हर पल कुछ सिखाती है...ज़िंदगी...
Saturday, September 05, 2015
ज़िन्दगी में जब भी ‘गुरू’, ‘शिक्षक’ या ‘टीचर’ का ज़िक्र आता है तो सामान्यतयः हम अपने स्कूल-कॉलेज़ के अध्यापकों में से सिर्फ़ दो ही तरह के शिक्षकों को याद करते हैं । या तो अपने पसन्दीदा शिक्षक को या फिर उनको, जो किसी-न-किसी वजह से हमको नापसन्द रहे हों...। पर क्या इत्ती लम्बी ज़िन्दगी में सिर्फ़ यही वो चन्द लोग होते हैं, जिनसे हमको कुछ सीखने को मिलता है...?
आज मैं भी जब अपनी ज़िन्दगी के कुछ पुराने पन्ने पलटने चली, तो सहसा माँ की बहुत बार सुनाई एक घटना याद आ गई ।
बात बहुत पुरानी है...मेरे जन्म से पहले की...। माँ-पापा जिस किराये के मकान में रहते थे, वह सुरक्षा की दृष्टि से बहुत खराब कहा जा सकता है...। सच कहूँ तो माँ की क़िस्मत में जितने भी किराये के मकान आए, सभी बहुत असुरक्षित रहे...। लेकिन ख़ैर, अभी बात उस मकान की...जहाँ ये लोग मेरे जन्म से पहले रहने आए थे।
जाड़े के दिन थे शायद...। अब वैसे माँ को भी इतने अच्छे से याद नहीं कि जाड़ा था या गर्मी-बरसात में से कोई मौसम...पर उन्होंने जब भी ज़िक्र किया, सर्द-सुनसान रात का ही किया...। रात का यही कोई एक बजा रहा होगा...। पूरा मोहल्ला गहरी नींद में था । उस मकान में रसोई बाहर आँगन में थी...और आँगन के पार ही एक छोटा सा गेट...इतना छोटा कि कोई भी बड़ी आसानी से फाँद जाए...। माँ की नींद बाहर रसोई में ही हो रही हल्की खटर-पटर से टूट गई । उन्होंने कमरे की झिरी से झाँक कर देखा तो रसोई का दरवाज़ा खुला हुआ था । माँ थोड़ा संशय में आ गई...। इतनी लापरवाह तो वो थी नहीं कि ताला बन्द किए बग़ैर रसोई ऐसे खुली छोड़ कर सो जाएँ...पर फिर भी, क्या पता...? छोड़ ही दिया हो तो...? अभी वे कुछ करने की सोच ही रही थी कि तभी बगल के मकान की ऊपरी मंज़िल में रहने वाले कुलश्रेष्ठ जी की ज़ोरदार दहाड़ सुनाई दी...कौन है वहाँ...? गुप्ता जी...ये आपके आँगन में कौन है इतनी रात गए...?
कुलश्रेष्ठ साहब के छज्जे से माँ का आँगन साफ़ दिखता था...और बाथरूम के लिए उठे मि. कुलश्रेष्ठ बस एक सावधानीवश आसपास का जायजा लेने के लिए अपने कमरे से बाहर छज्जे पर आए ही थे कि उन्हें हमारे यहाँ रसोई से गैस का सिलेण्डर खींच कर बाहर निकालता हुआ कोई शख़्स दिख गया । पापा को आवाज़ लगाने के साथ-साथ उन्होंने हमारे मकान-मालिक के तीन जवान-जहान, थोड़े दबंग किस्म के लड़कों, अपने बगल में रह रहे सिंह साहब, हमारे ही ऊपर के हिस्से में रहने वाले गंगवार साहब...सिंघल साहब...यानि कि जिसका-जिसका नाम याद आता गया, वे पुकारते गए...गुप्ता जी के यहाँ कोई चोर है...पकड़ो...।
