कौन समझेगा यहाँ...रिश्तों की अजीब दास्ताँ...
Wednesday, July 10, 2013
मेरी एक बहुत प्यारी...बड़ी अपनी सी सहेली है...। कुछ ऐसी जिसे मैं कह सकती हूँ कि मेरे रुह का एक हिस्सा समाया है उसमें...। इधर कई दिन से परेशान...कई बार पूछा, क्या बात है...पर हर बार पूछने पर उसकी आँख में आँसू आ जाते थे, बोलती कुछ नहीं थी...। मन विचलित हो रहा था, आखिर क्या बात है जो ये बता नहीं रही...। आज से पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ...तो अब...?
आखिर एक दिन बहुत कुरेदा, कसम दे दी, तब ज़ुबान खुली...। कसम इस लिए देनी पड़ी क्यों कि मुझे पता है कि अंधविश्वासी न होने के बावजूद अपनों की कसम का उसके लिए बहुत महत्व है...। उसे आपसी विश्वास का प्रतीक मानती है वो...। जैसे वो किसी का विश्वास नहीं तोड़ सकती, वैसे ही कसम भी नहीं तोड़ती...। अगर कभी उसने किसी बात पर कोई कसम खा ली तो मतलब फिर भगवान भी आकर मुझसे कहें कि वो झूठ बोल रही, तो मैं न मानूँ...।
जो कुछ उसने बताया, मन खिन्न हो गया सुन कर...क्योंकि उसके पीछे का सच हमेशा से मैं जानती रही...। अफ़सोस हुआ ये देख कर कि एक सहेली होने के बावजूद मुझे उस पर विश्वास था, पर जो उसके असली सगे कहे जाते हैं, उन्हें यक़ीन दिलाना भारी पड़ रहा था उसे अपनी सच्चाई का...।
किस्सा कुछ यूँ है...। कई बरसों से उसका एक मित्र है...मेरे अलावा उसे आप उसका बेस्टेस्ट फ़्रेण्ड कह सकते हैं...। यूँ तो दोनो का परिचय उसकी शादी के बाद ही हुआ, पहले एक सामान्य से पारिवारिक मित्र के रूप में सामने आने वाला वो शख़्स जाने कब, कैसे मेरी सहेली का मित्र बन गया। मन का साफ़, खुशमिजाज़, एक सीधा-सरल सा इंसान, जिसे कई बार मेरी सहेली आजमा चुकी थी उसे अपना मित्र मानने से पहले...। इस मित्रता की बाबत उसका पूरा परिवार जानता था। उन दोनो की बहुत सारी बातें एक-दूसरे से मिलती थी, इस लिए शायद एक अपनत्व भरा नाता बन गया दोनो के बीच...। वह व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ बहुत खुश था और मेरी सहेली भी अपने परिवार के साथ संतुष्ट थी। मेरी सहेली और उसके दोस्त की मुलाकातें बहुत कम हुई, और जब भी हुई, सहेली के ही घर में हुई, पूरे परिवार के सामने...जब भी वो एक पारिवारिक मित्र के रूप में घर पर आया...। कभी कहीं बाहर मिलने का कोई अवसर नहीं आया। दोनो की मित्रता महज फोन पर परवान चढ़ी। मेरी सहेली सबके सामने बिन्दास उससे बातें करती रही...हाँ, बहुत बार पति या घरवालों की अनुपस्थिति में भी बात हो ही जाती थी...अगर कुछ ऐसा चांस पड़ा कि सहेली के अकेले रहने पर उसके दोस्त का फोन आ गया हो...हाल-चाल लेने या कोई सुख-दुःख बाँटने के लिए...। उसमें दोनो में से किसी को कभी कोई आपत्तिजनक बात नहीं लगी...। मन चंगा तो कठौती में गंगा...। यहाँ एक बात और बता दूँ, मेरी सहेली का वो दोस्त भी शादी शुदा था...। कई अवसरों पर उसके बेटे से भी मेरी सहेली बात कर लेती थी क्योंकि वो बच्चा उसे बहुत प्यारा लगता था...। दोनो दो जुदा शहरों में रहने के बावजूद जुड़े हुए थे।
