तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी...परेशान हूँ...

Saturday, April 02, 2016



आजकल आए दिन अख़बारों, न्यूज़ चैनल्स पर हम कहीं-न-कहीं किसी आत्महत्या की ख़बर पढ़ते-देखते रहते हैं। कभी सूखे या बाढ़ जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के चलते कर्ज़े में डूबा किसान अकेला या अपने पूरे परिवार समेत अपनी इहलीला समाप्त करने को मजबूर होता है, तो कहीं कुछ अलग तरह की पारिवारिक समस्याओं से जूझता कोई इंसान मौत को गले लगा लेता है। बोर्ड के इम्तिहान के बाद रिज़ल्ट आने तक तो कुछ वर्ष पूर्व तक जाने कितनी कच्ची उम्र के बच्चे दुनिया ठीक से देखने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह जाते थे। आखिर हार कर CBSE बोर्ड समेत कई राज्यों के बोर्ड ने ग्रेडिंग प्रणाली लागू की ताकि इस तरह की मर्मान्तक घटनाओं पर कुछ हद तक काबू पाया जा सके।

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ऊपर की बहुत सारी घटनाओं की वजह तो कहीं-न-कहीं आर्थिक स्थिति पर आकर रुक जाती हैं। जब इंसान को रोटी के ही लाले पड़ जाएँ, तब तो उसका हार मानना कुछ समझ भी आता है (हाँलाकि एक अमूल्य इंसानी ज़िन्दगी को ख़त्म कर देने के लिए यह वजह भी किसी तरह से जायज़ नहीं ठहराई जा सकती); पर जब आर्थिक रूप से ठीक-ठाक या सम्पन्न और बहुत हद तक नामी-गिरामी शख़्सियतें अपनी मर्ज़ी से इस बेशकीमती ज़िन्दगी से पल्ला झाड़ लेते हैं, तो मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि वो ऐसा कौन सा पल होता है जिसमें इंसान यह कायरतापूर्ण, लेकिन कठिन फ़ैसला ले लेता है...?

यह तो मानी हुई बात है कि आत्महत्या का फ़ैसला लेना एक मानसिक स्थिति का परिणाम है, और इस मानसिकता का एकमात्र कारण है-डिप्रेशन यानि कि अवसाद...।

बहुत लोगों का यह मानना है कि आत्महत्या एक क्षणिक भावावेश में उठाया गया कदम है। कुछ मामलों में यह बात सही भी है, पर सभी मामलों में नहीं...। कई बार इस अन्तिम फ़ैसले पर पहुँचने से पहले व्यक्ति बहुत चिन्तन-मनन करता है...। खुद को इस दुनिया से विदा करने के लिए तैयार करता है...। तभी ऐसे कई सारे मामलों में हम पाते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपने अन्तिम समय में बेहद बदला हुआ महसूस होता है...। कुछ दिनों पहले तक एकदम चुप सा हो चुका, कटा-कटा रहने वाला वही व्यक्ति अचानक ही आम दिनों से ज़्यादा खुशनुमा, मिलनसार और आत्मीय हो जाता है...। ज़रूरी नहीं कि यह बदलाव सिर्फ़ आत्महत्या की पूर्वसूचना हो, शायद यह उसकी स्थिति में सुधार का भी संकेत हो...। पर जो भी हो, ऐसे व्यक्ति के आसपास जो अपने हों, उन्हें सतर्कता की बेहद ज़रूरत है...। सिर्फ़ बड़े ही नहीं, आज की बदलती जीवनशैली और गला-काट प्रतियोगी युग में बच्चे भी इस डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं, जो उनकी आधी-अधूरी समझ और संघर्ष की कम क्षमता के मद्देनज़र और भी भयानक बात है।

