यादों में भी तो एक ज़िन्दगी बसती है...
Tuesday, August 06, 2013
कल डाक से ‘शुभ तारिका’ का ‘कृष्णांक-१२’ मिला...। पहला अंक खो चुका था, तो मेरे विशेष अनुरोध पर मुझे दूसरा अंक भिजवाया गया...। स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा आजकल, फिर भी जब बात डॉ.महाराज कृष्ण जैन से जुड़ी यादों की हो, तो फिर सारी बातें दोयम हो जाती हैं...।
जब से डॉ.साहब गए, कृष्णांक के रूप में हर वर्ष उनकी पुण्यतिथि पर उर्मि जी उनकी यादों को समेटने का निरन्तर, अथक और सफ़ल प्रयास करती आ रही हैं...। हर साल मैं सोचती थी, मैं भी सांझा करूँ अपनी कुछ यादों को, और हर साल फिर चूक जाती...। इस बार भी चूक ही गई थी, पर उर्मि जी से जब बात हुई तो उन्होंने हँस कर बोला,"ऐन वक़्त का इंतज़ार क्यों करती हो...बीच में कभी भी भेज दो...जब लिख डालो...।" उनसे वादा कर लिया था, जल्दी ही भेजूँगी...सो ये अंक पाकर अपना वादा पूरा करने का वक़्त आ गया शायद...।
बहुत छोटी थी जब डॉ. साहब से जुड़ी...उनके कहानी-लेखन महाविद्यालय के माध्यम से...। माँ (प्रेम गुप्ता ‘मानी’) तो पहले से ही जुड़ चुकी थी, जब उन्होंने लेखन शुरू ही किया था...। मैं तो माँ के मार्गदर्शन में छः-सात साल की उम्र में ही बालकथाएँ...बालकविताएँ लिख और छप रही थी...। सो डॉ. साहब के नाम और काम से तो परिचित ही थी मैं...। पर उनसे सीधे जुड़ने का कोई अवसर नहीं आया था ।
शायद आठवीं या नवीं में रही होऊँगी मैं, जब गर्मी की छुट्टी के दौरान कुछ नया सीखने की इच्छा अचानक ही जाग उठी...। उर्दू तो सीख ही रही थी, पर मुझे दिन भर चाहिए था कुछ-न-कुछ करने के लिए...। सो माँ ने ही कहा, तुम कहानी लेखन महाविद्यालय का कोई कोर्स ज्वॉइन क्यों नहीं कर लेती...। बड़ी हो रही हो, आगे तुम्हें तुम्हारे लेखन में ही ये काम आएगा...। तुम्हारी रुचि की चीज़ भी है...। सो एक दिन बैठ के सारे कोर्स खंगाल डाले...। पहले तो मन बना स्क्रिप्ट राइटिंग का, पर फिर अन्ततः चुना पत्रकारिता का कोर्स...।
उस कोर्स के दौरान जितना जानती गई डॉ. साहब को, मन उतना ही अधिक उनके प्रति सम्मान से भरता गया...। सिर्फ़ मेरे कोर्स के अभ्यासों और प्रगति पर ही नहीं, बल्कि मेरी हर सफ़लता, हर प्रकाशित होती रचना पर उनकी निगाह रहती थी...। वे अपने पत्रों के माध्यम से हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहते...। उनकी बातों में हमेशा एक आशावादी दृष्टिकोण रहता था। अक्सर मैं सोचती, डॉ. साहब हर तरह से बहुत सुखी व्यक्ति होंगे, वरना कोई कैसे इतना संतुष्ट, खुशमिजाज़ और आशावादी हो सकता है...। ये तो बहुत बाद में जाना कि कुदरत ने कोशिश तो बहुत कर ली अपनी तरफ़ से उन्हें दुःखी और निराश करने की, पर डॉ. साहब की दृढ़ता और जिजीविषा के सामने उसकी एक न चली...। सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है, एक चार साल के बच्चे ने कैसे झेला होगा अपने जीवन भर के लिए शारीरिक रूप से अक्षम हो जाने का दर्द...? पर फिर दिल उन्हें सलाम करने का भी करता है...। सारी कठिनाइयों पर सिर्फ़ अपने मानसिक बल के सहारे विजय पाते हुए उन्होंने कितना ऊँचा मुकाम हासिल कर लिया...पूरी दुनिया में इतने अपने बना लिए जो आज उनके जाने के बारह साल बाद भी पूरी श्रद्धा और प्यार से उन्हें याद करते हैं...। आज तो दुनिया में अपना परिवार साथ छोड़ देता है, पर उनके महाविद्यालय-परिवार ने तो कभी उनका साथ नहीं छोड़ा...और शायद ये सम्भव हुआ, ज़िन्दगी को देखने के उनके नज़रिए के कारण, सबसे उनके इतने गहरे आत्मीय व्यवहार के कारण...। अगर मैं कहूँ कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का मंत्र वास्तव में उन्होंने सही मायने में अपने जीवन में अपना लिया था, तो शायद ग़लत नहीं होगा...।
