ये रिश्ता क्या कहलाता है...?

Tuesday, August 01, 2017



इस दुनिया में कौन ऐसा होगा जो रिश्तों की बाबत न जानता हो, पर बावजूद इसके कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिन्हें आप बहुत आसानी से हरेक को नहीं समझा सकते...| मेरा उसका रिश्ता भी कुछ-कुछ ऐसा ही था...| बेहद अपना सा...पर किसी भी परिभाषा के दायरे से बाहर...| दस सालों के उस साथ में मैं कभी ये जान ही नहीं पाई कि एक ज़माने में उसके घर आने की सबसे ज्यादा खिलाफ़त करने वाली मैं ही उससे सबसे ज़्यादा करीब हो जाऊँगी...| सबकी मर्जी के आगे समझौता करते हुए जब मैंने उसे घर लाने की इजाज़त दी, तब भी नहीं...|

आखिरकार 29 जून, 2007 को वो मेरे घर आ ही गया...पूरी ठसक के साथ...आम कम्प्यूटरों के मुकाबले कुछ अधिक ही दाम चुकाने के बाद...| जी हाँ, मैं बात कर रही थी अपने दस साल पुराने साथी, राज़दार और बेहद अच्छे दोस्त की भूमिका निभाने वाले अपने कंप्यूटर की...| चुनमुन उस समय छोटा था, सो उसकी लाख चिरौरी के बावजूद मैं कभी कंप्यूटर खरीदने के मामले में नहीं पसीजती थी...| सबसे सुनी...अखबारों में पढी घटनाएँ मेरे दिमाग में अड्डा जमा कर जो बैठी थी...| कंप्यूटर में ग़लत-सलत चीजें होती हैं, नेट पर जाने क्या-क्या खतरे होते हैं...| सोशल मीडिया पर नकली परिचय वाले अपराधी ताक में रहते हैं कि कब कोई फँसे और कब वे उसका अपहरण या मर्डर कर डालें...| अगर ये नहीं तो बच्चे दिन भर गेम खेल खेल कर आखिर में मानसिक रोगी होने के अलावा इम्तिहान में जो साल-दर-साल फेल होते हैं, उसका क्या...? कुल मिला कर कंप्यूटर मेरे लिए किसी अनजान-ख़तरनाक हौव्वे से कम नहीं था...और कौन समझदार माँ कोई भी ऐसी हौव्वा टाइप चीज अपने घर लाने की इजाज़त देगी, सो मैंने भी नहीं दी...|

पर बुरा मनाऊँ नई शिक्षा पद्धति का या भला, स्कूल में सारे असाइनमेंट और प्रोजेक्ट ऑनलाइन कर दिए गए...| हर स्टूडेंट को एक आईडी दी गई ताकि वह लॉग इन करके सीधे वहीं, अपने असाइनमेंट को पूरा कर जमा कर दे...| अब मैं हँसती या रोती, कुछ नहीं हो सकता था...| ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ कंप्यूटर हमारे घर आ ही गया | स्कूल की दया से चुनमुन तो आते ही कंप्यूटर चला कर खेलने में जुट गए और मैं किसी बुडबक की तरह उसे ऑन कैसे करते हैं, यही समझने की जुगत में लगी थी...| स्कूल के प्रोजेक्ट के चलते इन्टरनेट कनेक्शन लेना भी ज़रूरी था...| उस दिन शनिवार था, सो यह तय हुआ कि सोमवार को ही बीएसएनएल ऑफिस जाकर सारी कार्यवाही पूरी करके इन्टरनेट लगवाने का श्रीगणेश भी कर दिया जाए...| चुनमुन बेहद खुश था, पर अन्दर ही अन्दर टेंशनियाने के बावजूद मैं भी तो उन महाशय की माँ ही थी...उनसे उस समय आठ-दस कदम आगे...| सो सोमवार को इधर नेट के लिए आवेदन हुआ, उधर मैंने घर के ही पास के एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में दाखिला ले लिया...| आखिर उसपर काबू रखने के लिए ज़रूरी था कि इस अनजानी शै के बारे में मैं भी कुछ जान-सीख लूँ |