एक आम इंसान जब ऐसा कोई कदम उठाता है तो सारा घटनाक्रम सिर्फ़ उसके आसपास या उसको जानने वाले लोगों तक ही  सीमित रह जाता है, पर जब कोई सेलिब्रिटी की हैसियत रखने वाला ऐसा करता है, तो पूरे देश, समाज और मीडिया के साथ-साथ आम जनजीवन भी उसकी परिस्थितियों के बारे में अपने अपने हिसाब से कयास लगाना शुरू कर देता है, जिसमें से सबसे ज़्यादा अहम रूप से उभर कर सामने आता है-प्रेम सम्बन्ध में मिली असफ़लता...। मुझसे बहुत सारे लोग ऐसे मिले हैं, जिन्होंने डिप्रेशन का दूसरा नाम ही किसी के प्यार में धोखा खाना मान लिया है...। अफ़सोस की बात यह है कि अच्छा-खासा पढ़े लिखे होने के बावजूद वे डिप्रेशन को पीलिया, ब्लडप्रेशर आदि किसी अन्य बीमारी की तरह नहीं देखना चाहते, जिसका इलाज सही दवा और आवश्यक का‍उन्सलिंग और देखभाल से सम्भव है...। उनके लिए डिप्रेशन सिर्फ प्यार में असफल होने पर ही हो सकता है, जबकि ऐसा नहीं है...| डिप्रेशन किसी भी मामूली सी लगने वाली वजह से भी हो सकता है, मसलन एक स्कूल,कॉलेज़ या नौकरी से किसी दूसरे स्कूल, कॉलेज़ या नौकरी में जाना...जगह-परिवर्तन, किसी अपने की लम्बी बीमारी या उसकी मौत (इस अपने की मौत में बेहद प्रिय पालतू जानवर की मौत भी शमिल है...), किसी सपने का पूरा न हो पाना, किसी दोस्त का साथ छूटना, किसी खास परिस्थिति से सामन्जस्य न बिठा पाना, अपनी इच्छाओं का लगातार गला घोंटते जाना...इत्यादि-इत्यादि बहुत लम्बी लिस्ट बनाई जा सकती है, जो अवसाद या डिप्रेशन की मूल वजह हो सकती है...।

डिप्रेशन भी किसी अन्य बीमारी की तरह अपने कई स्तर पर हो सकता है। शुरुआती स्तर का अवसाद सम्हालना खुद उस व्यक्ति के हाथ में हो सकता है, अगर समय रहते उसे पहचान लिया जाए। ऐसे में वह व्यक्ति खुद अपने हिसाब से अपनी जीवन शैली में परिवर्तन लाकर उससे उबर सकता है। पर अगर यही बीमारी अपने अन्तिम ‘एक्यूट स्टेज़’ तक जा पहुँची, तब इसे सम्हालने के लिए सही इलाज के साथ-साथ उस इंसान के किसी अपने का सहयोग बेहद ज़रूरी है। इसी एक्यूट स्टेज़ में पहुँच कर उस व्यक्ति के दिमाग में आत्महत्या के विचार पनपना शुरू हो जाते हैं, जो धीरे-धीरे बहुत गहरे तक अपनी पैठ बना लेते हैं...। समय रहते चेत गए तो ठीक, वरना दिमाग़ में हो रहे विभिन्न रसायनिक असन्तुलन से उपजी यह बीमारी उसे मौत की नींद सुला कर ही दूर होगी।

दुःखद बात यह है कि ऐसे मामलों में उसके आसपास...उसके साथ रहने वाले लोग उसके जाने के बाद ही इस चेतावनी को समझ पाते हैं। उन्हें तब याद आता है कि आम तौर पर बेहद खुशनुमा रहने वाला वो व्यक्ति पिछले कई दिनों से गुमसुम सा...चिड़चिड़ा होकर बात-बात पर रो पड़ने वाला हो गया था। उसकी इस हरकत से इरीटेट होने वाले उसके अपने समय रहते जान ही नहीं पाते कि अपने खोल में सिमट जाने वाला वह व्यक्ति अन्दर से उन अपनों में से किसी भी एक सहारे के लिए किस कदर बेचैनी महसूस कर रहा होता है...। एक तरफ़ आप उससे परेशान होकर उसका साथ छोड़ते हैं, दूसरी तरह वह आपको उस परेशानी से मुक्त करने के लिए हमेशा  को आपका साथ छोड़ के चल देता है। यहाँ समझने वाली बात यह है कि एक्यूट डिप्रेशन से ग्रस्त व्यक्ति खुद बहुत बड़ी दुविधा में जीता है। वह आपका साथ नहीं चाहता, पर आपको साथ छोड़ते देख बर्दाश्त भी नहीं कर पाता। वो नहीं जानता कि अपनी बातों, अपने व्यवहार से वह आपको हर्ट कर रहा, पर आपकी बातों से वह बहुत आसानी से हर्ट हो जाता है। हर छोटी-बडी  बात का अपराधबोध बेवजह वह अपने अन्दर पालता जाता है, बिना यह समझे कि उसमे उसका कोई दोष था भी नहीं...। यक़ीन मानिए, खूनी और मुज़रिम खुद को भले इस दुनिया का बादशाह समझें, एक्यूट डिप्रेशन का मरीज़ एक चींटी के मरने का अपराधी भी खुद को मानता हुआ अपने आप को इस धरती का सबसे बड़ा बोझ समझता है...और पहला मौका मिलते ही वह इस धरती को अपने बोझ से आज़ाद कर देता है।