माँ बताती हैं कि पतले-दुबले होने के बावजूद कुलश्रेष्ठ साहब में बला की फ़ुर्ती और हिम्मत थी...। जिन-जिन का नाम उन्होंने लिया...सबके सब दिलेर किस्म के लोग...। इत्तेफ़ाकन ये सब लोग गाँव की पृष्ठभूमि से होने के कारण भी इस तरह की स्थितियों से निपटने में अच्छी तरह सक्षम थे । बेचारा...क़िस्मत का मारा चोर जब तक कुछ समझ पाता...भाग पाता...वो बुरी तरह घिर गया था । सबको इकठ्ठा हुआ देख माँ भी बाहर आ गई थी । माँ को छोड़ कर वहाँ आ चुके हर व्यक्ति ने इतनी ठण्ड में रजाई से निकल कर बाहर खुले में आने की खुन्नस उस पर हाथ जमा कर निकाली...। चोर कुछ मार खा कर और शायद थोड़ा अपने अंजाम से डर कर पिटता हुआ रोता जा रहा था । जितना गिड़गिड़ा कर वो वहाँ इकठ्ठा भीड़ से रहम माँग रहा था, उतनी ही बेचैनी से माँ भी सबको रोके जा रही थी...छोड़ दीजिए...मत मारिए...। चोट लग रही होगे इसे...। माँ और चोर की इस संयुक्त गुहार से परेशान होकर वहाँ मौजूद कुछ बड़े-बुजुर्गों ने सबसे पहले माँ को डाँट कर चुप कराया, फिर चोर को अच्छी तरह ठोंक-पीट कर वहीं रसोई की खिड़की से बाँध कर यह तय पाया गया कि अब थाने में चल कर रपट लिखाई जाए । आगे की कार्यवाही पुलिस देखेगी ।
चोर को चूँकि हमारे ही घर पर बाँध दिया गया था, सो वहाँ मौजूद कुछ महिलाओं के साथ माँ को भी ध्यान देने का समझा कर सब लोग इलाके के थाने की ओर चल पड़े । कुछ देर तक तो अड़ोसी-पड़ोसी महिलाएँ माँ के पास बैठी रही, फिर शायद जाड़े की नींद उन सब पर हावी होने लगी, सो एक-एक कर के सावधान रहने और कोई ज़रूरत होने पर आवाज़ देने को कह कर वे सब अपने-अपने घर चली गई । रह गए तो सिर्फ़ माँ और सुबकियाँ भरता...कराहता चोर...।
बीच रात में ये सारा काण्ड हो जाने से अब भोर होने तक माँ कुछ थक भी गई थी और ठण्ड से उनको चाय की तलब भी लग रही थी । सो जो सिलेण्डर चोर ने घसीट कर बाहर निकाला था, माँ ने थोड़ी मशक्कत के बाद आखिरकार उसे वापस फिट करके चाय चढ़ा दी । इतनी मार खाकर रोते-सुबकते चोर भी पस्त पड़ गया था । माँ को तो वैसे ही उसको पिटते देख कर बहुत बुरा लगा था, ऊपर से उसकी ऐसी हालत देख कर माँ ने उसे भी एक कप चाय पकड़ा दी ।
चुपचाप चाय पीते हुए जाने माँ को बोरियत महसूस हूई या क्या हुआ, वे चोर से ही बतियाने लगी । पता चला, ये उसकी पहली चोरी थी...। घर में कोई कमाने वाला नहीं और खाने वाले चार मुँह...ऐसे में उसे यही सबसे तेज़ और असरदार रास्ता लगा कमाई का...। पढ़ा-लिखा ज़्यादा था नहीं...सरकारी स्कूल में कक्षा आठ तक ही पढ़ा पाए उसके पिता । फिर बीमार पड़ कर वो भी ख़त्म हो गए और साथ ही घर में कमाई का एकमात्र सहारा भी छिन गया । माँ ने पूछा...कोई रोज़गार क्यों नहीं शुरू कर दिया, तो बड़ी मासूमियत से उसने पूछा...दीदी...उसके लिए पैसा कहाँ से लाऊँ...? छूटते ही उन्होंने सवाल कर दिया...अगर तुमको पैसा मिल जाए तो कोई ईमानदारी का काम करोगे या उसे शराब-जुआ में उड़ा कर वापस चोरी करने लगोगे ? उसने अपनी माँ की क़सम खा कर ईमानदारी का जीवन बिताने की बात कही...पर उसका प्रश्न तो अब भी ज्यों-का-त्यों...पैसा कहाँ से आएगा...?
