एक खास इंसान...और कुछ आम-सी बातें...
Saturday, September 07, 2013
देखते-देखते एक और ‘टीचर्स डे’ यानि कि शिक्षक दिवस आकर चला गया...। बहुत सारे दिवसों की तरह एक और दिवस...पर फिर भी बहुत महत्वपूर्ण...। वैसे तो स्कूल जाने से शिक्षा की शुरुआत मानते हैं लोग, पर अगर देखा जाए तो जिस दिन बच्चा पहली साँस लेता है, उसकी शिक्षा की शुरुआत उसी क्षण से हो जाती है...। वह अपने आसपास से धीरे-धीरे सब कुछ सीखता है। उसके जीवन की दिशा बहुत हद तक निर्धारित होनी शुरू हो जाती है।
बच्चे के लिए पहली पाठशाला उसका घर और पहली शिक्षक उसकी माँ को माना जाता है। पर जैसे जैसे वो उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है, उसका स्कूल, उसके शिक्षक, उसके मित्र और फिर उसके जीवन में आने वाले बहुत सारे लोग उसे जाने कितना कुछ सिखा जाते हैं। अगर इंसान में सीखने की ललक हो तो ये सीखना-सिखाना ज़िन्दगी की अन्तिम साँस तक चलता ही जाता है।
कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती...। कोई और माने, न माने...मैं इस बात को मानती हूँ। मैं आज भी हर किसी से कुछ-न-कुछ सीखने की कोशिश करती ही हूँ...। चाहे समय लगे, पर मेरे अनुभव की किताब में आखिरकार एक नया पन्ना तो जुड़ ही जाता है...। अनुभव अच्छे होते हैं तो वो एक खुशनुमा याद और सीख दे जाते हैं, बुरे हों तो भी सावधान तो कर ही जाते हैं, मेरी आगे की ज़िन्दगी के लिए...।
सीखने के लिए सामने वाले की उम्र, पद, प्रतिष्ठा या अनुभव मत देखिए...ये देखिए कि क्या नया है उसके पास जिसका एक अंश आप भी अपने खज़ाने में जमा कर सकते हैं...। आप सिर्फ़ इंसान से ही नहीं, जीव-जन्तुओं और प्रकृति से भी कितना कुछ सीख सकते हैं...कभी कोशिश तो कीजिए...।
ये कोशिश मैं हमेशा जारी रखती हूँ...। एक मासूम बच्चे से मैं उसकी उन्मुक्त और छल-रहित सच्ची हँसी सीखती हूँ...फूलों से सीखती हूँ कि जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी जब तक रहो, सबको सकून पहुँचाओ...मुस्कराओ...खुशबू बिखराओ...चाहे भले ही खुद काँटों के बीच रहो। नदी हर पल आगे बढ़ना सिखाती है तो ठहरा पानी ये कहता है कि रुके तो मेरी तरह ही सड़ जाओगे...। कितना सच है न...? मैने ऐसे लोगों को देखा है जो जीवन के एक पड़ाव तक सीख कर रुक गए...। आज अपनी सड़ी-गली सोच...अपनी बजबजाती मानसिकता से अपने आसपास के वातावरण को दूषित ही करते हैं ऐसे रुके हुए लोग...। एक गरीब मजदूर जब साथियों संग हँसते-बोलते हुए रूखी रोटी और नमक खाता है और फिर भी मुस्कराता है, तो वो मुझे अभावों में भी संतुष्ट रहने का गुण सिखा जाता है...।
खुशकिस्मती से मेरे जीवन में समय-समय पर बहुत लोग ऐसे आते गए जिन्होंने मुझे बहुत कुछ नया सिखाया...अच्छा सिखाया...। उनमें से न जाने कितने तो ऐसे हैं जिनसे मैं कभी व्यक्तिगत रूप से मिली ही नहीं। छोटी थी तो पत्र माध्यम थे, आज तकनीकी युग में ईमेल और फोन-कॉल्स सम्पर्क के साधन बन गए...। दुर्भाग्यवश कुछ को नियति ने छीन लिया तो कुछ अब भी अपना वरद-हस्त मेरे सिर पर रखे हुए हैं...।
अगर छात्र-जीवन की बात करूँ तो कुछ शिक्षिकाएँ आज भी बहुत याद आती हैं...। किस्मत मेहरबान थी, सो कुछ वर्ष पूर्व मैं अपनी सारी फ़ेवरेट शिक्षिकाओं से एक बार फिर मिलने का सौभाग्य पा सकी...अपने स्कूल के गोल्डन जुबली फ़ंक्शन में...। पर उनकी बातें फिर किसी पोस्ट में...। आज तो एक ऐसी खास शख़्सियत के बारे में बताने जा रही, जो वैसे पेशे से तो शिक्षा के क्षेत्र में रहे, पर उस लिहाज से मैं उनकी छात्रा नहीं रही कभी...। पर मेरे लिए उन्होंने एक शिक्षक...एक मार्गदर्शक का रोल निभाया है जैसे...और सबसे बड़ी बात...एक शानदार और अच्छे इंसान के रूप में बहुत बड़े प्रेरणास्रोत हैं वो मेरे लिए...।
