थोड़ी धूप हो उसके हिस्से...

Sunday, September 15, 2013

कुछ दिन पहले एक घटना मेरे आँखों के सामने से गुज़री...। लगभग तेरह-चौदह साल की बच्ची अपने मोहल्ले के ही बचपन के साथियों को क्रिकेट खेलते देख खुद भी भाग कर आ गई और खेल में शामिल हो गई...हमेशा की तरह...। पाँच मिनट में ही उसकी माँ उसे पुकारती आ गई और उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे वापस ले गई, ये कहते हुए...क्या लड़कों वाले खेल खेल रही...वो भी लड़कों के साथ...। ठुनकती...मुँह बिसूरती घर जा रही उस लड़की को दोस्त ने आवाज़ दी...आएगी अभी तू...? तेरी बैटिंग आने वाली है...। जवाब में ‘आती हूँ बे...’कहती लड़की को माँ ने चपतिया दिया...। ‘बे’ बोलती है..यही संस्कार हैं तेरे...। दोस्तों के सामने बेइज्ज़ती महसूस करती वो बच्ची ये नहीं समझ पाई कि जब भैया क्रिकेट खेलता है और अपने दोस्तों से ‘अबे...क्या बे...’ कह कर बात करता है, तो माँ उसे भी क्यों नहीं चपतियाती...? भैया को माँ कभी ये क्यों नहीं समझाती कि इन शब्दों का इस्तेमाल करना गन्दी बात है...। सिर्फ़ खेलने के लिए ही नहीं, माँ की बन्दिशे तो उसके हर काम में हैं...। माँ तो उसे अपनी सहेलियों या दोस्तों से भी बात करते समय अकेला नहीं छोड़ती, पर जब भैया अपना मोबाइल लेकर बाहर निकल जाता है, ये कहते हुए कि...दोस्त को फोन कर के आता हूँ, तब माँ उससे क्यों नहीं कहती कि उनके सामने ही बैठ कर वो दोस्तों से बात करे...? जब भी वो कुछ कहती है, माँ कभी गुस्से से, तो कभी प्यार से हमेशा अच्छे संसकारों की दुहाई देने लगती हैं...। पर भैया का मामला बिल्कुल उलट है...। भैया उससे कुछ ही साल तो बड़ा है...। क्या उसे अच्छे संस्कार की ज़रूरत नहीं...?
घर पहुँच कर माँ उसे संस्कार दे रही थी...बेटा, लड़के और लड़की में फ़र्क होता है...। तुम लड़कों के साथ दोस्ती रखोगी, उन से अबे-तबे कर के बात करोगी तो लोग तुम्हें गलत और खराब लड़की समझेंगे...। समाज में तुम्हारी कोई इज्ज़त नहीं करेगा...। भैया के लिए चलता है, पर तुम्हे ये शोभा नहीं देता...।
अब उस बच्ची में अच्छे (?) संस्कार पड़े कि नहीं, पता नहीं...पर शायद ये बीज उसमें विरासत में ज़रूर पड़ गए कि लड़का और लड़की मे बहुत बड़ा अन्तर है...और हर बात में उसे ये अन्तर याद करके चलना होगा...। उसे हमेशा ये भी याद रखना होगा कि जो पुरुषों को शोभा देता है, ज़रूरी नहीं उसे भी शोभा दे ही...।
बात यहाँ सिर्फ़ एक लड़की की नहीं, या उस बच्ची में अच्छे संस्कार डालने की माँ की कोशिश की नहीं, बल्कि समाज के नज़रिए की है...। मैं मानती हूँ कि बातचीत या किसी के साथ पेश आते समय एक सामाजिक मर्यादा का ख्याल रखना या सभ्यता के दायरे में रहना अच्छी बात है...और ज़रुरी भी...पर सामान्यतया कोई लड़की/महिला अगर अपनी ज़िन्दगी की दिशा अपने हिसाब से निर्धारित करना चाहे, या उसकी मित्र-सूची में पुरुष मित्र भी हों और वह उनसे वैसी ही बेतक्कलुफ़ी से पेश आए जैसे वो अपनी सहेलियों के संग आती है, या उन दोस्तों से भी दिल की बात कर लेती हो, या दिल खोल कर हँसना जानती हो, या फिर दोस्तों से ‘अमाँ यार, क्यों बे, अबे...’ कह कर बात कर लेती हो...तो वह क्या है...? चालू...? आसानी से प्राप्य...? खराब चरित्र वाली...? कुसंस्कारी...? या फिर दिखावे और ढकोसलों से दूर एक साफ़ दिल वाली...? जो जैसी अन्दर से है, वैसे ही बाहर से...। जिसे खुद के साथ-साथ अपने दोस्तों पर भी भरोसा है कि वे उसका अहित न करेंगे और न होने देंगे...।
आप अपनी नौकरीपेशा बहन, बेटी, पत्नी के दस सहकर्मी हैं, ये बात सह सकते हैं, पर उनमें से कुछ उसके दोस्त हैं, ये नाक़बिले बर्दाश्त होगा...। आपके परिवार की स्त्री भले ही बस, टैम्पो में अनजान पुरुषों के बीच पिसते हुए बैठ ले, पर किसी दोस्त रूपी पुरुष के बगल में अगर वह एक ही सोफ़े पर बैठ गई, तो आपकी भृकुटि तन जाएगी...। क्यों भई, पुरुष-पुरुष में अन्तर है क्या...?

वैसे सच तो यह है कि जिसे कुछ गलत करना होता है, वो आप के घर के सात पर्दों में रह कर भी गुल खिला सकती है...ठीक आपकी नाक के नीचे...और आपको पता भी न चले...। और जिसे खुद को सम्हालना आता है, वो दस लड़कों के कंधे पर बिन्दास धौल-धप्पा मार कर...क्यों बे कमीने...कहने के बावजूद किसी को अपनी उँगली का नाखून भी छूने न दे...। किसी के व्यवहार या बातचीत के तरीके से आप शायद उसके बारे में अपनी सोच के हिसाब से एक धारणा बना सकते हैं, पर सिर्फ़ इस कारण आप उसके पूरे चरित्र की व्याख्या करने लगें, तो शायद वो ग़लत होगा...। इस लिए अपनी बेटी में डालना है तो समानता का संस्कार डालिए, खुद को संभाले रखने का, खुद पर भरोसा रखने का संस्कार डालिए, आत्मनिर्भर बन कर वो खुद के साथ-साथ इस समाज को भी कुछ दे सके, इसका संस्कार डालिए...तो शायद ज्यादा बेहतर होगा...। बेटी भी इसी दुनिया का हिस्सा है, ये खुद भी मानिए और उसे भी यकीन दिलाइये...| थोड़ी-सी धूप...थोड़ी सी बारिश उसके हिस्से भी आने दीजिए...| मन बदलिए, खुद को बदलिए...समाज खुद-ब-खुद बदल जाएगा...। 

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