में यही पीड़ा झलकती है, जो बरबस पाठक का मन भी भर देती है...
खाली हाथ
चले थे घर से
आज भी
खाली हाथ;
शाम हो गई
चले गए सब
छोड़-छोड़ कर साथ,
दिन-रात जिया-
हैं रिश्तों को
फिर
धोखा खाया है ।
कुछ-कुछ यही तक़लीफ़ ‘इस बस्ती में’ कविता में भी छलक गई...
दौर मुसीबत का जब होगा
साथ रहेंगे बेगाने
वह अपनों का लगा मुखौटा
दूर कहीं छिप जाएगा ।
दुनिया कहती है कि खून के रिश्तों से बढ़ कर हमारा सगा और कोई नहीं होता...पर उनकी सच्चाई भी उनकी इस नज़्म में कुछ यूँ झलक जाती है-
खून ही पीते रहे ये खून के रिश्ते।
सदा ही रीते रहे ये खून के रिश्ते॥
पर इसका मतलब यह नहीं कि कवि-हृदय आशा का दामन छोड़ बैठा है...। तभी तो वे कहते हैं-
अँधियारे से आगे देखो
सूरज है, उजियार बहुत है
काँटों के जंगल से आगे
खुशबू भरी बयार बहुत है...। (उजियार बहुत है)
हाँ ये भी है कि उन्हें अपनों के दिए दर्द ने बहुत सताया है, पर ‘उजियारे के जीवन मे’ शीर्षक कविता में उन्होंने तमाम अफ़सोस के बावजूद कह दिया है-
मन में अफ़सोस करें क्यों
बीती कड़वी बातों का
उजियारे के जीवन में है
हाथ बहुत ही रातों का ।
कहने को तो काम्बोज अंकल उम्र के उस मुक़ाम पर हैं, जब वे अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं, पर एक शिक्षक और प्रिंसिपल केरूप में उन्होंने न केवल बच्चों के लिए बहुत सारे कार्य किये, बल्कि बच्चों का पढ़ाने-सिखाने के साथ-साथ खुद उनका मन भी बांचना जान गए...। तभी तो देखिए, ‘उड़ान’ शीर्षक कविता में वे क्या कहते हैं...
बच्चा नहीं चाहता
दीवारों की क़ैद
उसे चाहिए-
खुली खिड़की,
खुला दरवाज़ा
खुला आसमान
ऊँची उडान,
चिड़ियों के साथ उड़ना
तितलियों के पीछे दौड़ना
कोयल का गीत सुनकर
हुमकना, ठुमकना ।
नहीं चाहिए-
पर्दों वाली खिड़की,
उसे चाहिए-
नीले सागर-सा फैला
खुला आसमान ।
नहीं चाहिए-पन्थ
न कोई ग्रन्थ,
उसे चाहिए
एक पाक शफ़्फ़ाक पन्ना,
जिस पर वह लिख सके
आज़ाद दुनिया की
आज़ाद बातें,
मुस्कानों की सौगातें ।
जीवन की साधरण सी लगने वाली बातें भी जब उनकी कलम से काग़ज़ पर बिखरती है तो एक खूबसूरत रचना का जन्म होता है...। उनकी कई कविताओं में उनके व्यंग्य की पैनी धार भी नज़र आती है...। इस सन्दर्भ मे खास तौर से ‘कहाँ चले गए गिद्ध?’ का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूँगी...। आज प्राकृतिक असन्तुलन के चलते न जाने कितने जीव धरती से विलुप्त हो गए हैं और अभी न जाने कितने समाप्त हो जाने की कग़ार पर खड़े हैं...। ऐसे में गिद्ध का न दिखना पक्षीविद और पर्यावरण प्रेमियों को भले खलता रहे, एक आम इंसान उसके बारे में ज़्यादा नहीं सोचता । परन्तु काम्बोज जी की साहित्यिक सजगता ने किस तरह गिद्ध की उपस्थिति हमारे आसपास ही दर्शा दी है, उसे पढ़ कर पाठक बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है...।
अब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध
अब गिद्ध नंगे नहीं रहे
वे पहने हैं तरह-तरह के परिधान...
दुनिया लाख बुरी सही, पर जो अच्छा इंसान होता है, वह न तो किसी के किए थोड़े से भी उपकार को भूलता है,और न ही अपना परोपकार धर्म करना छोड़ता है...। काम्बोज जी की यह निःस्वार्थ भावना उनके अनजाने ही उनकी रचनाओं में झलक जाती है, जब वे कुछ ऐसा कह देते हैं-
कितनी बड़ी धरती,
बड़ा आकाश है!