मैं आज अपने लेखन जगत से जुड़े एक प्रतिष्ठित लेखक आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की बात कर रही...। उनसे कुछ वर्ष पूर्व इंटरनेट के माध्यम से सामान्य-से परिचय की शुरुआत हुई। एक-दो बार के सम्पर्क में ही वे मुझे ‘बेटी’ और मैं उन्हें ‘अंकल जी’ कहने लगी...। वो एक स्थापित लघुकथाकार होने के साथ-साथ वेब की दुनिया में हिन्दी हाइकु और त्रिवेणी नाम की शायद अकेली ऐसी पत्रिकाएँ संचालित कर रहे, जो जापानी शैली की कविताओं-हाइकु, ताँका, सेदोका और चोका-को पूर्णतया समर्पित हैं। इसके कुशल संचालन में आस्ट्रेलिया में बसी एक और सशक्त लेखिका सुश्री हरदीप कौर संधू जी भी इनके साथ पूरी तन्मयता से जुड़ी हुई हैं...। दुनिया के बहुत सारे देशों तक इन पत्रिकाओं के पाठक और लेखक फैले हुए हैं...। इसके अलावा लघुकथा डॉट कॉम नाम से एक लघुकथा की वेब पत्रिका तो है ही...। फिर न जाने कितने संग्रहों का सम्पादन और बहुत सारी पत्रिकाओं का समय-समय पर अथिति सम्पादन का दायित्व भी सम्भालते ही रहते हैं...।
ये तो इनके लेखकीय कार्यों का जिक्र है...। मैं आज इनके बारे में सिर्फ़ इस कारण बात नहीं कर रही कि ये एक बहुत बड़े लेखक हैं, बल्कि इस कारण कर रही क्यों कि इनके अन्दर के इंसानी व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है...।
एक आम इंसान के मन में लेखक कुछ अनोखा ही प्राणी होता है...दुनिया से निराला...। जो अपनी लेखनी से दुनिया सुधारने का जिम्मा लेता है, वो खुद भी कितना महान होता होगा...। पर असलियत अधिकतर इससे उलट ही देखी है मैने...। आम दुनिया वालों की तरह ही लेखन के क्षेत्र में भी गला-काट प्रतियोगिता, ईर्ष्या, दंद-फंद, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़, गुटबाजी, द्वेष...सब मौजूद हैं और अपने चरम के साथ मौजूद हैं...। बहुत सारे ऐसे लेखक मिले जिनके सामने मैं और मेरा लेखन दोनो ही बच्चे से बड़े हुए, पर आज जब भी मुझे कोई सफ़लता मिलती है, तो ईर्ष्या से खाक-सा हो जाने की महानता सबसे पहले वे ही दिखाते हैं...। बड़ा अफ़सोस होता है ऐसे लोगों को देख कर कि जो खुद की ऐसी मानसिकता नहीं बदल पा रहे, वे समाज को क्या बदलेंगे...?
पर काम्बोज अंकल के सम्पर्क में आकर मेरा ये अफ़सोस बहुत हद तक कम हो गया। परिचय के कुछ दिन बीतते-बीतते एक दिन उन्होंने मुझसे पूछ लिया, तुम हाइकु क्यों नहीं लिखती...। जवाब मैने भी सच्चा ही दिया...जब हाइकु लिखना आता ही नहीं तो कैसे लिखूँ...? सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि ये मामूली सा सवाल और उसका उससे भी मामूली जवाब मेरे लेखन में एक और विधा जोड़ने की नींव बनने जा रहा। मेरी बात सुन कर आराम से बैठने की बजाय काम्बोज अंकल ने न केवल मुझे पूरी गहराई से हाइकु के बारे में, उसे लिखने के नियमों के बारे में समझाया, बल्कि जब तक मैने कुछ कच्चे-पक्के से हाइकु लिख कर उन्हें भेज नहीं दिए, वे लगातार मुझे प्रेरित करते ही रहे हाइकु लेखन के लिए...। हाइकु में मैं जब तक थोड़ा सैटिल हुई ही थी, कि अगला आदेश...ताँका लिख कर भेजो...। ताँका से जुड़ी तो सेदोका...और फिर चोका भी...। खराब लिखा तो हर बार सुधार कर दोबारा भेजने की ताकीद हुई और अच्छा लिखा तो जी भर कर तारीफ़ भी मिली...। अगर एक बार में कुछ नहीं समझ आया तो अच्छे शिक्षक की तरह हमेशा तैयार...जब चाहो, फिर पूछ लो...बार-बार पूछ लो...बिना डरे, बिना झिझके...। वैसे ये बार-बार की नौबत अभी तक इस लिए नहीं आई क्योंकि एक बार में ही इतने अच्छे से बता देते हैं कि सब समझ आ ही जाता है...। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मैं ही उनके इस स्वभाव से लाभान्वित हुई...। न जाने कितने लोगों को उन्होंने निस्वार्थ रूप से इस विधा से जोड़ा...। इस क्षेत्र में उनके इसी लगन और समर्पण का कमाल है कि जहाँ कुछ साल पहले तक इन विधाओं में सिर्फ़ गिने-चुने लोग थे और वो भी अपनी-अपनी ढफ़ली...अपना-अपना राग के हिसाब से इन विधाओं में हाथ आजमा रहे थे, वहीं आज नए-पुराने बहुत सारे लेखक न केवल इनमें लिखने ही लगे हैं, बल्कि अब तो बहुत सारी पत्रिकाएँ बाकायदा हाइकु पर केन्द्रित विशेषांक तक निकाल रही हैं...।
