समन्दर जैसी माँ
Saturday, November 03, 2012
कविता
समन्दर जैसी
माँ
प्रियंका गुप्ता
मेरी माँ
अक्सर मुझे
नदी नहीं
समन्दर सी लगती है
ऊपर
से गरजती लहरों भरी
तटों को बहा ले जाने को आतुर
पर अंदर से
धीर-गंभीर-शांत
जिसने अपने अंतस में
छिपाए हैं सैकड़ों राज़
ख़ुशियों की सीपियाँ
तो कभी
दुःखों की चट्टानें और झाड़ियाँ
जिसके
अंदर
मछलियों की तरह
तैरते-पलते हैं
कई रंग-बिरंगे सपने
समन्दर...
जो कभी किसी से कुछ लेता नहीं
और अगर लेता है
तो चुका देता है सूद समेत
समन्दर...
जो आगे बढ़ कर
स्वागत
करता है सबका
रहता है आतुर
नदी को ख़ुद में समा लेने को...
पर वो भी
कभी-कभी
शायद चाँदनी रात की ख़ामोशी में
जब बेचैन होता है
चाहता है
काश ! कोई तो होता
जो उसे भी आगोश में ले लेता...
हाँ, कभी-कभी
समन्दर में भी सुनामी आती है
जो अथाह तबाही मचाती है
पर क्या
समन्दर को तूफ़ानों का हक़ नहीं है ?
कभी-कभी
मुझे लगता है
माँ नदी होना चाहती है
पर
मैं कहती हूँ
माँ-
तुम कभी नदी मत होना
क्योंकि हर कोई समन्दर नहीं होता
और माँ
समन्दर ही है जो
नदी की तरह
कभी
अपना अस्तित्व नहीं खोता...
(सभी चित्र गूगल से साभार )
5 comments
sahi kaha...samander mein sab kuchh samet lene ki shakti hai.bahut achhi rachna.
ReplyDeleteबेहद सुन्दर रचना खूबसूरत
ReplyDeleteदीदी, बहुत पसंद आई कविता मुझे..
ReplyDeleteआंटी को भी जरूर पसंद आएगी ये कविता..उन्हें पढ़वाया आपने?
मां की नई व्याख्या है....पर सच है समंदर की तरह होती है मां....अंत तक आतुर बच्चे के लिए ही। जोशी जी की यादें आपके साथ हैं..ये एक अमूल्य निधी है आपकी।
ReplyDeleteअच्छी कविता के लिए साधुवाद !