माँ का कहना है कि उस समय जाने क्यों उन्हें उसकी बातों पर यक़ीन आ रहा था, सो पता नहीं क्या सोच कर वे अन्दर गई और अपनी गुल्लक ले आई । घर के खर्चों से बचा कर, मायके से मिले तीज़-त्योहार के पैसे, सब थे उस गुल्लक में...यानि कई महीनों की अपनी पूरी बचत माँ ने उसे दे दी...।
माँ ने उसकी रस्सी खोलते वक़्त उससे वायदा लिया कि वो उन पैसों से कोई भी छोटा-मोटा काम शुरू कर देगा...। जब तक सब लोग एक पुलिसवाले को लेकर वापस आए, माँ की कहानी तैयार थी...। वो दस मिनट के लिए बाथरूम क्या गई, जाने किसने उसकी रस्सी खोल दी...। बाहर आई तो वो गायब था...बिना कुछ लिए, बस अपनी जान बचा के भाग गया वो...। पुलिसवाला तो लौट गया, पर उनका स्वभाव जानने वाले कई लोगों को माँ की इस बात पर हल्का शक़ था...। ख़ैर...!
इस घटना को बीते तीन-चार महीने निकल चुके थे । एक दिन माँ किसी काम से बाज़ार गई । लौटते समय वो रिक्शा ढूँढ ही रही थी कि तभी किसी ने उन्हें ‘दीदी...रुकिए तो...’ कह कर पुकारा । पलट के देखा, एक नौजवान वहीं मोड़ पर खोमचा लगाए खड़ा उन्हें आवाज़ दे रहा था । पहले तो माँ को लगा, किसी और को बुलाया होगा क्योंकि वे उसे पहचान तो रही नहीं थी...पर जब वह लगभग दौड़ता हुआ उनके पास आया तो पक्का हुआ, उन्हीं को ‘दीदी’ कह कर पुकारा था उस अनजान युवक ने...।
हाथ में मीठे पान का बीड़ा लेकर आए उस युवक ने समझ लिया कि वे उसे पहचान नहीं पा रही, सो उसने खुद ही अपना परिचय दे दिया,"पहचाना नहीं न दीदी...? मैं वही आपके घर आने वाला चोर हूँ, जिसे आपने पैसे दिए थे कोई काम शुरू करने के लिए...। याद आया...? देखिए, आपके पैसे से मैने पान का खोमचा लगा लिया है, दुबारा कभी चोरी के बारे में सोचा भी नहीं...। मेरा पूरा परिवार आपको दुआ देता है दीदी...। आपको देखते ही मैं पहचान गया था, ये मीठा पान तो खा लीजिए...।"
माँ थोड़ा शॉक्ड-सी अवस्था में एकदम अवाक खड़ी थी । उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि इस अप्रत्याशित स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए । उसी ने माँ के लिए रिक्शा बुलाया, उसे तय किया और फिर घर तक का किराया रिक्शेवाले को देता हुआ माँ से बोला...आपका उधार, अगर समर्थ हो गया तो भी, कभी नहीं चुका पाऊँगा...। काश! आप जैसा कोई और भी सोच पाता...। रुँधे-से गले और नम आँखों के साथ दूर तक माँ को जाते हुए देखते रह गए उस अजनबी चोर से माँ की फिर कभी मुलाक़ात नहीं हुई...। कुछ तो इस कारण कि माँ बहुत कम ही बाज़ार जा पाती थी, और कुछ इस कारण कि जाने क्यों, माँ उस बाज़ार की उस गली, उस मोड़ से बच कर ही निकलती रही...बरसों-बरस...।
माँ के लिए तो यह बस एक अच्छी लगने वाली याद भर है, पर मैं जब इस सुनी हुई याद का आकलन करती हूँ तो इससे दो बातें सीखने को मिलती हैं...। पहली ये कि इस दुनिया में लाख छल-फ़रेब, धोखे और विश्वासघात होते हों, पर उनके बीच भी किसी ज़रूरतमन्द पर यक़ीन करते हुए की हुई मदद कभी व्यर्थ नहीं जाती । दूसरी ये, कि ज़िन्दगी के सफ़र में हम किसी ग़लत राह पर भले ही कितनी दूर निकल जाएँ, पर सही रास्ते की ओर कदम बढ़ाने के लिए देर कभी नहीं होती...। एक नई शुरुआत हमेशा आपके स्वागत में बाँहें फैलाए खड़ी होती है, ज़रुरत है तो बस आगे बढ़ कर उन बाँहों को थामने की...।
( मेरी माँ...प्यारी माँ...)
