कलाम-ए-मोहब्बत बना महफ़िल
Monday, June 27, 2016
कुछ आदतें समय के साथ भी नहीं बदलती...। हाँ ज़िन्दगी के रोलर-कोस्टर में ढुलकते-पुलकते कहीं किसी कोने में ज़रूर जाकर छिप सकती हैं, पर जैसे ही पहला मौका मिला नहीं, कि सिर उठा कर सामने तैनात...। लो जी, फिर से सम्हालो मुझे...फिर से दुलराओ...और ताज़ा कर लो मुझसे जुड़ी अपनी अनगिनत यादों को...। ऐसे ही जाने किन लम्हों में दो साल पहले आज ही के दिन मेरी गीत, गज़लों और कविताओं को एक डायरी में लिख कर रखने की कच्ची उम्र की एक भूली-बिसरी आदत ने इंटरनेट के रास्ते धीरे से सिर उठाया तो ‘कलाम-ए-मोहब्बत’ नाम के एक ब्लॉग ने जन्म लिया...। इस ब्लॉग के साथ जाने कितनी यादें चली आई थी। गर्मी की छुट्टियों की वो दोपहरें, जब अपने मर्फ़ी ट्रांजिस्टर को अपने करीब रख कर बजाते हुए मेरे सामने हमेशा एक कागज़-पेन भी तैयार रहता था। कोई पसन्दीदा गाना आया नहीं कि कागज़ पर तेज़ गति से लिखे गए शब्द टेढ़े-मेढ़े होने के बावजूद अपनी पूरी शिद्दत से दिल तक जा पहुँचते थे। फिर बारी आती थी उस चील-बिलौटा लिखावट को अपनी डायरी में पूरी सजावट के साथ सुलेख में ज्यों-का-त्यों उतार देने की...। यही शगल मेरे जैसी कुछ और सहेलियों का भी हुआ करता था। जब भी मुलाकात होती, एक-दूसरे की डायरी खंगाली जाती...गाने मिलाये जाते थे, जिसके पास जो गाना नहीं, वह दूसरे की डायरी से कॉपी कर लिया करती थी।
बातों-बातों में यह बात एक दिन जब भैया अभिषेक को पता चली तो झट से उनके अन्दर का ब्लॉगर जाग गया और फट से एक ब्लॉग बना डालने का आइडिया मेरे सामने था। जैसा कि मुझे कहने की ज़रूरत नहीं, पर ‘कलाम-ए-मोहब्बत’ को उसका खूबसूरत रूप देने में, जब-तब उसकी सार-संभार में बिन बोले, बिन माँगे मेरे इस छोटे भाई ने कितना योगदान दिया, यह मैं बिल्कुल भी नहीं बताने वाली...। अब दो साल बाद यह ब्लॉग एक वेबसाइट के रूप में, अपनी नई साजो-सज्जा और नए नाम -महफ़िल- के साथ आपके सामने आया है...। सबसे ज़्यादा खुशी मुझे इस बात की है कि दो साल तक मेरी धमकियों से अप्रभावित रहने के बाद आखिरकार इस नये रूप, गीत-कविताओं-शायरी के इस नये-से सफ़र में मेरे साथ मेरा यह छोटा भाई भी शामिल हो गया है। तो चलिए न आप भी...एक बार ‘महफ़िल’ से रू-ब-रू होने...।
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