काम्बोज अंकल के सम्पर्क में आकर एक बात पर विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि अगर किसी को अपने प्रतिभा पर, अपनी क्षमता, अपनी क़ाबिलियत पर भरोसा है तो वो कभी भी किसी दूसरे से ईर्ष्या नहीं करेगा। क्योंकि जब अपने पर भरोसा नहीं होता, तभी किसी और के आगे आने पर खुद पिछड़ने का भय इंसान को ईर्ष्यालु बना ही देता है...। बिना किसी दबाव में आए, औरों को साथ लेकर सिर्फ़ आगे बढ़ते जाना ही काम्बोज अंकल का लक्ष्य है जैसे...। एक शेर याद आता है ऐसे में...मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मन्ज़िल मगर, लोग साथ आते गए, कारवाँ बनता गया...।
सिर्फ़ लेखन के सम्बन्ध में ही नहीं, बल्कि कई बार सामान्य रोजमर्रा की बातों में भी उनका नज़रिया बहुत कुछ सिखा देता है...। जब भी उनसे बातें करती हूँ, एक अनोखी ऊर्जा से भर जाती हूँ...। उन्होंने सिर्फ़ मुझे बेटी कहा ही नहीं है, बल्कि माना भी है...। वैसे भी आज जहाँ इतने आधुनिक (???) समाज में लोग अब भी बेटियों को बोझ मानते हैं, वहीं काम्बोज अंकल और उनकी सहधर्मिणी वीरबाला आण्टी, दोनो के लिए ही बेटियाँ किसी अनमोल रत्न से कम नहीं...। ये देख-जान कर मेरा दिल और भी खुश हो जाता है...।
फिलहाल उनका एक और आदेश पूरा करना बाकी है...माहिया लिख कर भेजने का...। देखती हूँ, कब उनकी प्रेरणा से एक और नई विधा अपने नाम कर पाती हूँ...। एक बार उनसे व्यक्तिगत रूप से भी मिलने की बहुत इच्छा है, इसके भी पूरा होने का इंतज़ार रहेगा...। अपने जीवन में उनके लगातार आशीर्वाद की हमेशा चाह रहेगी...और मैं जानती हूँ, इसकी मुझे कभी भी कमी नहीं होने वाली...।
बच्चे के लिए पहली पाठशाला उसका घर और पहली शिक्षक उसकी माँ को माना जाता है। पर जैसे जैसे वो उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है, उसका स्कूल, उसके शिक्षक, उसके मित्र और फिर उसके जीवन में आने वाले बहुत सारे लोग उसे जाने कितना कुछ सिखा जाते हैं। अगर इंसान में सीखने की ललक हो तो ये सीखना-सिखाना ज़िन्दगी की अन्तिम साँस तक चलता ही जाता है।
कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती...। कोई और माने, न माने...मैं इस बात को मानती हूँ। मैं आज भी हर किसी से कुछ-न-कुछ सीखने की कोशिश करती ही हूँ...। चाहे समय लगे, पर मेरे अनुभव की किताब में आखिरकार एक नया पन्ना तो जुड़ ही जाता है...। अनुभव अच्छे होते हैं तो वो एक खुशनुमा याद और सीख दे जाते हैं, बुरे हों तो भी सावधान तो कर ही जाते हैं, मेरी आगे की ज़िन्दगी के लिए...।
सीखने के लिए सामने वाले की उम्र, पद, प्रतिष्ठा या अनुभव मत देखिए...ये देखिए कि क्या नया है उसके पास जिसका एक अंश आप भी अपने खज़ाने में जमा कर सकते हैं...। आप सिर्फ़ इंसान से ही नहीं, जीव-जन्तुओं और प्रकृति से भी कितना कुछ सीख सकते हैं...कभी कोशिश तो कीजिए...।
ये कोशिश मैं हमेशा जारी रखती हूँ...। एक मासूम बच्चे से मैं उसकी उन्मुक्त और छल-रहित सच्ची हँसी सीखती हूँ...फूलों से सीखती हूँ कि जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी जब तक रहो, सबको सकून पहुँचाओ...मुस्कराओ...खुशबू बिखराओ...चाहे भले ही खुद काँटों के बीच रहो। नदी हर पल आगे बढ़ना सिखाती है तो ठहरा पानी ये कहता है कि रुके तो मेरी तरह ही सड़ जाओगे...। कितना सच है न...? मैने ऐसे लोगों को देखा है जो जीवन के एक पड़ाव तक सीख कर रुक गए...। आज अपनी सड़ी-गली सोच...अपनी बजबजाती मानसिकता से अपने आसपास के वातावरण को दूषित ही करते हैं ऐसे रुके हुए लोग...। एक गरीब मजदूर जब साथियों संग हँसते-बोलते हुए रूखी रोटी और नमक खाता है और फिर भी मुस्कराता है, तो वो मुझे अभावों में भी संतुष्ट रहने का गुण सिखा जाता है...।
