कुछ यादें मेरे जोशी अंकल की

Sunday, September 16, 2012


                      कुछ यादें मेरे जोशी अंकल की...
                                                                                         प्रियंका गुप्ता

Photo - Wikipedia.org
                               


    आज कई दिन या कहिए कई  हफ्ते गुज़र चुके हैं, मनोहर श्याम जोशी जी के जन्मदिन को...मनोहर श्याम जोशी, यानि कि मेरे जोशी अंकल...।
    एक इतने बड़े, प्रतिष्ठित लेखक और उतने ही दमदार व्यक्तित्व के स्वामी जोशी जी कब और कैसे मेरे अपने से जोशी अंकल बन गए थे, आज सोचती हूँ तो थोड़ा आश्चर्य होता है...।
    कई साल पहले की बात है, बिल्कुल ठीक सन मुझे याद नहीं, बस इतना याद है कि मैं छोटी थी और शायद नवीं या दसवीं में थी जब कानपुर में `संगमन' की एक गोष्ठी में मनोहर श्याम जोशी जी मुख्य अतिथि की हैसियत से आए थे । मम्मी (प्रेम गुप्ता `मानी') की साहित्यिक संस्था `यथार्थ' तब तक कानपुर की एक महत्वपूर्ण और मजबूत साहित्यिक मंच के रूप में अपनी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुकी थी, सो ऐसी गोष्ठियों में उन्हें भी आमन्त्रित किया जाना लाजिमी था। एक बाल-लेखिका के तौर पर ऐसी गोष्ठियों में मैं भी बड़ी रुचि से मम्मी के साथ जाती थी। पर हमारा फण्डा वही था, दंद-फंद से दूर, सिर्फ़ अपने काम से जाने जाओ...। हम दोनो को ही चाटुकारिता करना न तब आता था, न अब...। सो हमेशा की तरह स्वेच्छा से बैक-सीट ही चुनी थी...जो हम लोगों ने आगे बैठ जाने के कई आग्रहों को मम्मी द्वारा विनम्रतापूर्वक ठुकराए जाने के कारण अन्त तक नहीं छोड़ी थी...।
      थोड़ी देर इंतज़ार के बाद जोशी जी का सब से पहला रूप जो सामने आया, वो गुस्से भरा ही था। जिनको उन्हें स्टेशन से लाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, वे संभवतः ट्रैफ़िक या फिर किसी और कारण के चलते स्टेशन देर से पहुँचे थे और अब जोशी जी लम्बे सफ़र और फिर इंतज़ार से थके-पके से सीधे आयोजकों पर बरस पड़े थे। कारण तो मुझे बाद में पता चला था, पर मेरे किशोर मन ने उनकी पहली छवि एक दंभी व्यक्ति की बना ली थी...जिन से दूर रहने में ही भलाई होती है...। (काफ़ी सालों बाद मैने यह बात उन्हें लिखी थी, जिस पर पत्र के माध्यम से ही वे खूब हँसे थे...।) पर जब मामला शान्त हुआ तो उनका वास्तविक रूप खुल कर सामने आने लगा था...एक हँसमुख और सहज व्यक्ति का...। उस दिन उन्होंने अपने बचपन की, अपनी जवानी की कई बातें वहाँ की थी, बहुत बार मज़ाक भी किया था...। कुल मिला कर बहुत सारे साहित्यकारों की तरह बोझिल बातें नहीं की थी...।
       गोष्ठी के दो सत्र होने थे, सो बीच में जलपान का भी प्रबन्ध था। बहुत सारे लोगों से घिरे वे एक तरफ़ थे और कुछ लोगों के साथ मैं और मम्मी एक तरफ़...। अपने ग्रुप में बातें करते-करते अचानक वे हमारी ओर बढ़ आए। उन्हें अपनी ओर आते देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ, इतने बड़े लेखक क्या सच में हमारी तरफ़ आ रहे या इधर आते हुए बगल से निकल जाने वाले हैं...? पर पहला अंदाज़ा सही था। वे सीधे मम्मी से मुख़ातिब हुए,"मैं शुरू से देख रहा हूँ, लोग मेरे पास आकर मेरा अटेन्शन ले रहे, पर आप लोग चुपचाप एक तरफ़ बैठी हैं, ऐसा क्यों...?"
       जवाब मम्मी ने बड़ी शालीनता से दिया था,"मैं अटेन्शन लेकर प्रसिद्धि पाने में यक़ीन नहीं रखती...। अगर मेरा काम अच्छा होगा तो अटेन्शन मिल ही जाएगा...। वैसे भी आज आप को सुनने आई हूँ, वो तो कर ही रही...।"
        मम्मी का खरा जवाब शायद उन्हे अच्छा लगा था, तभी उन्होंने आगे बातचीत करनी शुरू कर दी थी। हमारा नाम पूछा, लेखन की जानकारी ली और फिर सहसा मुझसे मुख़ातिब हो गए,"टी.वी सीरियल या फ़िल्मों में काम का शौक है...?"
