खट्टी-मीठी सी दुनिया...(१)
Thursday, August 20, 2015
उसे जब भी देखती हूँ, जाने क्यों एक तरफ़ तो भगवान द्वारा की हुई एक ज़रा-सी चूक पर बहुत ममत्व उमड़ता है और दूसरी तरफ़ इंसान के बनाए इस समाज की सोच के प्रति वितृष्णा अपजती है। वो, यानि सजल...शारीरिक उम्र शायद तेइस-चौबीस वर्ष...पर मानसिक उम्र अभी बारह-तेरह साल की ही है। मेरे घर की पिछली गली में रहने वाला वो मासूम बच्चा...हाँ, बच्चा ही तो है वो अब भी...अक्सर छुट्टी में या फिर शाम को मेरी गली चला आता है...। दुनियावी तौर पर अपने से आठ-दस साल छोटे बच्चों के साथ कभी क्रिकेट खेलने...तो कभी यूँ ही गप्पे लड़ाने...। बच्चे उसका मज़ाक बनाते रहते हैं...। हैसियत में सबके मुकाबले कहीं से भी कमतर नहीं है वो अपने परिवार का एकलौता चश्मे-चिराग़, इस सच्चाई से हर बच्चा अच्छी तरह वाक़िफ़ है, सो उससे कोई बदसलूकी तो नहीं होती...पर छिपे तौर पर बच्चों के पीछे-पीछे दुम हिलाते दौड़ते स्ट्रीट-डॉग से ज़्यादा उसकी कोई अहमियत है भी नहीं...। बच्चों के लिए वो दोस्त नहीं, बल्कि अपनी भोली बातों से सिर्फ़ उनके मनोरंजन करने का एक साधन मात्र है...। पर सजल तो मानो अपनी मानसिक उम्र के बराबर बच्चों में पनप चुकी इस सामाजिक परिपक्वता से भी पूरी तौर से अनजान है। उसे तो बस इस बात में ही खुशी मिल जाती है कि उसके इतने सारे दोस्त हैं, जो उसे टीम में शामिल किए हुए हैं। कब कौन बच्चा ग़ैर-मौजूद है, उसे बहुत लम्बे समय तक यह याद रहता है...और जब तक वो उसकी ख़ैर-ख़बर नहीं जान लेता, बेहद बेचैन रहता है...। कभी उसे दुकान पर मिल जाओ, तो नमस्ते, कैसी हैं आँटी...? पूछने के साथ-साथ दुकानदार को हिदायत देना नहीं भूलेगा...अंकल, मेरी आँटी हैं...। सामान सही तौलिएगा...और फिर लपक कर हर थैला भी उठा लेगा...। मना करो तो बेहद गर्व से अपनी बाँहें फैला कर दिखाएगा...देखिए तो...मैं मोटा हो गया न...? रोज़ मम्मी जो दूध देती है न, सब पी जाता हूँ...। फ़्रूट्स भी खाता हूँ...। जब बड़ा हो जाऊँगा न, तो आयरन मैन भी बन जाऊँगा...। ये थैले तो बहुत हल्के हैं...। आप सब सामान ले लीजिए...। आपको घर छोड़ कर ही जाऊँगा...तब तक रुका हूँ आपके साथ...डोन्ट वरी...।
उसकी ऐसी बातें सुन कर मेरी आँखों के आगे उन सब परिचित...तथाकथित बड़े हो रहे बच्चों की तस्वीर घूम जाती है जो कभी दूर से सामानों के बोझ से लदे-फँदे देख कर नमस्ते कहने की कौन कहे, बड़ी सफ़ाई से कन्नी काट कर निकल जाते हैं...। किसी पराए की तो छोड़िए, किसी अपने की मदद करना भी उनको बोझ लगता है...। ऐसे में सजल की...जब बड़ा हो जाऊँगा...की ख़्वाहिश सुन कर मन से बस एक आह निकलती है...अगर इस समाज में पल रहे बच्चों की तरह बड़ा होना चाहते हो, तो सजल...कभी बड़े न होना...।
उसकी ऐसी बातें सुन कर मेरी आँखों के आगे उन सब परिचित...तथाकथित बड़े हो रहे बच्चों की तस्वीर घूम जाती है जो कभी दूर से सामानों के बोझ से लदे-फँदे देख कर नमस्ते कहने की कौन कहे, बड़ी सफ़ाई से कन्नी काट कर निकल जाते हैं...। किसी पराए की तो छोड़िए, किसी अपने की मदद करना भी उनको बोझ लगता है...। ऐसे में सजल की...जब बड़ा हो जाऊँगा...की ख़्वाहिश सुन कर मन से बस एक आह निकलती है...अगर इस समाज में पल रहे बच्चों की तरह बड़ा होना चाहते हो, तो सजल...कभी बड़े न होना...।
Image - pexels.com |
1 comments
काश! सजल को भी कोई "जादू" मिल जाये
ReplyDeleteउसकी फोटो लगाते, अच्छा रहता
प्रणाम