कोर्स तो ख़त्म हो गया था, पर उनसे मेरा जुड़ाव ख़त्म नहीं हुआ था..। गाहे-बगाहे मैं उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसका जवाब भी आ जाता था...लगभग तुरन्त ही...। अपनी हर सफ़लता पर मैं उनका आशीर्वाद लेती रहती थी, चाहे फिर वो मेरे एक्ज़ाम्स के रिज़ल्ट हो या फिर किसी रचना का प्रकाशन...या फिर कोई पुरस्कार...। कभी किसी बात से हताश या निराश-सी हो जाती, तो भी उन्हें तुरन्त लिख देती थी...और फिर उनका उत्साह बढ़ाता एक जवाब आ जाता...और मैं भी नए सिरे से सारी हताशा परे धकेल फिर जुट जाती...।
बालकथाओं के साथ-साथ बड़ी कहानी लिखने के लिए भी उन्होंने मेरा उत्साह बहुत बढ़ाया था, मेरी माँ के अलावा...। मुझे आज भी याद है, पत्रकारिता के कोर्स के दौरान एक अभ्यास था, जिसके लिए अपने मन से सोचे किसी समाचार को रोचक ढंग से लिखना था। जब मैने उन्हें वो लिख कर भेजा तो शाबाशी देता उनका जवाब आया था...तुम्हारे लिखने के तरीके में एक अच्छे कहानीकार के गुण नज़र आते हैं...। निश्चय ही तुम एक अच्छी कहानीकार बनोगी...। अब अच्छी कहानीकार बनी कि नहीं ये तो नहीं कह सकती, पर हाँ, उस पत्र के बाद से मैंने सच में गम्भीरता से बड़ी कहानी लिखने की ओर सोचना और प्रयास करना शुरू कर दिया था...।
एक बात और भी क़ाबिले-तारीफ़ थी डॉ. साहब की...उनकी याद्दाश्त...। अनगिनत लोग जुड़े हुए थे उनसे, सबसे उनकी वैसी ही आत्मीयता...पर फिर भी शायद हर किसी से जुड़ी बातें उन्हें याद रहती थी...। उनसे जुड़ा हर शख़्स जैसे उनके ही परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता था...। उसके हर सुख-दुःख में वे हमेशा शरीक रहते थे...। हर किसी को उनके इसी सहज-सरल स्वभाव के कारण हमेशा लगता था, जैसे दुनिया में एक वो ही उनके सबसे करीब है...। कृष्ण नाम का यह गुण उन्होंने बखूबी अपनाया था...।
‘वर्तमान में जीओ’, ये उनका मूलमंत्र था...। अतीत पर शोक या भविष्य की चिन्ता करना...दोनो बातों के लिए उन्होंने अपने जीवन में कोई स्थान नहीं रखा। सौभाग्य से उन्हें सहधर्मिणी के रूप में उर्मि जी मिली, जो सही मायने में उनकी अर्धांगिनी साबित हुई...। आज बारह सालों से उनके बग़ैर भी वे उनके शुरू किए हुए महाविद्यालय और पत्रिका का जितनी कुशलता से संचालन कर रही हैं, उसके लिए वे साधूवाद की हक़दार हैं...। डॉ. साहब के साथ उन्हें भी नमन करने को जी चाहता है...।
उनके पत्रों के रूप में उनकी बहुत सारी यादें आज भी मेरे पास सहेज कर रखी हुई हैं, बस एक कसक रह गई मन में, कभी उनसे मिल न सकी...। पर उन्हीं की बात मानते हुए इस बात का दुःख नहीं मनाती, क्योंकि जब तक किसी की यादें हमारे पास, हमारे दिलो-दिमाग़ में सुरक्षित हैं, तब तक वो इंसान हमारे भीतर ज़िन्दा ही तो रहता है...और डॉ.महाराज कृष्ण जैन न जाने कितने दिलों में आज भी ज़िन्दा हैं और हमेशा रहेंगे...।