बाँट दूँ वह सब,
जो मेरे पास है।
बहुत दिया जग ने
मैने दिया कम।
कैसे चुकाऊँ कर्ज़
इसी का है गम।
अपने या पराए कौन,
यह आभास है । (कितनी बड़ी धरती)
इसी तरह ज़रा ‘चाँद-सा माथा तुम्हारा’ शीर्षक कविता की अन्तिम पंक्तियाँ देखिए...। शीर्षक से मुझे यह कोई रूमानी कविता लगी, परन्तु अन्तिम लाइन तक आते-आते इस कविता ने एक अलग रंग, अलग रूप अख़्तियार कर लिया।
सबकी हर पीर मैँ हर लूँ
उजाले प्राण में भर लूँ।
थे जब गीले नयन पोंछे
सभी कुछ पा लिया मैने॥
‘जब तक बची दीप में बाती’...यह कविता भी मुझे बहुत गहरे तक छू गई...। अच्छे लोगों के साथ बुरी मानसिकता वाले लोग बुराई करके खुश होते रहते हैं, पर फिर भी सज्जन अपनी सज्जनता का परित्याग नहीं करते। यह कविता मुझे-‘चंदन विष व्यापत नहिं, लिपटे रहत भुजंग’ का-सा अहसास करा गई...। अन्तिम चन्द पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
ज़हर पिलाने वाले हमको
ज़हर पिला कर चले गए।
उनकी आँखों में खुशियाँ थीं
जिनसे हम थे छले गए॥
हमने फिर भी अमृत बाँटा
हमसे जितना हो पाया।
यही हमारी पूँजी जग में
यही हमारा सरमाया॥
एक कवि मन बहुत कोमल होता है...। मानव-मन के ऐसे ही कोमल और दिल को छूने वाले सुन्दर अहसास भी इनकी कविताओं में परिलक्षित होता है, जैसे कि ‘कितना अच्छा होता!’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियों में-
तुमने चीन्हें मन के आखर
तुमने समझे पीड़ा के स्वर
तुम हो मन के मीत हमारे
रिश्तों के धागों से ऊपर
तुम हो गंगा-जैसी पावन ।
इस संग्रह की सभी कविताओं में से मेरी सर्वाधिक प्रिय कविता है-‘तुमने कहा था’- यह लम्बी कविता हर उस इन्सान का मन विचलित कर देगी, जिसमें तनिक भी संवेदना है...। इस कविता की पंक्तियाँ बर्छी सा कलेजा छेद देती हैं...। यहाँ उस कविता का सिर्फ़ एक अंश चुन कर दे पाना मेरे वश में नहीं, क्योंकि इसकी हर पंक्ति लाजवाब है...। बस दो लाइनें पेश कर रही, आप खुद ही देख लीजिए, कितना दर्द है इनमें-
मेरा सुख यहाँ सबसे बड़ा दुःख है,
सबको चुभता है...
ऐसी ही एक और मर्मस्पर्शी कविता ने बरबस मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया था-‘द्वार से लौटा याचक’-
द्वार से लौटे
याचक के दर्द को
कोई लिखता नहीं
सिन्धु-सा गहरा भी हो
पर दिखता नहीं।
कौन जानेगा-
खाली झोली निहार
वह कितना रोया होगा!
आँसू छिपाने की कोशिश में
चेहरा कितना धोया होगा !