इतने सालों तक किसी को न अखरने वाली यह दोस्ती कब कुछ दिलजलों की भेंट चढ़ गई, मेरी सहेली जान ही नहीं पाई...। हुआ ऐसा कि मेरी सहेली के कुछ सगे(?) रिश्तेदार उसके साथ बैठे थे कि तभी उसके दोस्त का फोन आ गया। वो बिज़ी थी सो उसने ‘अभी थोड़ी देर में बात करती हूँ’ कह कर फोन काट दिया। नम्बर उसके मित्र के नाम से ही सेव था, फोन का लॉग वो कभी मिटाती नहीं थी, फोन में बिल्कुल सामान्य सा लॉक था, क्योंकि उसे कभी नहीं लगा कि उसे किसी से भी अपने जीवन की किसी बात को छिपाने की ज़रूरत है...। ‘कर नहीं तो डर कैसा’ या कहूँ तो ‘साँच को आँच नहीं’ वाली फिलॉसफी थी उसकी...हमेशा से...। फोन वहीं रख वो अपने काम में जुट गई...। पर खुराफ़ाती सोच वाली उसकी रिश्तेदार ने बहाने से...आपका नया फोन बहुत अच्छा है, देख लूँ ज़रा...कह कर उसका फोन ले लिया...। खोज़ी नज़रों ने अपनी कल्पना में एक पुरुष का फोन आया देख कर बहुत कुछ फ़िल्मी-सा गढ़ डाला शायद...जिसका असर बहुत जल्दी ही मेरी सहेली के सामने आ गया, जब उस सगी(???) रिश्तेदार ने उसके परिवार के साथ-साथ उसके बेटे के भी कान भरने की कोशिश की...उन दोनो के रिश्ते को लेकर...।
सहेली उस दिन हतप्रभ रह गई जब घर में किसी ने उससे पूछ लिया, वो तुम्हारा है कौन...? दोस्त है मेरा...माय बेस्ट फ्रेंड...इतना ही कह पाई वो...| पर अगला सवाल और चौंकाने वाला था...प्यार करती हो उससे...? मेरी सहेली हैरान-परेशान सा महसूस करने लगी...| क्या कहे...? दोस्त को प्यार नहीं करेंगे तो क्या नफरत का रिश्ता होगा...? पर जिस तरह के प्यार की परिकल्पना कर के सवाल पूछा गया था, उसने मेरी सहेली को विचलित कर दिया | वो बिना कुछ उत्तर दिए ही हट गई वहाँ से, पर कुछ दिन बीतते-बीतते उसके मित्र का कॉल नहीं, एक संक्षिप्त सा एस एम एस आया... “अब बेहतर यही होगा, हम दोनों इस दोस्ती को यही समाप्त कर दे...| तुम अपने परिवार की ओर ज्यादा ध्यान दो, मेरी चिंता न करो...ताकि तुम और तुम्हारा परिवार दोनों खुश रह सके...|”
हमेशा `फिर मिलते हैं’, कह कर विदा लेने वाले ने उस दिन `अलविदा’ लिखने के साथ ये भी लिख दिया...आशा है अब कभी फोन नहीं करोगी...|
यूँ अचानक वो दोस्ती क्यों तोड़ रहा, बहुत दिनो तक मेरी सहेली को समझ ही नहीं आ रहा था...। फिर अचानक कुछ सुगबुगाहट सी लगी, तो उसे अहसास हुआ, शायद उसके परिवार से ही किसी ने उसके मित्र को फोन कर के कुछ कह दिया, शायद इस दोस्ती की वजह से मेरी सहेली को मिल रही परेशानी या बदनामी जैसा कुछ...। सारी बात कहते-कहते मेरी सहेली की आंख में आँसू आ गए थे | उसका बस एक ही सवाल था...क्यों एक औरत और मर्द के बीच सिर्फ दोस्ती का रिश्ता कबूल नहीं कर सकता ये समाज...? क्या जरूरी है कि जो आपके साथ स्कूल-कॉलेज में पढ़ा हो, वही दोस्त कहलाने का हकदार है...? इससे परे कोई दोस्त, कोई हमदर्द नहीं हो सकता...? क्या दिल का साफ़ होना...अपने जीवन को खुली किताब की तरह जीना...पाप है आज के इस तथाकथित मॉडर्न, सभ्य और शिक्षित कहलाने वाले समाज में...?