उनकी उन्हीं यादों को मेरा सादर, अश्रुपूरित नमन...।
जब से डॉ.साहब गए, कृष्णांक के रूप में हर वर्ष उनकी पुण्यतिथि पर उर्मि जी उनकी यादों को समेटने का निरन्तर, अथक और सफ़ल प्रयास करती आ रही हैं...। हर साल मैं सोचती थी, मैं भी सांझा करूँ अपनी कुछ यादों को, और हर साल फिर चूक जाती...। इस बार भी चूक ही गई थी, पर उर्मि जी से जब बात हुई तो उन्होंने हँस कर बोला,"ऐन वक़्त का इंतज़ार क्यों करती हो...बीच में कभी भी भेज दो...जब लिख डालो...।" उनसे वादा कर लिया था, जल्दी ही भेजूँगी...सो ये अंक पाकर अपना वादा पूरा करने का वक़्त आ गया शायद...।
बहुत छोटी थी जब डॉ. साहब से जुड़ी...उनके कहानी-लेखन महाविद्यालय के माध्यम से...। माँ (प्रेम गुप्ता ‘मानी’) तो पहले से ही जुड़ चुकी थी, जब उन्होंने लेखन शुरू ही किया था...। मैं तो माँ के मार्गदर्शन में छः-सात साल की उम्र में ही बालकथाएँ...बालकविताएँ लिख और छप रही थी...। सो डॉ. साहब के नाम और काम से तो परिचित ही थी मैं...। पर उनसे सीधे जुड़ने का कोई अवसर नहीं आया था ।
शायद आठवीं या नवीं में रही होऊँगी मैं, जब गर्मी की छुट्टी के दौरान कुछ नया सीखने की इच्छा अचानक ही जाग उठी...। उर्दू तो सीख ही रही थी, पर मुझे दिन भर चाहिए था कुछ-न-कुछ करने के लिए...। सो माँ ने ही कहा, तुम कहानी लेखन महाविद्यालय का कोई कोर्स ज्वॉइन क्यों नहीं कर लेती...। बड़ी हो रही हो, आगे तुम्हें तुम्हारे लेखन में ही ये काम आएगा...। तुम्हारी रुचि की चीज़ भी है...। सो एक दिन बैठ के सारे कोर्स खंगाल डाले...। पहले तो मन बना स्क्रिप्ट राइटिंग का, पर फिर अन्ततः चुना पत्रकारिता का कोर्स...।
उस कोर्स के दौरान जितना जानती गई डॉ. साहब को, मन उतना ही अधिक उनके प्रति सम्मान से भरता गया...। सिर्फ़ मेरे कोर्स के अभ्यासों और प्रगति पर ही नहीं, बल्कि मेरी हर सफ़लता, हर प्रकाशित होती रचना पर उनकी निगाह रहती थी...। वे अपने पत्रों के माध्यम से हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहते...। उनकी बातों में हमेशा एक आशावादी दृष्टिकोण रहता था। अक्सर मैं सोचती, डॉ. साहब हर तरह से बहुत सुखी व्यक्ति होंगे, वरना कोई कैसे इतना संतुष्ट, खुशमिजाज़ और आशावादी हो सकता है...। ये तो बहुत बाद में जाना कि कुदरत ने कोशिश तो बहुत कर ली अपनी तरफ़ से उन्हें दुःखी और निराश करने की, पर डॉ. साहब की दृढ़ता और जिजीविषा के सामने उसकी एक न चली...। सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है, एक चार साल के बच्चे ने कैसे झेला होगा अपने जीवन भर के लिए शारीरिक रूप से अक्षम हो जाने का दर्द...? पर फिर दिल उन्हें सलाम करने का भी करता है...। सारी कठिनाइयों पर सिर्फ़ अपने मानसिक बल के सहारे विजय पाते हुए उन्होंने कितना ऊँचा मुकाम हासिल कर लिया...पूरी दुनिया में इतने अपने बना लिए जो आज उनके जाने के बारह साल बाद भी पूरी श्रद्धा और प्यार से उन्हें याद करते हैं...। आज तो दुनिया में अपना परिवार साथ छोड़ देता है, पर उनके महाविद्यालय-परिवार ने तो कभी उनका साथ नहीं छोड़ा...और शायद ये सम्भव हुआ, ज़िन्दगी को देखने के उनके नज़रिए के कारण, सबसे उनके इतने गहरे आत्मीय व्यवहार के कारण...। अगर मैं कहूँ कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का मंत्र वास्तव में उन्होंने सही मायने में अपने जीवन में अपना लिया था, तो शायद ग़लत नहीं होगा...।