उस इलाके में बिखरे पड़े तमाम इंस्टिट्यूटो के बीच वो एक ऐसा इंस्टिट्यूट लगा, जहाँ ढेर सारे स्टूडेंट्स के होने के बावजूद सारा माहौल काफी हद तक एक पारिवारिकता अपने अन्दर संजोये था| सारे स्टूडेंट्स के सामने मेरी स्थिति तो किसी सीनियर सिटीजन जैसी थी...| ज़्यादातर बारहवीं और ग्रेज्युशन के शुरुआती दौर वाले बच्चे थे...| उस समय चुनमुन की बदमाशियों के चलते भयानक दौड़ते-भागते माशाअल्लाह हम भी एकदम्मे स्लिम ट्रिम हुआ करते थे...सो उन बच्चों के बीच मैं बेहद आसानी से खप जाती, पर भगवान भला करे हमारे कंप्यूटर सर का...उस दिन इंट्रोडक्टरी सेशन में ही उन्होंने अत्यंत श्रद्धा भाव से इमोशनल होते हुए- कुछ सीखने के लिए कभी देर नहीं होती- के उदाहरण स्वरूप मुझे बुजुर्ग घोषित करने में कोई कसर नहीं छोडी...| खैर, उस दिन सभी बच्चों की दीदी बन कर कुछ दिन में कईयों के साथ बेहद अच्छा सम्बन्ध बन गया...| छह महीनों का वो दौर...उन दिनों सुबह के वो दो घंटे, जब चुनमुन को स्कूल बस में चढ़ा मैं रिक्शा करके भागती हुई इंस्टिट्यूट पहुँचती थी, मेरी ज़िंदगी के चंद बेहद खूबसूरत घंटों में शुमार किए जा सकते हैं...| सबसे बड़ी होने के बावजूद उन बड़े हो रहे बच्चों के साथ मस्ती करते मैं जाने कितने दुःख भूल जाती थी...| अपने बचपन में कभी शरारत न कर पाने का मलाल उन छह महीनों में कहीं बिसरा गया था| प्रैक्टिकल करते वक्त एक दूसरे की मदद करने के बावजूद एक दूसरे से आगे निकलने की होड़...सर के अचानक कुछ पूछ लेने पर किसी का उनके पीछे से इशारा करके नक़ल करवाना...किसी की शरारत की पोल खुल जाने पर उसके पक्ष में गवाही देकर मेरा अपने गुडविल का इस्तेमाल करते हुए डांट से बचा ले जाना...ऐसे जाने कितनी बातें थीं जिनके माध्यम से मैं एक बार फिर से अपनी ज़िंदगी से नदारत पलों को जी रही थी...|

उन्ही दिनों मेरे स्कूल का गोल्डन जुबली फंक्शन हुआ...| वहाँ कुछ पुराने दोस्त मिले, नम्बरों का आदान-प्रदान होने के साथ ही सवाल पूछा गया- ऑरकुट पर हो तुम...? मेरे लिए वो कुछ ऐसा ही प्रश्न था, जैसे कोई मुझसे मंगल ग्रह पर मेरे घर का पता पूछ ले...| एक बार फिर मैं अपने पुराने साथियों के बीच बुड़बक जैसा महसूसने लगी...| खैर! इसका हल मेरी एक सहपाठी ने निकाला...मैं बना दूंगी तुम्हारा ऑरकुट अकाउंट...| और लीजिए, ऑरकुट पर मेरा अकाउंट बनने के चक्कर में मेरा जीमेल अकाउंट भी बन गया...|

ऑरकुट पर आ जाने के बावजूद इस आभासी दुनिया के काले कारनामों के प्रति मेरे मन का डर जस का तस था, सो उसमे भी सिर्फ़ मेरे चंद परिवारवाले और कुछ गिने चुने स्कूल के साथियों को ही शामिल किया| जीमेल का इस्तेमाल करते हुए भी इतना डरती थी कि सिर्फ़ चिंटू और अमेरिका में रह रहे अपने जेठ-जिठानी और उनकी बेटी को ही मेल्स भेजती...| उसी दौरान कहीं ब्लॉग का नाम भी पढ़ लिया, जिसके लिए सिर्फ़ इतना पता चला कि उसमे आप अपनी दिल की बात लिख सकते है, यानी जो चाहें वो...कविता-कहानी, कुछ भी...| खुद कुछ समझ नहीं आया तो अपने सर से पूछा...| उनका मैं बेहद सम्मान करती हूँ पर अब सोच के हँसी आती है कि उन्होंने एक ब्लॉग बनाने का खर्चा ही एक लाख रुपये के आसपास बता कर मेरे उत्साह पर घड़ों पानी फेर दिया...| न नौ मन तेल होता, न कभी राधा नाचने की सोचती भी...| जितनी तेज़ी से मन में ब्लॉग बनाने का विचार आया, उससे भी ज़्यादा तेज़ी से फुस्स भी हो गया|

ब्लॉग बनाने का आईडिया शायद कभी दुबारा दिमाग में आता भी नहीं अगर उसी दौरान कहीं पर एक लेख न पढ़ा होता, ब्लागस्पाट पर ब्लॉग बनाने का पूरा तरीका बताते हुए...| अंधा क्या चाहे, दो आँखें...सो उस लेख में बताए तरीकों की मदद से झटपट ब्लॉग भी बना डाला...| शुरुआती तकनीकी कठिनाइयों और बाधाओं को जैसे किसी न किसी बहाने ईश्वर ही दूर करता चल रहा होगा, तभी तो जाने कहाँ-कहाँ से मुझे ऐसे लेख पढने को मिलते रहते थे जिनसे अपनी कई समस्याएं दूर करने में बहुत मदद मिल जाती थी|