खुशकिस्मती से मेरे जीवन में समय-समय पर बहुत लोग ऐसे आते गए जिन्होंने मुझे बहुत कुछ नया सिखाया...अच्छा सिखाया...। उनमें से न जाने कितने तो ऐसे हैं जिनसे मैं कभी व्यक्तिगत रूप से मिली ही नहीं। छोटी थी तो पत्र माध्यम थे, आज तकनीकी युग में ईमेल और फोन-कॉल्स सम्पर्क के साधन बन गए...। दुर्भाग्यवश कुछ को नियति ने छीन लिया तो कुछ अब भी अपना वरद-हस्त मेरे सिर पर रखे हुए हैं...।
अगर छात्र-जीवन की बात करूँ तो कुछ शिक्षिकाएँ आज भी बहुत याद आती हैं...। किस्मत मेहरबान थी, सो कुछ वर्ष पूर्व मैं अपनी सारी फ़ेवरेट शिक्षिकाओं से एक बार फिर मिलने का सौभाग्य पा सकी...अपने स्कूल के गोल्डन जुबली फ़ंक्शन में...। पर उनकी बातें फिर किसी पोस्ट में...। आज तो एक ऐसी खास शख़्सियत के बारे में बताने जा रही, जो वैसे पेशे से तो शिक्षा के क्षेत्र में रहे, पर उस लिहाज से मैं उनकी छात्रा नहीं रही कभी...। पर मेरे लिए उन्होंने एक शिक्षक...एक मार्गदर्शक का रोल निभाया है जैसे...और सबसे बड़ी बात...एक शानदार और अच्छे इंसान के रूप में बहुत बड़े प्रेरणास्रोत हैं वो मेरे लिए...।
मैं आज अपने लेखन जगत से जुड़े एक प्रतिष्ठित लेखक आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की बात कर रही...। उनसे कुछ वर्ष पूर्व इंटरनेट के माध्यम से सामान्य-से परिचय की शुरुआत हुई। एक-दो बार के सम्पर्क में ही वे मुझे ‘बेटी’ और मैं उन्हें ‘अंकल जी’ कहने लगी...। वो एक स्थापित लघुकथाकार होने के साथ-साथ वेब की दुनिया में हिन्दी हाइकु और त्रिवेणी नाम की शायद अकेली ऐसी पत्रिकाएँ संचालित कर रहे, जो जापानी शैली की कविताओं-हाइकु, ताँका, सेदोका और चोका-को पूर्णतया समर्पित हैं। इसके कुशल संचालन में आस्ट्रेलिया में बसी एक और सशक्त लेखिका सुश्री हरदीप कौर संधू जी भी इनके साथ पूरी तन्मयता से जुड़ी हुई हैं...। दुनिया के बहुत सारे देशों तक इन पत्रिकाओं के पाठक और लेखक फैले हुए हैं...। इसके अलावा लघुकथा डॉट कॉम नाम से एक लघुकथा की वेब पत्रिका तो है ही...। फिर न जाने कितने संग्रहों का सम्पादन और बहुत सारी पत्रिकाओं का समय-समय पर अथिति सम्पादन का दायित्व भी सम्भालते ही रहते हैं...।
ये तो इनके लेखकीय कार्यों का जिक्र है...। मैं आज इनके बारे में सिर्फ़ इस कारण बात नहीं कर रही कि ये एक बहुत बड़े लेखक हैं, बल्कि इस कारण कर रही क्यों कि इनके अन्दर के इंसानी व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है...।
एक आम इंसान के मन में लेखक कुछ अनोखा ही प्राणी होता है...दुनिया से निराला...। जो अपनी लेखनी से दुनिया सुधारने का जिम्मा लेता है, वो खुद भी कितना महान होता होगा...। पर असलियत अधिकतर इससे उलट ही देखी है मैने...। आम दुनिया वालों की तरह ही लेखन के क्षेत्र में भी गला-काट प्रतियोगिता, ईर्ष्या, दंद-फंद, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़, गुटबाजी, द्वेष...सब मौजूद हैं और अपने चरम के साथ मौजूद हैं...। बहुत सारे ऐसे लेखक मिले जिनके सामने मैं और मेरा लेखन दोनो ही बच्चे से बड़े हुए, पर आज जब भी मुझे कोई सफ़लता मिलती है, तो ईर्ष्या से खाक-सा हो जाने की महानता सबसे पहले वे ही दिखाते हैं...। बड़ा अफ़सोस होता है ऐसे लोगों को देख कर कि जो खुद की ऐसी मानसिकता नहीं बदल पा रहे, वे समाज को क्या बदलेंगे...?