पाप के रिश्ते तो कहीं भी बन सकते हैं न...और बनते आए भी हैं...फिर सिर्फ एक औरत-मर्द के दोस्ती के रिश्ते पर ही शक़ क्यों...? क्या घर की चारदीवारी के भीतर नित नए, अनैतिक रिश्तों की बाबत हम नहीं सुनते-पढ़ते आए हैं...? तो क्या हमने अपने जीवन में भी उन रिश्तों से किनारा कर लिया...? अगर नहीं, तो फिर दोस्ती का रिश्ता ही क्यों...?
मेरे पास अपनी सहेली के सवालों का कोई जवाब नहीं था...बहुत सारे अनुत्तरित सवालों की तरह...। आज कई दिन बीत चुके हैं...दोस्ती का एक प्यारा-सा रिश्ता इस अपाहिज मानसिकता वाले समाज की भेंट चढ़ चुका है...। दुनिया खुश है...समाज खुश है...पर क्या कोई समझेगा कभी कि इस घटिया मानसिकता की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है किसी को...?
आखिर एक दिन बहुत कुरेदा, कसम दे दी, तब ज़ुबान खुली...। कसम इस लिए देनी पड़ी क्यों कि मुझे पता है कि अंधविश्वासी न होने के बावजूद अपनों की कसम का उसके लिए बहुत महत्व है...। उसे आपसी विश्वास का प्रतीक मानती है वो...। जैसे वो किसी का विश्वास नहीं तोड़ सकती, वैसे ही कसम भी नहीं तोड़ती...। अगर कभी उसने किसी बात पर कोई कसम खा ली तो मतलब फिर भगवान भी आकर मुझसे कहें कि वो झूठ बोल रही, तो मैं न मानूँ...।
जो कुछ उसने बताया, मन खिन्न हो गया सुन कर...क्योंकि उसके पीछे का सच हमेशा से मैं जानती रही...। अफ़सोस हुआ ये देख कर कि एक सहेली होने के बावजूद मुझे उस पर विश्वास था, पर जो उसके असली सगे कहे जाते हैं, उन्हें यक़ीन दिलाना भारी पड़ रहा था उसे अपनी सच्चाई का...।
किस्सा कुछ यूँ है...। कई बरसों से उसका एक मित्र है...मेरे अलावा उसे आप उसका बेस्टेस्ट फ़्रेण्ड कह सकते हैं...। यूँ तो दोनो का परिचय उसकी शादी के बाद ही हुआ, पहले एक सामान्य से पारिवारिक मित्र के रूप में सामने आने वाला वो शख़्स जाने कब, कैसे मेरी सहेली का मित्र बन गया। मन का साफ़, खुशमिजाज़, एक सीधा-सरल सा इंसान, जिसे कई बार मेरी सहेली आजमा चुकी थी उसे अपना मित्र मानने से पहले...। इस मित्रता की बाबत उसका पूरा परिवार जानता था। उन दोनो की बहुत सारी बातें एक-दूसरे से मिलती थी, इस लिए शायद एक अपनत्व भरा नाता बन गया दोनो के बीच...। वह व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ बहुत खुश था और मेरी सहेली भी अपने परिवार के साथ संतुष्ट थी। मेरी सहेली और उसके दोस्त की मुलाकातें बहुत कम हुई, और जब भी हुई, सहेली के ही घर में हुई, पूरे परिवार के सामने...जब भी वो एक पारिवारिक मित्र के रूप में घर पर आया...। कभी कहीं बाहर मिलने का कोई अवसर नहीं आया। दोनो की मित्रता महज फोन पर परवान चढ़ी। मेरी सहेली सबके सामने बिन्दास उससे बातें करती रही...