इसी दौरान ब्लॉग-पोस्ट्स पर कमेंट आने की शुरुआत हुई| तब तक नेट पर पढ़े-सुने खतरों के प्रति मन का भय अगर ख़त्म नहीं भी हुआ तो कुछ हद तक कम हो ही गया था, सो मैं कुछ कुछ कमेंट्स का मेल में जवाब भी देने लगी थी...| धीरे-धीरे जब इस आभासी दुनिया को करीब से देखना समझना शुरू किया तो लगा, ये भी तो हमारी दुनिया जैसी ही दुनिया है...| वैसे ही अच्छे-बुरे लोग...वैसा ही अपना और परायापन...मधुरता और कटुता...| आश्चर्यजनक रूप से इस आभासी दुनिया से ही मुझे इस असल दुनिया से भी ज़्यादा अपने और सच्चे रिश्ते मिले...| कोई मेरे चाचा बने, किसी पिता-तुल्य शख्सियत में मुझे एक गुरू मिला, कहीं कोई बुआ थी तो कभी छोटे-बड़े भाई-बहन, भाभियाँ और ढेर सारी सखियाँ-सहेलियाँ भी मिल गए...| कुल मिला कर किस्मत ने रिश्तों का खज़ाना मेरे आगे खोल दिया था, जिनमे से वैसे तो अधिकतर मोती और हीरे जैसे ही थे...पर कभी किसी समय मेरे अन्दर बैठे भय ने खुद को साबित करते हुए कुछ मिट्टी जैसे भुरभुरे लोग भी मिलवा दिए| खुशकिस्मती से ऐसे लोगों की संख्या न केवल नगण्य रही, बल्कि सही समय पर मैंने उन्हें आँगन में घुस आई धूल की तरह अपनी ज़िंदगी से बहा कर दूर भी कर दिया...|

कुल मिला कर असल और आभासी दुनिया के मेरे अनुभव कहीं से भी अलग नहीं लगे, बल्कि अगर मैं कहूं कि इस आभासी दुनिया ने मुझे ज़िन्दगी में जाने कितना कुछ सिखा दिया तो ग़लत नहीं होगा| कंप्यूटर घर लाने, उसे सीख कर कभी खुद और कभी किसी की मदद से उस पर काम करते हुए ही मेरे और माँ के कई संग्रह निकल गए...| लिखना तो बढ़ा ही, देशी-विदेशी साहित्य पढने  का आनंद भी नेट पर खूब उठाया| दसवीं तक चुनमुन को खुद अपने दम पर पढ़ाते वक्त भी जाने कितनी बार जब भी अटकी, एक सच्चे साथी की तरह यही मेरे काम आया...| जब भी अकेलापन सालने लगा, इस पर मूवीज और सीरीज देख कर...इस पर बजते गानों के साथ खुद भी गुनगुना कर उस तन्हा अहसास को अपने से दूर कर दिया...| संक्षेप में कहूं तो अपने इस साथी के साथ ही मेरी अनगिनत खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं...|

पिछले कुछ महीनों में मेरा ये साथी बुढ़ाने लगा था| मेरी ज़रूरतें बढ़ रही थीं और उसके पास अब उन ज़रूरतों को पूरा करने का दम-ख़म नहीं बचा था| जैसे घर का कोई बड़ा-बुजुर्ग किसी काम का न रहे तो उसके ही बच्चे उसे वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी कर लेते हैं, कुछ-कुछ वही हाल मेरे घर में भी होने लगा था...| रोज़ रोज कांखते-काँपते मेरे उस वृद्ध साथी को डॉक्टर को दिखाने और इलाज करवाने में अब किसी की कोई रूचि नहीं रह गई थी...| उसका साथ न छोड़ने की अपनी जिद के चलते एक-दो बार तो किसी तरह मैंने उसका इलाज करवा भी दिया, पर रोज़-रोज़ कौन किसी पर ऐसे पैसे खर्च करने को तैयार होता? सो हाल के ही एक दिन बेहद भारी मन से मेरा वो साथी मेरे घर से, मेरी ज़िंदगी से विदा ले गया...| मज़े की बात, जाते-जाते उसने एक बार फिर भकभका कर अपनी तेज़ रोशनी की चमकार दिखा दी, मानो कह रहा हो- देखो, बूढा हो गया हूँ पर अब भी कितनी जान बाकी है...|

मेरा कंप्यूटर तो चला गया और उसकी जगह लेने आज के ज़माने का लैपटॉप भी आ गया, पर उसकी खाली हुई जगह पर जब-जब निगाह जाती है, बस एक ही ख्याल आता है...| इस रंग-बिरंगी दुनिया में, जहाँ सच के रिश्तों का किसी की नज़र में कोई मोल नहीं रहा, वहाँ एक निर्जीव कंप्यूटर के साथ मेरा ये मन का रिश्ता आखिर क्या कहलाएगा...?   






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1 comments

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