पर काम्बोज अंकल के सम्पर्क में आकर मेरा ये अफ़सोस बहुत हद तक कम हो गया। परिचय के कुछ दिन बीतते-बीतते एक दिन उन्होंने मुझसे पूछ लिया, तुम हाइकु क्यों नहीं लिखती...। जवाब मैने भी सच्चा ही दिया...जब हाइकु लिखना आता ही नहीं तो कैसे लिखूँ...? सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि ये मामूली सा सवाल और उसका उससे भी मामूली जवाब मेरे लेखन में एक और विधा जोड़ने की नींव बनने जा रहा। मेरी बात सुन कर आराम से बैठने की बजाय काम्बोज अंकल ने न केवल मुझे पूरी गहराई से हाइकु के बारे में, उसे लिखने के नियमों के बारे में समझाया, बल्कि जब तक मैने कुछ कच्चे-पक्के से हाइकु लिख कर उन्हें भेज नहीं दिए, वे लगातार मुझे प्रेरित करते ही रहे हाइकु लेखन के लिए...। हाइकु में मैं जब तक थोड़ा सैटिल हुई ही थी, कि अगला आदेश...ताँका लिख कर भेजो...। ताँका से जुड़ी तो सेदोका...और फिर चोका भी...। खराब लिखा तो हर बार सुधार कर दोबारा भेजने की ताकीद हुई और अच्छा लिखा तो जी भर कर तारीफ़ भी मिली...। अगर एक बार में कुछ नहीं समझ आया तो अच्छे शिक्षक की तरह हमेशा तैयार...जब चाहो, फिर पूछ लो...बार-बार पूछ लो...बिना डरे, बिना झिझके...। वैसे ये बार-बार की नौबत अभी तक इस लिए नहीं आई क्योंकि एक बार में ही इतने अच्छे से बता देते हैं कि सब समझ आ ही जाता है...। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मैं ही उनके इस स्वभाव से लाभान्वित हुई...। न जाने कितने लोगों को उन्होंने निस्वार्थ रूप से इस विधा से जोड़ा...। इस क्षेत्र में उनके इसी लगन और समर्पण का कमाल है कि जहाँ कुछ साल पहले तक इन विधाओं में सिर्फ़ गिने-चुने लोग थे और वो भी अपनी-अपनी ढफ़ली...अपना-अपना राग के हिसाब से इन विधाओं में हाथ आजमा रहे थे, वहीं आज नए-पुराने बहुत सारे लेखक न केवल इनमें लिखने ही लगे हैं, बल्कि अब तो बहुत सारी पत्रिकाएँ बाकायदा हाइकु पर केन्द्रित विशेषांक तक निकाल रही हैं...।
काम्बोज अंकल के सम्पर्क में आकर एक बात पर विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि अगर किसी को अपने प्रतिभा पर, अपनी क्षमता, अपनी क़ाबिलियत पर भरोसा है तो वो कभी भी किसी दूसरे से ईर्ष्या नहीं करेगा। क्योंकि जब अपने पर भरोसा नहीं होता, तभी किसी और के आगे आने पर खुद पिछड़ने का भय इंसान को ईर्ष्यालु बना ही देता है...। बिना किसी दबाव में आए, औरों को साथ लेकर सिर्फ़ आगे बढ़ते जाना ही काम्बोज अंकल का लक्ष्य है जैसे...। एक शेर याद आता है ऐसे में...मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मन्ज़िल मगर, लोग साथ आते गए, कारवाँ बनता गया...।
सिर्फ़ लेखन के सम्बन्ध में ही नहीं, बल्कि कई बार सामान्य रोजमर्रा की बातों में भी उनका नज़रिया बहुत कुछ सिखा देता है...। जब भी उनसे बातें करती हूँ, एक अनोखी ऊर्जा से भर जाती हूँ...। उन्होंने सिर्फ़ मुझे बेटी कहा ही नहीं है, बल्कि माना भी है...। वैसे भी आज जहाँ इतने आधुनिक (???) समाज में लोग अब भी बेटियों को बोझ मानते हैं, वहीं काम्बोज अंकल और उनकी सहधर्मिणी वीरबाला आण्टी, दोनो के लिए ही बेटियाँ किसी अनमोल रत्न से कम नहीं...। ये देख-जान कर मेरा दिल और भी खुश हो जाता है...।
फिलहाल उनका एक और आदेश पूरा करना बाकी है...माहिया लिख कर भेजने का...। देखती हूँ, कब उनकी प्रेरणा से एक और नई विधा अपने नाम कर पाती हूँ...। एक बार उनसे व्यक्तिगत रूप से भी मिलने की बहुत इच्छा है, इसके भी पूरा होने का इंतज़ार रहेगा...। अपने जीवन में उनके लगातार आशीर्वाद की हमेशा चाह रहेगी...और मैं जानती हूँ, इसकी मुझे कभी भी कमी नहीं होने वाली...।
(चित्र कम्बोज अंकल के ब्लॉग `सहज साहित्य' से साभार...)
22 comments
आदरणीय काम्बोज जी से मैंने भी कई विधाएँ सीखी ...शिक्षक दिवस पर उनको नमन...निःस्वार्थ भाव से मार्गदर्शन देने वाले आदरणीय काम्बोज सर की सदा आभारी रहूँगी...
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छा पोस्ट लगाया प्रियंका|
मैं दोबारा पढ़ रहा हूँ इस पोस्ट को..
ReplyDeleteजाने क्यों मुझे सलिल चचा याद आ रहे हैं इसे पढ़ते हुए :)
बेटियाँ होती ही ऐसी हैं कि साधारण को भी विषिष्ट बना देती हैं॥ 'प्रिय वाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तव:'वाली उक्ति मुझ जैसे प्राणी पर भी लागू होती है। प्रियंका गुप्ता ने जितने अपनेपन से मेरे बारे में लिखा है , इसे पढ़ते समय मेरी आँखें भर आई ।मुझे और अधिक ऊर्जस्वित कर दिया कि मैं कुछ और अधिक कार्य करूँ।
ReplyDeleteYon hi jigyasavash haiku likhane ki mere man me.n iccha hui.Mere jijaji varisht sahityakar sh. Ajit kumar ne kamoj bhaiji ka naam sujhaya. Aadarrniye kamboj bhai ji se meri takriban 5 mahine pahale baat hui.yeh janakar maine kuch haiku likhe ,ve bahut hi khush hue aur haiku likhane ki vidha ki unhonne purnruup se jankari di aur mujhe bahut protsahit kiya.Ve ek suche, rahit margdarshak aur prerna ke aviral shrot hain. me.n umr me.n unse badi hun.Ve mujhe bahan ki tarah maante hain.Ishwar unke vyaktitiva ki garima ko banaaye rakhe.