हाँ, बहुत बार पति या घरवालों की अनुपस्थिति में भी बात हो ही जाती थी...अगर कुछ ऐसा चांस पड़ा कि सहेली के अकेले रहने पर उसके दोस्त का फोन आ गया हो...हाल-चाल लेने या कोई सुख-दुःख बाँटने के लिए...। उसमें दोनो में से किसी को कभी कोई आपत्तिजनक बात नहीं लगी...। मन चंगा तो कठौती में गंगा...। यहाँ एक बात और बता दूँ, मेरी सहेली का वो दोस्त भी शादी शुदा था...। कई अवसरों पर उसके बेटे से भी मेरी सहेली बात कर लेती थी क्योंकि वो बच्चा उसे बहुत प्यारा लगता था...। दोनो दो जुदा शहरों में रहने के बावजूद जुड़े हुए थे।
इतने सालों तक किसी को न अखरने वाली यह दोस्ती कब कुछ दिलजलों की भेंट चढ़ गई, मेरी सहेली जान ही नहीं पाई...। हुआ ऐसा कि मेरी सहेली के कुछ सगे(?) रिश्तेदार उसके साथ बैठे थे कि तभी उसके दोस्त का फोन आ गया। वो बिज़ी थी सो उसने ‘अभी थोड़ी देर में बात करती हूँ’ कह कर फोन काट दिया। नम्बर उसके मित्र के नाम से ही सेव था, फोन का लॉग वो कभी मिटाती नहीं थी, फोन में बिल्कुल सामान्य सा लॉक था, क्योंकि उसे कभी नहीं लगा कि उसे किसी से भी अपने जीवन की किसी बात को छिपाने की ज़रूरत है...। ‘कर नहीं तो डर कैसा’ या कहूँ तो ‘साँच को आँच नहीं’ वाली फिलॉसफी थी उसकी...हमेशा से...। फोन वहीं रख वो अपने काम में जुट गई...। पर खुराफ़ाती सोच वाली उसकी रिश्तेदार ने बहाने से...आपका नया फोन बहुत अच्छा है, देख लूँ ज़रा...कह कर उसका फोन ले लिया...। खोज़ी नज़रों ने अपनी कल्पना में एक पुरुष का फोन आया देख कर बहुत कुछ फ़िल्मी-सा गढ़ डाला शायद...जिसका असर बहुत जल्दी ही मेरी सहेली के सामने आ गया, जब उस सगी(???) रिश्तेदार ने उसके परिवार के साथ-साथ उसके बेटे के भी कान भरने की कोशिश की...उन दोनो के रिश्ते को लेकर...।
सहेली उस दिन हतप्रभ रह गई जब घर में किसी ने उससे पूछ लिया, वो तुम्हारा है कौन...? दोस्त है मेरा...माय बेस्ट फ्रेंड...इतना ही कह पाई वो...| पर अगला सवाल और चौंकाने वाला था...प्यार करती हो उससे...? मेरी सहेली हैरान-परेशान सा महसूस करने लगी...| क्या कहे...? दोस्त को प्यार नहीं करेंगे तो क्या नफरत का रिश्ता होगा...? पर जिस तरह के प्यार की परिकल्पना कर के सवाल पूछा गया था, उसने मेरी सहेली को विचलित कर दिया | वो बिना कुछ उत्तर दिए ही हट गई वहाँ से, पर कुछ दिन बीतते-बीतते उसके मित्र का कॉल नहीं, एक संक्षिप्त सा एस एम एस आया... “अब बेहतर यही होगा, हम दोनों इस दोस्ती को यही समाप्त कर दे...| तुम अपने परिवार की ओर ज्यादा ध्यान दो, मेरी चिंता न करो...ताकि तुम और तुम्हारा परिवार दोनों खुश रह सके...|”