आज मैं भी जब अपनी ज़िन्दगी के कुछ पुराने पन्ने पलटने चली, तो सहसा माँ की बहुत बार सुनाई एक घटना याद आ गई ।
बात बहुत पुरानी है...मेरे जन्म से पहले की...। माँ-पापा जिस किराये के मकान में रहते थे, वह सुरक्षा की दृष्टि से बहुत खराब कहा जा सकता है...। सच कहूँ तो माँ की क़िस्मत में जितने भी किराये के मकान आए, सभी बहुत असुरक्षित रहे...। लेकिन ख़ैर, अभी बात उस मकान की...जहाँ ये लोग मेरे जन्म से पहले रहने आए थे।
जाड़े के दिन थे शायद...। अब वैसे माँ को भी इतने अच्छे से याद नहीं कि जाड़ा था या गर्मी-बरसात में से कोई मौसम...पर उन्होंने जब भी ज़िक्र किया, सर्द-सुनसान रात का ही किया...। रात का यही कोई एक बजा रहा होगा...। पूरा मोहल्ला गहरी नींद में था । उस मकान में रसोई बाहर आँगन में थी...और आँगन के पार ही एक छोटा सा गेट...इतना छोटा कि कोई भी बड़ी आसानी से फाँद जाए...। माँ की नींद बाहर रसोई में ही हो रही हल्की खटर-पटर से टूट गई । उन्होंने कमरे की झिरी से झाँक कर देखा तो रसोई का दरवाज़ा खुला हुआ था । माँ थोड़ा संशय में आ गई...। इतनी लापरवाह तो वो थी नहीं कि ताला बन्द किए बग़ैर रसोई ऐसे खुली छोड़ कर सो जाएँ...पर फिर भी, क्या पता...? छोड़ ही दिया हो तो...? अभी वे कुछ करने की सोच ही रही थी कि तभी बगल के मकान की ऊपरी मंज़िल में रहने वाले कुलश्रेष्ठ जी की ज़ोरदार दहाड़ सुनाई दी...कौन है वहाँ...? गुप्ता जी...ये आपके आँगन में कौन है इतनी रात गए...?
कुलश्रेष्ठ साहब के छज्जे से माँ का आँगन साफ़ दिखता था...और बाथरूम के लिए उठे मि. कुलश्रेष्ठ बस एक सावधानीवश आसपास का जायजा लेने के लिए अपने कमरे से बाहर छज्जे पर आए ही थे कि उन्हें हमारे यहाँ रसोई से गैस का सिलेण्डर खींच कर बाहर निकालता हुआ कोई शख़्स दिख गया । पापा को आवाज़ लगाने के साथ-साथ उन्होंने हमारे मकान-मालिक के तीन जवान-जहान, थोड़े दबंग किस्म के लड़कों, अपने बगल में रह रहे सिंह साहब, हमारे ही ऊपर के हिस्से में रहने वाले गंगवार साहब...सिंघल साहब...यानि कि जिसका-जिसका नाम याद आता गया, वे पुकारते गए...गुप्ता जी के यहाँ कोई चोर है...पकड़ो...।
माँ बताती हैं कि पतले-दुबले होने के बावजूद कुलश्रेष्ठ साहब में बला की फ़ुर्ती और हिम्मत थी...। जिन-जिन का नाम उन्होंने लिया...सबके सब दिलेर किस्म के लोग...। इत्तेफ़ाकन ये सब लोग गाँव की पृष्ठभूमि से होने के कारण भी इस तरह की स्थितियों से निपटने में अच्छी तरह सक्षम थे । बेचारा...क़िस्मत का मारा चोर जब तक कुछ समझ पाता...भाग पाता...वो बुरी तरह घिर गया था । सबको इकठ्ठा हुआ देख माँ भी बाहर आ गई थी । माँ को छोड़ कर वहाँ आ चुके हर व्यक्ति ने इतनी ठण्ड में रजाई से निकल कर बाहर खुले में आने की खुन्नस उस पर हाथ जमा कर निकाली...। चोर कुछ मार खा कर और शायद थोड़ा अपने अंजाम से डर कर पिटता हुआ रोता जा रहा था । जितना गिड़गिड़ा कर वो वहाँ इकठ्ठा भीड़ से रहम माँग रहा था, उतनी ही बेचैनी से माँ भी सबको रोके जा रही थी...छोड़ दीजिए...मत मारिए...। चोट लग रही होगे इसे...। माँ और चोर की इस संयुक्त गुहार से परेशान होकर वहाँ मौजूद कुछ बड़े-बुजुर्गों ने सबसे पहले माँ को डाँट कर चुप कराया, फिर चोर को अच्छी तरह ठोंक-पीट कर वहीं रसोई की खिड़की से बाँध कर यह तय पाया गया कि अब थाने में चल कर रपट लिखाई जाए । आगे की कार्यवाही पुलिस देखेगी ।
