बस यूँ ही

Wednesday, November 21, 2012

कहते हैं न कि किसी दिन आप किसी ऐसे का मुँह देख कर उठते हैं कि आपका दिन बहुत ही अच्छा बीतता है...सो पिछले महीने का एक दिन भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही साबित हुआ...दोपहर को जब मेरे हाथों में डाकिया ने एक रजिस्ट्री पकड़ाई...। हाँलाकि मुझे पहले से पता था कि उसमें क्या है (आखिर इतनी बेसब्री से इंतज़ार जो कर रही थी), पर फिर भी उसे खोलने की मेरी उत्सुकता कुछ कम नहीं थी । पैकेट फटाफट खोल डाला...अन्दर से निकली दो बहुत प्यारी किताबें...। एक था हाइकु का सम्पादित संकलन- `यादों के पाखी'- और दूसरा था, सेदोका संकलन-`अलसाई चाँदनी' । दोनो ही संकलन आदरणीय रामेश्वर काम्बोज `हिमांशु', डॉ. भावना कुँवर और डॉ. हरदीप संधू के कुशल सम्पादन से सजे हैं । इतनी बढ़िया पुस्तकें हाथ में हों तो किसे उन्हें पढ़ने का लोभ नहीं होगा भला...? घर के सब लोग खाना-वाना खाकर सो रहे थे, सो मौका बढ़िया जान मैं चुपके से दूसरे कमरे में चली गई और फिर चल पड़ी यादों के पाखी के संग उस अलसाई सी चाँदनी में नहाने...। एक-से बढ़ कर एक रचनाकरों की सशक्त कलमों से निकली पंक्तियाँ...वाह, क्या बात है...! उनके बीच अपना नाम देख कर, अपनी रचनाएँ भी संकलित पाकर मुझे अब भी वैसी ही खुशी होती है, जैसी अपनी पहली रचना छपने पर हुई थी...(बस तब छोटी थी, सो नाच-कूद ली थी, अब वो तो नहीं कर पाती...)
सबसे पहले बात करूँ `यादों के पाखी' की...। इसके हाइकु पढ़ कर एक बात का तो यक़ीन हो गया, जैसे सब के सुख-दुःख एक जैसे होते हैं, वैसे ही बहुत हद तक यादें भी साँझी होती हैं...। इन हाइकुओं में कहीं माँ की याद थी तो कहीं पिता के संग न होने का ग़म...कहीं प्रियतम की प्यार भरी यादें हैं तो कहीं किसी अपने की बेवफ़ाई का जिक्र...। कुछ यादें चेहरे पर मुस्कान ले आती हैं तो कुछ आँखों में नमी...। सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि एक तरफ़ जहाँ इसमें डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव और डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी जैसे इतने वरिष्ठ रचनाकार हैं, वहीं बिल्कुल नए रचनाकारों को भी उसी आत्मीयता और सम्मान के साथ स्थान दिया गया है । इसमें बस एक और सिर्फ़ एक बात का ध्यान रखा गया है- रचना का स्तर और उसकी सशक्तता...। यही मापदण्ड `अलसाई चाँदनी' में भी रखा गया है। इसके लिए निश्चित तौर पर सम्पादक-त्रयी को श्रेय जाता है। आदरणीय काम्बोज जी और हरदीप जी तो `हिन्दी-हाइकु' और `त्रिवेणी' के माध्यम से इन जापानी काव्य-शैलियों- हाइकु, ताँका, चोका और सेदोका- को पूरी लगन और समर्पण के साथ स्थापित करने में जुटे हैं, पर इस क्षेत्र में भावना जी का योगदान भी कम नहीं। न केवल उनके अपने हाइकु संग्रह उनकी सशक्त क़लम की गवाही देते हैं, बल्कि आदरणीय काम्बोज जी के साथ मिल कर उनके सम्पादित हाइकु (चन्दनमन) और ताँका संग्रह (भाव-कलश) में भी उनकी इस विधा के प्रति गहन लगन की अनुभूति होती है। `यादों के पाखी' में तो एक और सशक्त हस्ताक्षर रचना श्रीवास्तव जी ने भी संयोजन में अपना सराहनीय योगदान दिया है। 
