रोते रोते हँसना सीखो...
Friday, January 30, 2009परसों रात एक दवा रिएक्ट कर जाने के फलस्वरूप जो बेचैनी उपजी, उससे त्रस्त होकर मैं खूब रोई...दिल खोल कर, ज़ार-ज़ार रोई । घरवालों ने पूछा," पागल हो क्या, जो इतनी बडी होकर रोती हो?" छूटते ही मैने उनसे पूछा," पागल होती तो रोती क्या?"
सच ही तो पूछा था मैने...। पागलों की तो अपनी एक अलग ही दुनिया, अपनी ही एक अनोखी मनोदशा होती है। कोई ज़रूरी नहीं कि पागल दुःख या तक़लीफ़ में ही रोए। हो सकता है आपको ख़ुश देख कर एक पागल रोए...तो मैं पागल कैसे?
वैसे सच तो यह कि रोना इतना ज़रूरी माना गया है कि अगर पैदा होते ही इंसान न रोए, तो वह या तो मर सकता है या पागल हो सकता है...और इसी तरह अगर भीषण दुःख में भी कोई शांत रहे , तो भी...इसीलिए तो नवजात शिशु से लेकर किसी बेहद अपने की मॄत्यु पर भी शांत बैठे व्यक्ति को थप्पड मार कर रुलाया जाता है...। तो रोना तो अच्छा ही हुआ न?
सदियों से रोने को औरतों का एक हथियार कहा गया है और पुरुषों का रोना -औरतपना...। पर मेरी दॄष्टि में दोनो ही बातें ग़लत...रोना कोई हथियार नहीं, एक ताकत है...। इन फ़ैक्ट, ये इंसानियत की ताकत है, ईश्वर की एक नेमत है जो आपको बताती है कि आप अभी मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। सीता-वियोग में...लक्ष्मण की मूर्च्छा में... राम को रोते बताया गया है, राम के पौरुष पर कोई शक!!! द्रौपदी जब रोती है तो महाभारत होता है...क्रौंच-वध पर जब वाल्मिकी के आंसू आते हैं तो कविता का जन्म होता है...। आंसू में वो ताकत है जो पत्थर भी पिघला दे, बडे-बडे तूफ़ान ला दे...।
मैं तो गर्व से कहती हूँ- हाँ, मैं रोती हूँ...। जब मैं- तुझे सब है पता माँ- सुनती हूँ , तब रोती हूँ । जब मैं बार्डर सरीख़ी फ़िल्म देखती हूँ, तब रोती हूँ। जब मैं -ज़िन्दगी लाइव- देखती हूँ, तब रोती हूँ। मुंबई-कांड देख कर रोती हूँ या किसी शहीद की माँ जब अपने मृत बेटे का मुँह चूम कर उसे प्यार से कुछ कहती है, तब रोती हूँ...। कोई मुझे रोता देख कर मुझ पर हँसे, तो हँसता रहे...।
आख़िर में एक बात- फ़िल्म टर्मिनेटर के अंत में मशीन बना आर्नोल्ड श्वार्ज़नेगर जब कहता है- मुझे अब पता चला , रोना कैसा होता है- तो मैं दो बूंद आंसू ढलका कर, अपना दिल टटोल कर, अपने अंदर की ज़िन्दा इंसानियत का सीना ठोंक कर खुश हो जाती हूँ- शुक्र है,एट लीस्ट आई नो हाऊ इट फ़ील्स टू क्राई...।
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