चोर को चूँकि हमारे ही घर पर बाँध दिया गया था, सो वहाँ मौजूद कुछ महिलाओं के साथ माँ को भी ध्यान देने का समझा कर सब लोग इलाके के थाने की ओर चल पड़े । कुछ देर तक तो अड़ोसी-पड़ोसी महिलाएँ माँ के पास बैठी रही, फिर शायद जाड़े की नींद उन सब पर हावी होने लगी, सो एक-एक कर के सावधान रहने और कोई ज़रूरत होने पर आवाज़ देने को कह कर वे सब अपने-अपने घर चली गई । रह गए तो सिर्फ़ माँ और सुबकियाँ भरता...कराहता चोर...।
बीच रात में ये सारा काण्ड हो जाने से अब भोर होने तक माँ कुछ थक भी गई थी और ठण्ड से उनको चाय की तलब भी लग रही थी । सो जो सिलेण्डर चोर ने घसीट कर बाहर निकाला था, माँ ने थोड़ी मशक्कत के बाद आखिरकार उसे वापस फिट करके चाय चढ़ा दी । इतनी मार खाकर रोते-सुबकते चोर भी पस्त पड़ गया था । माँ को तो वैसे ही उसको पिटते देख कर बहुत बुरा लगा था, ऊपर से उसकी ऐसी हालत देख कर माँ ने उसे भी एक कप चाय पकड़ा दी ।
चुपचाप चाय पीते हुए जाने माँ को बोरियत महसूस हूई या क्या हुआ, वे चोर से ही बतियाने लगी । पता चला, ये उसकी पहली चोरी थी...। घर में कोई कमाने वाला नहीं और खाने वाले चार मुँह...ऐसे में उसे यही सबसे तेज़ और असरदार रास्ता लगा कमाई का...। पढ़ा-लिखा ज़्यादा था नहीं...सरकारी स्कूल में कक्षा आठ तक ही पढ़ा पाए उसके पिता । फिर बीमार पड़ कर वो भी ख़त्म हो गए और साथ ही घर में कमाई का एकमात्र सहारा भी छिन गया । माँ ने पूछा...कोई रोज़गार क्यों नहीं शुरू कर दिया, तो बड़ी मासूमियत से उसने पूछा...दीदी...उसके लिए पैसा कहाँ से लाऊँ...? छूटते ही उन्होंने सवाल कर दिया...अगर तुमको पैसा मिल जाए तो कोई ईमानदारी का काम करोगे या उसे शराब-जुआ में उड़ा कर वापस चोरी करने लगोगे ? उसने अपनी माँ की क़सम खा कर ईमानदारी का जीवन बिताने की बात कही...पर उसका प्रश्न तो अब भी ज्यों-का-त्यों...पैसा कहाँ से आएगा...?
माँ का कहना है कि उस समय जाने क्यों उन्हें उसकी बातों पर यक़ीन आ रहा था, सो पता नहीं क्या सोच कर वे अन्दर गई और अपनी गुल्लक ले आई । घर के खर्चों से बचा कर, मायके से मिले तीज़-त्योहार के पैसे, सब थे उस गुल्लक में...यानि कई महीनों की अपनी पूरी बचत माँ ने उसे दे दी...।
माँ ने उसकी रस्सी खोलते वक़्त उससे वायदा लिया कि वो उन पैसों से कोई भी छोटा-मोटा काम शुरू कर देगा...। जब तक सब लोग एक पुलिसवाले को लेकर वापस आए, माँ की कहानी तैयार थी...। वो दस मिनट के लिए बाथरूम क्या गई, जाने किसने उसकी रस्सी खोल दी...। बाहर आई तो वो गायब था...बिना कुछ लिए, बस अपनी जान बचा के भाग गया वो...। पुलिसवाला तो लौट गया, पर उनका स्वभाव जानने वाले कई लोगों को माँ की इस बात पर हल्का शक़ था...। ख़ैर...!
