एक अधूरी कहानी- 11
Sunday, October 03, 2021(कल से जारी...)
भाग- ग्यारह
हम दोनों आज जाने कितने दिन बाद स्काइप पर बतिया रहे थे। रात गहरा गई थी और दोनों निन्दियाये हुए थे।
"मैं थोड़ा सो लूँ...?" उस ने जम्हाई लेते हुए पूछा और एक अंगड़ाई लेकर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए अपनी तरफ लेट गई ।
मैंने भी कोई जवाब देना जरूरी नही समझा और अधलेटा हो गया। वह करवट लेटी अधमुँदी आँखों से मुझे ताक रही थी। मैंने भी करवट लेकर अपना मोबाइल दीवार के सहारे लिटा दिया।
"क्या सोच रही...?" इतनी बातूनी लड़की जब खामोश होती थी तो मुझे फ़िक्र हो जाती थी...कहीं किसी बात से परेशान हो फिर तो कुछ उल्टा सीधा नहीं सोच रही...।
"ऊँ हूँ...कुछ नहीं...। बस देख के महसूस कर रही हूँ...। मीलों दूर होकर भी तुमको अभी ऐसा नहीं लग रहा मानो हम बिलकुल उसी तरह एक साथ हैं, जैसे हमने सपने देखे थे...। साझे बिस्तर पर एक साथ...यूँ ही चुपचाप एक दूसरे को देखते हुए बस सो जाना...और सुबह आँख खुलने पर भी बस एक दूसरे के चेहरे का सामने होना...। याद है, मैं हमेशा कहती थी... बेड की दीवार वाली साइड मेरी...वर्ना तुम नींद में मुझे नीचे गिरा दोगे...। याद है न...?" उसकी आँखों में अब बिना नींद के ही सपने तैरने लगे थे...।
"याद है... बहुत अच्छे से...। तुम्हारा हर सपना...हर ख़्वाहिश... सब कुछ अच्छे से याद है...।"
वह खुश हो गई थी, पर जाने क्यों मैं थोड़ा उदास था...। मैंने तो हमेशा की तरह उससे कहा भी नहीं, डोंट वरी, हमारा ये सपना पूरा होगा...। ज़रूर होगा...। मैंने तो 'हमारा' भी नहीं कहा, जैसे कहीं एक डर हो कि उसके बहुत सारे सपनो की तरह ये सपना भी 'हमारा' कह भर देने से उसका हो जाएगा...और उसका होते ही इस दुनिया की कठोर सच्चाई से टकरा के टूट जाएगा...।
वह अब भी अपने ख़्यालों में गुम हलके हलके मुस्कराती मुझे देखे जा रही थी, उसने शायद ध्यान ही नहीं दिया था मेरी उदासी की ओर...।
पर मैं फिर गलत साबित हो गया। उसको मैं जितना बेपरवाह और मस्त समझता था, वह उतनी बार ही मुझको अचानक से ही चौंका देती है,"अब तुम तो ऐसे उदास न हो...। एन्जॉय करो ये पल...। ज़रूरी तो नहीं हर सपना पूरा होने के लिए ही देखा जाए...।"
अचानक मैं भी मुस्कराने लगा था। बहुत बार ऐसा होता था कि हम दोनों के पास ही मुस्कराने की वजह नहीं होती थी...और फिर हम दोनों ही खिलखिला पड़ते थे...।
(जारी है...कल)
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