ऐसी कविताएँ जहाँ सम्वेदना के स्तर पर मन के तार झंकृत कर जाती हैं, वहीं ‘नारी कहाँ नहीं हारी’ शीर्षक एक अन्य लम्बी कविता मन में एक अजब आक्रोश भरती हुई बेचैन कर जाती है...।
काम्बोज अंकल की लेखनी बस यहीं तक नहीं सिमटती, बल्कि वे ज़िन्दगी के ऐसे पक्षों को भी अपने शब्दों के जादू में बाँध कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जिनकी ओर शायद बहुत कम लोगों का ध्यान जाता होगा । अपने अल्प-ज्ञान के कारण मैं नहीं जानती कि किसी अन्य कवि ने कभी किसी ‘पुरबिया मज़दूर’ की व्यथा-कथा पर कलम चलाई या नहीं, परन्तु मैने पहली बार इस अछूते-से विषय पर कोई मार्मिक कविता पढ़ी है। एक‘पुरबिया मज़दूर’ की पूरी ज़िन्दगी का खाका-सा खींचती इसी शीर्षक की यह लम्बी कविता पढ़ने के बाद पाठक कुछ देर तक स्तब्ध सा बैठा रह जाता है...।
स्वर्ग-तीरथ-ईश्वर और कहीं नहीं, बल्कि हमारे ही आसपास हमारे ही परिवार के रूप में हमारे घर में मौजूद है,यही सन्देश बड़ी खूबसूरती से इस संग्रह की शीर्षक-कविता ‘मैं घर लौटा’ दे जाती है...। काम्बोज जी ने इसमें हर मानवीय पक्ष को पूरी शिद्दत से छुआ है। इसमें बहनों के लिए ‘कुछ पास, कुछ दूर बहनें’ कविता है, तो बेटियाँ भी अपनी मुस्कान सहेजे ‘बेटियों की मुस्कान’ में मौजूद हैं। एक नारियल से जिसकी तुलना की जा सकती हो, ऐसे पिता किसे याद नहीं आएँगे भला...? ‘पिता के चरण’ पढ़ कर सबको कहीं न कहीं अपने पिता की झलक नज़र आएगी और ‘पुरानी कमीज़’ में कोई भी पिता अपनी झलक परख लेगा...। और माँ तो सिर्फ़ एक श्ब्द भर नहीम है, इसमें तो पूरी सृष्टि समाई है...। इस लिए जब काम्बोज जी ‘मेरी माँ’ में कहते हैं-
माँ से बड़ा कोई न तीरथ
ऐसा मैने जाना है।
माँ के चरणों में न्योछावर
करके ही कुछ पाना है।
तो उनकी इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता...।
इस संग्रह की सबसे खास बात मुझे यह लगी कि अन्य कई कविता संग्रहों की तरह इसमें एक ही तर्ज़ पर लिखी काव्य-रचनाओं को देने की बाध्यता नहीं है। इसमें तुकान्त कविताएँ हैं, तो अतुकान्त भी...कुछ नज़्में हैं...लम्बाई में कुछ पंक्तियों में सिमटी वृहद अर्थ वाली कविताएँ तो हैं ही, कई कविताएँ कई पन्नों तक फैली हैं...। पर उनका कलेवर या शिल्प चाहे जैसा भी चुना गया हो, हर कविता पाठक के दिल तक अपना रास्ता बना लेती है, इसमें कोई दो राय नहीं है...। रचनाओं की सशक्तता और उनके स्तर से कहीं कोई भी समझौता नहीं किया गया है, यह सबसे अच्छी बात है इस संग्रह की...। यही कारण है कि मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि अपनी बात प्रस्तुत करते समय कौन सी कविता चुनूँ, कौन सी छोड़ूँ...?
हर संग्रह में पाठक को कहीं-न-कहीं कोई कमी लगती है अक्सर, पर मुझे अन्त तक पहुँचते-पहुँचते बस एक कमी खली, यह संग्रह मात्र 86 कविताओं से युक्त ही क्यों रहा...। काश! कुछ कविताएँ और होती तो मैं और देर तक उनका आनन्द लेती रहती...।
मैं घर लौटा- (श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’):अयन प्रकाशन,1/20 महरौली, नई दिल्ली
मूल्य: 360 रुपये
5 comments
Itni detailed sameeksha kitaab ki...bahut achchii lagi didu.
ReplyDeleteAisi sameekshaayen kitaab padhne ka man aur bana deti hain...
Loved it
'मैं घर लौटा' की कविताओं का गहन विवेचन मन को छू गया। प्रियंका गुप्ता की आत्मीयता भी विवेच में घुल गई, जिससे तह समीक्षा भावपूर्ण गद्य का श्रेष्ठ उदाहरण बन गई। मेरी कविताओं को समझने में प्रियका पूरी तरह सफल रही है। मेरा हार्दिक आभार !!
ReplyDeleteआदरनीय काम्बोज जी की लाजवाब लेखनी को मेरा नमन। प्रियंका जी आपके इतने गहन विमर्श ने पुस्तक पढ़ने की मेरी उत्सुकता और भी बढ़ा दी है। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteमैं घर लौटा -की कविताओं को पढ़कर आदरर्नीय कम्बोज जी के भावपूर्ण शब्द और जीवन के अनुभव पढ़ने को मिले हार्दिक बधाई प्रियंका जी आप को और श्री काम्बोज जी को |
ReplyDeletesundar pustak ki saargarbhit sameeksha ..bhaaii kamboj ji evam priyanka ji ko hardik badhaii !
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