और अब बातें इन में संकलित हाइकु और सेदोका की...। उनके बारे में क्या लिखूँ...? कभी-कभी लगता है मेरे पास शब्द कम पड़ जाते हैं...। कुछ हाइकु और सेदोका तो ऐसे हैं जिन्हें एक बार पढ़ने से मन ही नहीं भरता, बीच-बीच में जब समय मिल रहा , किताब खोल एक बार फिर पढ़ जाती हूँ...। पहले सोचा, कुछ को आपके सामने पेश करूँ...। पर दुविधा इतनी है कि कुछ समझ नहीं पा रही, किसे लूँ, किसे छोड़ूँ...। सभी एक-से-एक मोती हैं...। जिसे भी छोड़ दूँ, लगता है, माला अधूरी रह गई...। पर मन नहीं मान रहा...। मैं अकेली ये अमृत पीऊँ...?
तो डॉ. भगवतशरण अग्रवाल जी को सादर नमन करते हुए उनका हाइकु दे रही- मत कुरेदो/ स्मृतियों के ढेर को-/ ज्वालामुखी हैं। और- जिन द्वारों पे/ दस्तकें दी ताउम्र/ कोई भी न था।
डॉ.सुधा गुप्ता जी का- भीगा कम्बल/यादों का, ओढ़े बने/ न ही उतारे।
डॉ. मिथिलेश दीक्शित का-चाँदनी संग/ आज उतरी याद/ बरसों बाद!
डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव जी का- गाँव मुझको/ ढूँढता, मैं गाँव को/ खो गए दोनो ।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी का- दीजिए बता/ भीगी हुई आँखों को/ हँसी का पता ।
आदरणीय काम्बोज जी का- धोना पड़े जो/ कभी मन-आँगन/ यादें बचाना।
डॉ. भावना कुँवर का- खूब ये कातें/ चरखा ये यादों का/ सूनी सी रातें ।
डॉ. हरदीप कौर संधू का- पगती रही/ यूँ रूह की खुराक/ यादों के चूल्हे ।
डॉ. सतीश राज पुष्करणा जी का- माँ की आवाज़/ मन्दिर की घण्टी सा/ पावन राग ।
प्रगीत कुँअर का- यादें बेचारी/मन की गलियों में/ फिरती मारी ।
रचना श्रीवास्तव का- ताखे निशानी/ खूँटी पे टँगी याद/ रुलाती मुझे ।
कमला निर्खुपा का- अनकही सी/ उलझी-उलझी सी/ पहेली यादें।
डॉ. जेन्नी शबनम का- सपने आए/ रोज़-रोज़ बुलाए/ बूढ़ा पीपल ।
सुभाष नीरव का-गुदगुदाती/ कभी रुलाती यादें/ चुपके से आ ।
सुशीला शिवराण का-बर्फ़ का गोला/ जाग उठती गली/ हाथ चवन्नी ।
डॉ अनीता कपूर का- यादों के ख़त/ भटकते पहुँचे/ बरसों बाद ।
मंजू मिश्रा का- तेरी वो याद/ चूड़ी सी खनकी थी/ बरसों बाद ।
डॉ. ज्योत्सना शर्मा का-पत्तियाँ नहीं/ झरती किताबों से/ यादें तुम्हारी ।
डॉ. उर्मिला अग्रवाल का-उजास फैली/ भोर किरन नहीं/ तेरी याद थी ।
चन्द्रबली शर्मा का-यादों की परी/ चुरा ले गया कौन/ आँखें भी मौन ।
और अन्त में...इतने सशक्त हस्ताक्षरों के बीच मैं भी- बंद खिड़की/ दरारों से झाँकती/ यादें चोरटी ।

इस खूबसूरत माला के इन मोतियों की चमक आप भी महसूस कर सकें, यही कोशिश की है मैने...।  

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