एक आम धारणा है कि अकेले रहने वाला या निठल्ला रहने वाला व्यक्ति ही अवसादग्रस्त होता है, परन्तु अधिकांश मामलों में सच होने के बावजूद यह एक सार्वभौमिक सत्य नहीं है...। यहाँ हमको ‘अकेले रहने’ और ‘अकेले होने’ का फ़र्क समझना पड़ेगा। हो सकता है हमेशा भीड़ से घिरा रहने वाला...एक भरे-पूरे परिवार में अपनों के बीच रहने वाला बेहद सफ़ल इंसान भी अन्दर से बिल्कुल अकेला हो...और यही अकेला होना बेहद घातक साबित हो सकता है...।

सवाल यह उठता है कि यह अकेलापन कम कैसे हो...? मेरा मानना है कि अगर इस पूरी दुनिया में आपके पास एक भी इंसान ऐसा है जिसके सामने आप अगर खुल के हँस सकते हैं तो समय पड़ने पर ज़ार-ज़ार रो भी सकते हों...उससे बड़ी से बड़ी खुशियाँ बाँटना आप भले भूल जाएँ, पर आपके छोटे-से-छोटे ग़म में अगर आपके आँसू पोंछने और आपको सांत्वना देता हुआ ‘मैं हूँ न’ कहने के लिए वह हमेशा तैयार हो, तब आप सबसे सम्पन्न और भरे-पूरे व्यक्ति हैं...। पर अगर ऐसा नहीं है, तो फिर ज़रुरत पड़ने पर किसी डॉक्टर या काउंसेलर की मदद बिना किसी झिझक के ज़रूर लीजिए |



दुर्भाग्य की बात यह है कि आम जनता को इस बीमारी की सही और सच्ची जानकारी ही नहीं...। बहुत से आत्मगर्वित लोग किसी अवसादग्रस्त व्यक्ति को ‘पागल’ कह कर भी अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, और शायद यही वजह है कि कुछ लोग अपनी इस बीमारी को पहचान लेने के बावजूद इसके इलाज के लिए किसी मनोचिकित्सक के पास जाने या किसी अपने से इसका ज़िक्र भी करने में बेहद हिचकते हैं। अन्त क्या होता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं...। ऐसे में कितना अच्छा हो यदि दीपिका पादुकोण जैसे ही कुछ और भी खास और आम लोग सामने आकर इस बीमारी के प्रति समाज में जागरुकता फैलाएँ। लोगों को समझाएँ कि यह पागलपन नहीं, बल्कि एक खास तरह का केमिकल लोचा है, जो किसी भी और बीमारी की तरह देखा जाना चाहिए।

आज हमको ज़रूरत है तो सिर्फ़ इतनी कि हम अपने आसपास के किसी अपने को इस बीमारी की गर्त में जाने ही न दें...। जब जितना हो सके, किसी को अपने होने का अहसास दिला सकें...ताकि कोई ज़िन्दगी से कितना भी हैरान-परेशान रहे, पर उससे नाराज़ तो न हो कभी...।

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11 comments

  1. प्रियंका तुमने बहुत तार्किक विश्लेषण किया है ...
    वैसे मुझे व्यक्तिगत रूप से इस सबका सबसे बड़ा कारण एक डर होता है कि लोग क्या कहेंगे ... और मनोवैज्ञानिक के पास जाने पर तो पागल करार दिया जाना तो निश्चित ही जानो... सस्नेह

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    1. यही तो सबसे ज़्यादा भयावह स्थिति होती है...पागल करार दिया जाना, और वह भी उनके द्वारा, जिन्हें खुद कुछ नहीं पता ।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सरकार, प्रगति और ई-गवर्नेंस " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. ऐसे व्यक्ति अपनी समस्याएँ क्सी से साझा नही करते। अकेले ही जूझते रहते हैं और असह्य होने पर ये कदम उठा लेते हैं।

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    1. अपनी तरफ से ऐसे व्यक्ति नकारे जाने की दुविधा लेकर जी रहे होते हैं...। कई बार यूँ भी होता है कि उन्हें अवसाद में ले जाने वाला कारण या मुद्दा बाकियों के लिए महज एक बकवास हो...और यही बकवास ठहराए जाने का भय उन्हें किसी से कुछ शेयर करने से रोक देता है...।

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  4. abhi tak bharat me manivaigyanik doctor ko keval pagalo ka hi doctor samjha jata hai hamare dainik jiwan ki samsyao ke niptare me inki bhumika abhi tak pacha nhi paye log ..yahi karan hai ki unki sahayta lena nhi chahte ..atmhatya ka mudda wakayi chintaniy hai apka ye lekh sarahniy hai

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    1. जी हां, सबसे ज़्यादा जागरूकता तो इसी अंतर को पहचानने के लिए ज़रूरी है...। शायद यह समस्या तब बहुत हद तक सम्हाली जा सके ।

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    2. जी हां, सबसे ज़्यादा जागरूकता तो इसी अंतर को पहचानने के लिए ज़रूरी है...। शायद यह समस्या तब बहुत हद तक सम्हाली जा सके ।

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