कोर्स तो ख़त्म हो गया था, पर उनसे मेरा जुड़ाव ख़त्म नहीं हुआ था..। गाहे-बगाहे मैं उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसका जवाब भी आ जाता था...लगभग तुरन्त ही...। अपनी हर सफ़लता पर मैं उनका आशीर्वाद लेती रहती थी, चाहे फिर वो मेरे एक्ज़ाम्स के रिज़ल्ट हो या फिर किसी रचना का प्रकाशन...या फिर कोई पुरस्कार...। कभी किसी बात से हताश या निराश-सी हो जाती, तो भी उन्हें तुरन्त लिख देती थी...और फिर उनका उत्साह बढ़ाता एक जवाब आ जाता...और मैं भी नए सिरे से सारी हताशा परे धकेल फिर जुट जाती...।
बालकथाओं के साथ-साथ बड़ी कहानी लिखने के लिए भी उन्होंने मेरा उत्साह बहुत बढ़ाया था, मेरी माँ के अलावा...। मुझे आज भी याद है, पत्रकारिता के कोर्स के दौरान एक अभ्यास था, जिसके लिए अपने मन से सोचे किसी समाचार को रोचक ढंग से लिखना था। जब मैने उन्हें वो लिख कर भेजा तो शाबाशी देता उनका जवाब आया था...तुम्हारे लिखने के तरीके में एक अच्छे कहानीकार के गुण नज़र आते हैं...। निश्चय ही तुम एक अच्छी कहानीकार बनोगी...। अब अच्छी कहानीकार बनी कि नहीं ये तो नहीं कह सकती, पर हाँ, उस पत्र के बाद से मैंने सच में गम्भीरता से बड़ी कहानी लिखने की ओर सोचना और प्रयास करना शुरू कर दिया था...।
एक बात और भी क़ाबिले-तारीफ़ थी डॉ. साहब की...उनकी याद्दाश्त...। अनगिनत लोग जुड़े हुए थे उनसे, सबसे उनकी वैसी ही आत्मीयता...पर फिर भी शायद हर किसी से जुड़ी बातें उन्हें याद रहती थी...। उनसे जुड़ा हर शख़्स जैसे उनके ही परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता था...। उसके हर सुख-दुःख में वे हमेशा शरीक रहते थे...। हर किसी को उनके इसी सहज-सरल स्वभाव के कारण हमेशा लगता था, जैसे दुनिया में एक वो ही उनके सबसे करीब है...। कृष्ण नाम का यह गुण उन्होंने बखूबी अपनाया था...।
‘वर्तमान में जीओ’, ये उनका मूलमंत्र था...। अतीत पर शोक या भविष्य की चिन्ता करना...दोनो बातों के लिए उन्होंने अपने जीवन में कोई स्थान नहीं रखा। सौभाग्य से उन्हें सहधर्मिणी के रूप में उर्मि जी मिली, जो सही मायने में उनकी अर्धांगिनी साबित हुई...। आज बारह सालों से उनके बग़ैर भी वे उनके शुरू किए हुए महाविद्यालय और पत्रिका का जितनी कुशलता से संचालन कर रही हैं, उसके लिए वे साधूवाद की हक़दार हैं...। डॉ. साहब के साथ उन्हें भी नमन करने को जी चाहता है...।
उनके पत्रों के रूप में उनकी बहुत सारी यादें आज भी मेरे पास सहेज कर रखी हुई हैं, बस एक कसक रह गई मन में, कभी उनसे मिल न सकी...। पर उन्हीं की बात मानते हुए इस बात का दुःख नहीं मनाती, क्योंकि जब तक किसी की यादें हमारे पास, हमारे दिलो-दिमाग़ में सुरक्षित हैं, तब तक वो इंसान हमारे भीतर ज़िन्दा ही तो रहता है...और डॉ.महाराज कृष्ण जैन न जाने कितने दिलों में आज भी ज़िन्दा हैं और हमेशा रहेंगे...।
उनकी उन्हीं यादों को मेरा सादर, अश्रुपूरित नमन...।
1 comments
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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