ReplyDeletepushpa mehra
काम्बोज भाई साहब हैं ही ऐसे। आपने जो कुछ लिखा है उनके बारे में, यह अनुभव अनेक अन्य रचनाकार भी करते होंगे। एक नेक इन्सान और प्रेरक रचनाकार के बारे में कुछ लिखने के लिए साधुवाद !
ReplyDeleteप्रियंका जी आपने कम्बोज जी के बारे में जो भी कहा शत प्रतिशत सत्य है ,वह एक उम्दा शिक्षक और बेहतरीन इंसान है , मैंने भी कई बाते इनके सानिध्ये में सीखी है और हाइकू विधा में प्रेरित भी किया , आज बड़े भाई मुझे मिले है जो दुनिया का सबसे अनमोल तोहफा है , कभी नहीं सोचा था अंतर्जाल पर रिश्ते इतने मजबूत बनेगे , कि वह हमारे जीवन के सबसे यादगार पल और रिश्ते होंगे। बहुत कुछ है मेरे पास कहने के लिए पर शायद शब्द कम हो ,बहुत समय से जुडी हूँ उनके साथ , इस परिवार की शुरुआत से। ………. अब तो आदत हो गयी है , एक दिन भी मेल न मिले तो बेचैन हो जाते है ,सब ठीक है कि नहीं। ……… एक बहन की यही दुआ है कि मेरे भाईसाहब दिन रात आगे बढे ,यह कारवा बढ़ता जाये ,और सदैव स्वस्थ रहे , जीवन में अभी उनके साथ बहुत कदम मिलाने बाकी है। आपको हार्दिक शुभकामनाये प्रियंका जी ,ऐसे ही आप भी आगे बढ़ते रहे और हमारे परिवार में एक और सितारा जुड़ गया अब। :) सस्नेह - शशि पुरवार
ReplyDeleteबहुत साफगोई से प्रियंका जी ने अपने विचार लिखें ,अच्छा लगा कि आपको आदरणीय काम्बोज जी से मार्ग दर्शन मिला और आपने उसे सहेजा। अच्छाई जहां में बिखरी पड़ी हैं पर वो सही समय पर मिले तो व्यक्ति आसमान छू सकते हैं। मंजुल भटनागर
ReplyDeleteप्रियंका गुप्ता ने काम्बोज के बारे में जो कुछ लिखा, मुझे तो उम्र के 66 वें वर्ष में अब यह अनुभव हुआ कि काश हमारे सभी शिक्षक काम्बोज जी जैसे होते और हमारी पीढ़ी के सभी लोगों में अगर काम्बोज जी जैसे कुछ और लोग दहाई की संख्या में होते तो हिंदी की स्थिति बहुत अधिक मजबूत होती। खैर, मेरे विचार से मुझ जैसे अनेक लोग हैं जिन्हें उनसे हाइकु, तांका, चोका, सेदोका लिखने की प्रेरणा हैं और मुझे भी बेटी प्रियंका की तरह माहिया लिखने हैं। प्रियंका को बधाई कि शिक्षक दिवस के अवसर पर ऐसा सुन्दर लेख लिखा है।
ReplyDeleteभाई जी के बारे में पढ़ा तो ऐसा लगा जैसे मेरे ही अनुभव को प्रियंका ने प्रस्तुत कर दिया है. सचमुच बहुत ही स्नेहिल व्यक्तित्व है भाई जी का . प्यार से इतना कुछ सिखा जाते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि सचमुच हम ऐसा कुछ रच सकते है . एक सच्चे शिक्षक की तरह वो सभी गलतियों को सुधार देते हैं और इतना प्रोत्साहन देते हैं कि हमारी कला दिन बा दिन निखरती जाती है. एक बहुत ही अमूल्य व्यक्तित्व को शत शत नमन .
ReplyDeleteप्रिय प्रियंका
ReplyDeleteमैं आपके लेख से अक्षरशः सहमत हूँ …… आदरणीय रामेश्वर जी से मेरा भी परिचय बस यूँ ही इन्टरनेट के माध्यम से हुआ था। लेकिन आज मैं इनके स्नेहिल परिवार की सदस्या हूँ। श्री एवं श्रीमती कम्बोज दोनों का ही स्वभाव बहुत स्नेहिल है, अपने आस-पास हर किसी को आगे बढ़ने में सहयोग करना इस परिवार की विशेषता है।
मैंने भी हाइकू, तांका , सेदोका जैसी विधाओं का ककहरा इसी पाठशाला में सीखा है :-)
मंजु
www.manukavya.wordpress.com
बहुत बहुत बधाई प्रियंका जी !