इस घटना को बीते तीन-चार महीने निकल चुके थे । एक दिन माँ किसी काम से बाज़ार गई । लौटते समय वो रिक्शा ढूँढ ही रही थी कि तभी किसी ने उन्हें ‘दीदी...रुकिए तो...’ कह कर पुकारा । पलट के देखा, एक नौजवान वहीं मोड़ पर खोमचा लगाए खड़ा उन्हें आवाज़ दे रहा था । पहले तो माँ को लगा, किसी और को बुलाया होगा क्योंकि वे उसे पहचान तो रही नहीं थी...पर जब वह लगभग दौड़ता हुआ उनके पास आया तो पक्का हुआ, उन्हीं को ‘दीदी’ कह कर पुकारा था उस अनजान युवक ने...।
हाथ में मीठे पान का बीड़ा लेकर आए उस युवक ने समझ लिया कि वे उसे पहचान नहीं पा रही, सो उसने खुद ही अपना परिचय दे दिया,"पहचाना नहीं न दीदी...? मैं वही आपके घर आने वाला चोर हूँ, जिसे आपने पैसे दिए थे कोई काम शुरू करने के लिए...। याद आया...? देखिए, आपके पैसे से मैने पान का खोमचा लगा लिया है, दुबारा कभी चोरी के बारे में सोचा भी नहीं...। मेरा पूरा परिवार आपको दुआ देता है दीदी...। आपको देखते ही मैं पहचान गया था, ये मीठा पान तो खा लीजिए...।"
माँ थोड़ा शॉक्ड-सी अवस्था में एकदम अवाक खड़ी थी । उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि इस अप्रत्याशित स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए । उसी ने माँ के लिए रिक्शा बुलाया, उसे तय किया और फिर घर तक का किराया रिक्शेवाले को देता हुआ माँ से बोला...आपका उधार, अगर समर्थ हो गया तो भी, कभी नहीं चुका पाऊँगा...। काश! आप जैसा कोई और भी सोच पाता...। रुँधे-से गले और नम आँखों के साथ दूर तक माँ को जाते हुए देखते रह गए उस अजनबी चोर से माँ की फिर कभी मुलाक़ात नहीं हुई...। कुछ तो इस कारण कि माँ बहुत कम ही बाज़ार जा पाती थी, और कुछ इस कारण कि जाने क्यों, माँ उस बाज़ार की उस गली, उस मोड़ से बच कर ही निकलती रही...बरसों-बरस...।
माँ के लिए तो यह बस एक अच्छी लगने वाली याद भर है, पर मैं जब इस सुनी हुई याद का आकलन करती हूँ तो इससे दो बातें सीखने को मिलती हैं...। पहली ये कि इस दुनिया में लाख छल-फ़रेब, धोखे और विश्वासघात होते हों, पर उनके बीच भी किसी ज़रूरतमन्द पर यक़ीन करते हुए की हुई मदद कभी व्यर्थ नहीं जाती । दूसरी ये, कि ज़िन्दगी के सफ़र में हम किसी ग़लत राह पर भले ही कितनी दूर निकल जाएँ, पर सही रास्ते की ओर कदम बढ़ाने के लिए देर कभी नहीं होती...। एक नई शुरुआत हमेशा आपके स्वागत में बाँहें फैलाए खड़ी होती है, ज़रुरत है तो बस आगे बढ़ कर उन बाँहों को थामने की...।
( मेरी माँ...प्यारी माँ...)
6 comments
Lovely...ye waise sun chuke hain shayad? yaad nahi aa raha lekin agar nahi sunaa hai tab to samajh lo...tumhari khair nahi :P
ReplyDeleteखूबसूरत संस्मरण है..........मां जैसा ही खूबसूरत
ReplyDeleteएक खूबसूरत दिल ने एक प्यारी सोच ने एक गुनहगार को हमेशा के लिये गुनाहों के रास्ते पर चलने से बचा लिया, वर्ना कौन जाने पुलिस में दे दिये जाने पर उसके परिवार का गुजारा कैसे होता और सजा काटने पर भी उसके सुधरने के बजाय गलत रास्ते ही अख्तियार करने के चांसेज ज्यादा होते।
प्रणाम
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत प्यारा
ReplyDeleteअत्यंत प्रेरक संस्मरण
आभार इसके लिए
ReplyDelete
बहुत प्यारा
ReplyDeleteअत्यंत प्रेरक संस्मरण
आभार इसके लिए
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बहुत प्यारी कथा
ReplyDeleteअत्यंत प्रेरक
आभार इसके लिए