हमेशा `फिर मिलते हैं’, कह कर विदा लेने वाले ने उस दिन `अलविदा’ लिखने के साथ ये भी लिख दिया...आशा है अब कभी फोन नहीं करोगी...|
यूँ अचानक वो दोस्ती क्यों तोड़ रहा, बहुत दिनो तक मेरी सहेली को समझ ही नहीं आ रहा था...। फिर अचानक कुछ सुगबुगाहट सी लगी, तो उसे अहसास हुआ, शायद उसके परिवार से ही किसी ने उसके मित्र को फोन कर के कुछ कह दिया, शायद इस दोस्ती की वजह से मेरी सहेली को मिल रही परेशानी या बदनामी जैसा कुछ...। सारी बात कहते-कहते मेरी सहेली की आंख में आँसू आ गए थे | उसका बस एक ही सवाल था...क्यों एक औरत और मर्द के बीच सिर्फ दोस्ती का रिश्ता कबूल नहीं कर सकता ये समाज...? क्या जरूरी है कि जो आपके साथ स्कूल-कॉलेज में पढ़ा हो, वही दोस्त कहलाने का हकदार है...? इससे परे कोई दोस्त, कोई हमदर्द नहीं हो सकता...? क्या दिल का साफ़ होना...अपने जीवन को खुली किताब की तरह जीना...पाप है आज के इस तथाकथित मॉडर्न, सभ्य और शिक्षित कहलाने वाले समाज में...?
पाप के रिश्ते तो कहीं भी बन सकते हैं न...और बनते आए भी हैं...फिर सिर्फ एक औरत-मर्द के दोस्ती के रिश्ते पर ही शक़ क्यों...? क्या घर की चारदीवारी के भीतर नित नए, अनैतिक रिश्तों की बाबत हम नहीं सुनते-पढ़ते आए हैं...? तो क्या हमने अपने जीवन में भी उन रिश्तों से किनारा कर लिया...? अगर नहीं, तो फिर दोस्ती का रिश्ता ही क्यों...?
मेरे पास अपनी सहेली के सवालों का कोई जवाब नहीं था...बहुत सारे अनुत्तरित सवालों की तरह...। आज कई दिन बीत चुके हैं...दोस्ती का एक प्यारा-सा रिश्ता इस अपाहिज मानसिकता वाले समाज की भेंट चढ़ चुका है...। दुनिया खुश है...समाज खुश है...पर क्या कोई समझेगा कभी कि इस घटिया मानसिकता की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है किसी को...?
4 comments
बहुत मर्मस्पर्शी...कुछ लोगों की विकृत मानसिकता स्त्री पुरुष के बीच केवल एक ही सम्बन्ध को जानती है, जब कि वे दोनों केवल एक अच्छे मित्र हो सकते हैं...कब बदलेगी यह संकुचित मानसिकता?
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कहानी .....मैं तो कहूँगी ये कहानी नहीं हमारे समाज का कड़वा सच है ।
ReplyDeleteप्रियंका आपके लिखने का ढंग, अंदाज़ पाठक को बाँधे अपने साथ लिए चलता है और आपने बखूबी इस अपाहिज मानसिकता वाले समाज की तस्वीर इस कहानी में हमारे सामने पेश की है ।
सुंदर और सच्ची कहानी साँझी करने के लिए बहुत बधाई ! ये कलम यूँ ही लिखती रहे!
हरदीप
कुछ कहानियां अपनी सी होती हैं... या फिर ये कहो अपनी ही... :(
ReplyDeleteदिल को छूती है आपकी यह कहानी… एक कटु सत्य से साक्षात्कार कराती ! बधाई आपको !
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