ReplyDeleteआपने आदरणीय काम्बोज भाई जी के विषय में केवल अपने ही नहीं वरन हमारे मन की भी बात लिखी है |हाइकु ,चोका ,ताँका ,माहिया ही नहीं हिंदी साहित्य की कौन सी विधा ऐसी है जिसमें उनसे उचित मार्गदर्शन न मिल सके | इसे मैं माँ शारदे की अनुकम्पा ही कहूँगी ऐसे बहु आयामी व्यक्तित्व का स्नेह और मार्ग दर्शन हमें मिला है |भारत और भारत से बाहर भी ..अनेक हिंदी-हृदयों को स्नेह बंधन में बाँध कर "वसुधैव कुटुम्बकम" की भावना को सच कर दिखाया है उन्होंने |
ईश्वर से भाई जी के सुन्दर ,स्वस्थ ,दीर्घायु जीवन की कामना करती हूँ | इतने सुन्दर लेखन के लिए आपके प्रति बहुत बधाई ..शुभ कामनाओं के साथ ....
ज्योत्स्ना शर्मा
प्रियंका तुम्हारा लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। कम्बोज जी के बारे में बहुत सही लिखा है। उनकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है। मैने भी उनसे ही हाइकु,ताँका,चोका व सेदोका सीखने की कोशिश की है । मैं उनकी बहुत आभारी हूँ। आज तुम्हारा लेख पढ़ा तो मैने भी हिम्मत जुटाई कि मेरे मन के भाव मैं भी लिख कर क्यों ना बता दूँ? इसी से कह रही हूँ, कम्बोज जी जिनसे बहुत कुछ सीखा है उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार करती हूँ। आशा है वे भी मुझे अपनी शिष्या मानेंगे।
ReplyDelete--रेनु चन्द्रा
प्रियंका जी की अद्भुत पोस्ट तन्मयता के साथ पढ़ी .
ReplyDeleteवाकई सौ प्रतिशत सत्य है . आदरणीय भाई हिमांशु जी साहित्यिक विधाओं, गतिविधियों का वो अनूठा अंकुरित बीज है जो वटवृक्ष की तरह अपनी परोपकारी व्यक्तित्त्व की छाया से सभी को मार्गदर्शन कर प्रेरित करते हैं .
ऐसे नेक - महान इंसान को मेरा कोटी नमन .
प्रियंका गुप्ता जी कम्बोज भाईसाहब के लिए जैसा अनुभव आपका रहा शत प्रतिशत मेरा भी वही अनुभव है। ऐसा श्रेष्ठ व्यक्तित्व अभी तक मैनें दूजा नहीं देखा। भाईसाहब जिस तरह से आपने इन विधाओं को लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया जीवन भर मैं आपकी आभारी रहूंगी।
ReplyDeletebhaiya ke bare me aapne jo kuchh bhi shbdon me bandha hai vo ham sabhi bahnon ke man ki baat hai .aap ka bahut bahut dhnyavad ki aapne likha
ReplyDeletebhaiya mahan hai aur shayad ye shabd bhi chhota hai.aaj ki duniya me koi dusron ke liye itna nahi sochta tha.
duniya shayad aese hi achchhe logon pr tiki hai .
bhaiya ko sari khushiyan mile aur bahut lambi umr ho yahi bhagvan se prarthna hai
Rachana
प्रियंका जी जो आप ने कहा काम्बोज भाई साहब के लिए कहा वह मेरा भी शब्द दर शब्द सत्य है वर्क सिर्फ इतना है आप अंकल कहती हो और मैं भाईया पुकारती हूँ।
ReplyDeleteश्री श्याम त्रिपाठी जी का कमेंट आदरणीय कम्बोज जी के पास पहुंचा, जहां से वह मुझ तक आया...|
ReplyDeleteआदरणीय त्रिपाठी जी का कमेंट मैं यहाँ लगा रही, आभार सहित...
प्रिय भाई हिमांशु जी सप्रेम नमस्कार,
आपके विषय में आज जो लेख आपने भेजा है, निस्संदेह तथ्यपूर्ण और सम्मानपूर्ण है । आपके विषय में जो कुछ भी कहा जाय बहुत कम है । मनुष्य के विषय में पूर्ण निर्णय करना और तभी अच्छा लगता है जबकि उस व्यक्ति के साथ आपका कुछ सम्पर्क या व्यवहारिक सम्बन्ध रहा हो । इस बेटी सामान लेखिका ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर जो भी शब्द अंकित किये हैं , मैं उसकी हृदय से प्रशंसा करता हूँ । मैं कई बार चाहा कि आपके विषय में कुछ लिखूँ और कभी न कभी वह स्वर्ण अवसर आयेगा जब या तो आप मेरे विषय में कुछ कहेंगे या मैं कुछ आपके विषय में । लगभग २ वर्ष होने जा रहे हैं आपने हिन्दी चेतना को जो साहित्यिक गौरव और ख्याति दिलवायी है जो किसी भी प्रवासी पत्रिका को शायद अब तक नसीब नहीं हुयी होगी । लघु कथा विशेषांक निकाल कर आपने अपने निस्वार्थ स्नेह का जो परिचय दिया है वह श्याम और सुधा के हृदय में सदा अटल रहेगा । आप जो कुछ भी है , अतुलनीय, अवर्णीय, अनु उपनीय हैं । एक सच्चे मित्र और मजे हुए सलाहकार हैं । हमारे लिए तो आप भरत के समान हैं । "सुनहूँ लखन मम भरत सरीखा॥ , विधि प्रपंच मम सूना न देखा ॥" महा कवि तुलसी दास
-श्री श्याम त्रिपाठी
काम्बोज भाई के लिए आपके मन में जो श्रद्धा और सम्मान है निःसंदेह वे उसके अधिकारी हैं. काम्बोज भाई मेरे लिए न सिर्फ भाई हैं बल्कि लेखन के क्षेत्र में शिक्षक और मार्गदर्शक भी हैं. मेरे द्वारा हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, माहिया आदि लेखन उनके ही द्वारा प्रशिक्षण का परिणाम है. निःस्वार्थ भाव से वे जिस तरह इन विधाओं का ज्ञान, प्रसार और प्रशिक्षण देते हैं सच में मुझे आश्चर्य होता है. उनके अथक प्रयास और परिश्राम का परिणाम है कि आज इस क्षेत्र में रोज़ नए नए नाम जुड़ रहे हैं. हर वक़्त हम सभी को सहायता देने में तत्पर काम्बोज भाई हिंदी साहित्य के हर विधा के ज्ञाता भी हैं और रचनाकार भी. आज के युग में इन जैसा व्यक्तित्व विरले ही होता है. काम्बोज भाई को हार्दिक प्रणाम. बहुत शुभकामनाएँ प्रियांका जी.
ReplyDeletepriyankaa jii aapki baat solah ane sach hai ..insaal pal pal kisi na kisi se kuchh na kuchh sikhta rahta hai .. dhara ambar phol kante sab kuchh na kuchh sikhate hai hume ye ham par nibhar karta hai ham kis roop me kis se kya grahan kar rahe hai ..abhi kuchh mahine pahle ek haiku posting ke silsile me kamboj bhaiya ji se parichay huya ... realy bahut hi saral swabhaw ke shakhsiyat hai wo .. maine jab bhi jitni baar haiku bheja kuchh bhi agar galti huyi usme bade sneh se samjhaya kabhi khud hi use sudhar dete hai ..haiga jitni baar galat bana utni baar bina irritate huye fir se samjhaya unhone ..abhi mera man huya mahiya sikhu maine nihsankoch unhe call kiya or unhone dhairya ke sath samjhaya .. vastav me kam hi log hote hai itni sundar shakshiyat ke malik .. naman unhe :)
ReplyDeleteप्रियंका जी ने कम्बोज भाई साहब के बारे में जो भी लिखा वह बिलकुल सही है ,वह एक बहुत अच्छे इंसान है। मैंने भी हाइकु ,चोका भाई साहब की प्रेरणा से ही लिखने आरंभ किए।
ReplyDeleteनिःस्वार्थ भाव से मार्गदर्शन देने वाले आदरणीय भाई साहब की मैं सदैव आभारी रहूँगी और उनके सुन्दर, स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना करती हूँ ताकि हम सब को यूं ही मार्गदर्शन मिलता रहे।
सादर,
भावना
प्रियंका जी आपने उनके बारे में जो लिखा वह सत्य है... इस जमाने में निस्वार्थ भाव से सिखाने वालो की बहुत ही कमी है... और कम्बोज भाईसाहब उन् बहुत कम लोगो में है जो सच्ची समाज और साहित्य की सेवा कर रहे .. उनके प्रोत्साहन से हम लोग आगे बड रहे है... पर वह हमें निश्वार्थ मं से मार्ग दर्शन करते है... बहुतेरा तो मै पोस्ट ही नहीं पढ़ पाती फिर भी उन्होंने कभी हमें अपनी पोस्ट से अलग नहीं किया... जानकारी दी सिखाया ... मेरे वह बड़े भाई से ही श्रधेय और सम्मानीय हैं ... उनको प्रणाम ..
ReplyDeleteहमें खबर ही नहीं थी कि हमारा एक परिवार यहाँ जुटा हुआ है। :-) माफ़ कीजियेगा प्रियंका जी, दरअसल सितम्बर में हमारी तबीयत ख़राब थी इसलिए हम यहाँ पहले नहीं आ सके।
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती तथा हम किसी से भी, कहीं भी, कभी भी कुछ न कुछ सीख ही सकते हैं। सिर्फ सफलता ही नहीं बल्कि असफलता भी हमें बहुत कुछ सिखा जाती है। अच्छी बातें ही नहीं ... बुरी बातें भी कोई न कोई शिक्षा दे ही जातीं हैं !
'शिक्षा दिवस' पर आपने हिमांशु भैया जी को ये रचना समर्पित कर के बहुत अच्छा किया। अधिकतर हम सभी का परिचय उनसे हाइकु लिखने के दौरान हुआ और हम सभी बहनों का सौभाग्य है ये .. कि हमें हिमांशु भैया जी जैसे भाई मिले जिन्होंने हर क़दम पर अपने स्नेहमय, सहनशील स्वभाव से हमारा मार्ग-दर्शन किया। आजकल की दुनिया में ऐसे निःस्वार्थ मन से भी कोई काम कर सकता है ... ये जाना। उनकी तारीफ़ में लिखने को शब्द ही नहीं मिल पाते। साथ ही वीरबाला भाभी जी का स्नेही, गरिमामय व्यक्तित्व हमारे रिश्ते को और भी मज़बूत कर देता है। भैया जी, भाभी जी से मिलने कि बहुत तीव्र इच्छा थी .. जो इस वर्ष पूरी हो गयी।
ईश्वर करे, भैया जी ऐसे ही लिखते रहें, हम सभी का मार्ग-दर्शन करते रहें तथा उनका समस्त परिवार खुशियों के साये में सुरक्षित रहे।
~सादर
अनिता ललित