        एक क्षण को मैं अचकचा गई, ये कैसा सवाल...? हालांकि सीरियल लेखक के रूप में मैं उनकी बहुत बड़ी फ़ैन थी, पर काम...? मेरा अचकचाना वो समझ गए थे, सो आगे बात उन्होंने ही स्पष्ट की थी,"एक फ़िल्म पर काम चल रहा और `विरासत' नाम का एक सीरियल भी है...। दोनो के लिए नए चेहरे की तलाश है...। तुम मुझे बहुत अच्छी लगी इस लिए मैने सोचा, शायद इंटरेस्टेड हो...।"
       कौन लड़की ऐसे ऑफ़र के लिए इंटरेस्टेड न होगी भला...? पर मामला लटक गया समय और स्थान-परिवर्तन को लेकर...। उन्होंने साफ़ बता दिया कि कम-से-कम तीन से छः महीने के लिए मुझे कानपुर छोड़ना होगा...। अगर सीरियल के लिए फ़ाइनल होती हूँ तो दिल्ली, वरना पिक्चर के लिए तो बम्बई शिफ़्ट होना पड़ेगा उतने समय के लिए...। मैं थी पढ़ाकू नम्बर वन...। कोई भी चीज़ पढ़ाई की कीमत पर मेरे लिए महँगा सौदा थी...। सो मन मसोस कर `न' में गर्दन हिला दी...। अपनी समस्या भी बता दी...आज तक हमेशा फ़र्स्ट आती रही...। अब अगर एक्टिंग का लालच करती हूँ (जो पता नहीं मैं कर भी पाती या नहीं...) तो या तो अपना यह साल मैं रिपीट करूँ या एक्ज़ाम में अपनी बैण्ड बजवाऊँ...। मेरा भय वो समझ गए थे, सो मुझ पर कोई दबाव डाले बग़ैर सिर्फ़ अपना पता मुझे नोट करवा दिया कि अगर मेरा विचार बदले तो मैं उन्हें सूचित कर दूँ...। अगर तब तक कुछ फ़ाइनल नहीं हुआ होगा तो मेरा चाँस पक्का...। (वैसे बाद में उनकी फ़िल्म ‘पापा कहते हैं’ के लिए मयूरी काँगो चुनी गई थी और ‘विरासत’ के साथ-साथ ‘प्रेम’ और ‘बन्धन’ उनके तीन ऐसे सीरियल थे जो विभिन्न कारणों से पायलट बनने के बाद अटक गए)
       मैने इस बात में तो हामी नहीं भरी, हाँ आने वाले नए साल में मैने नव वर्ष की शुभकामनाएँ देते हुए एक कार्ड डाल दिया। उत्तर की आशा थी नहीं, बस यूँ ही भेजा था। पर एक सुखद आश्चर्य की तरह लौटती डाक से ही उनका उत्तर आया था। उन्हें मैं याद थी...और इस तरह पत्र-व्यवहार का शुरू हुआ सिलसिला अन्त तक चला। दुर्भाग्यवश उनसे दुबारा मुलाक़ात नहीं हो पाई। मैं तो दिल्ली या बम्बई गई नहीं, हाँ एक बार वे कानपुर ज़रुर आए पर जिन से उन्होंने हमारे यहाँ ले आने की बाबत कहा, उन्होंने तो हमें जानने से ही साफ़ इंकार कर दिया। हमारे नाम से अनभिज्ञता दर्शाने वाले सज्जन (?) जोशी अंकल को यह बताना भूल गए शायद कि यथार्थ की गोष्ठी में सैकड़ों बार आने के साथ-साथ वे न जाने कितनी बार वैसे ही हमारे घर पधार चुके हैं। उन्होंने बाद में भला-मानुष बनते हुए दूसरे दिन हमें फोन करके यह ज़रूर बता दिया कि पिछले दिन जोशी जी उनके मेहमान थे। सच कहूँ, मुझे बहुत गुस्सा आया था और उसी गुस्से से भरा एक लम्बा-चौड़ा ख़त मैने जोशी अंकल को लिख डाला। पोस्टकार्ड तो वे अपने ही हाथ से लिखते थे, पर कभी जब अन्तर्देशीय आता था, तो वह टाइप रहता था । वैसे तो टाइप किए पत्र में भी अन्त में अपने हाथ से दो-तीन लाइन लिख कर आख़िरी में ‘तुम्हारा जोशी अंकल’ लिखना याद रहता है, पर कानपुर आकर हमारे यहाँ आए बग़ैर चले गए...। जवाब में तुरन्त जोशी अंकल का सारी बात स्पष्ट करता पत्र आया था। सच्चाई जान कर मैं हतप्रभ थी...। जिन सज्जन ने हमें न जानने का बहाना किया था, वे मेरे पापा की उम्र के लगभग थे, सो लाजिमी था कि मैं उन्हें सम्मानवश ‘अंकल’ का दर्ज़ा देती...। (वैसे भी उस दौर के ज़्यादातर कनपुरिया लेखक मेरे अंकल ही थे...।) मम्मी से उनका कम्पटीशान समझ आ सकता था, पर मुझसे...? ख़ैर, जब जोशी अंकल को सच्चाई पता चली तो उन्होंने मुझे सांत्वना दी थी...ऐसी चीज़ों से कभी परेशान मत होना...। हर शहर, हर दौर में ऐसे लोग मिलते रहते हैं...। उन्हें नकार कर बस अपने काम पर ध्यान दो और आगे बढ़ो...।
     हिन्दी पाठकों की किताब खरीदने की घटती प्रवृति पर उनका क्षोभ अक्सर सामने आता था। इस लिए जब उनकी किताब ‘हरिया हरक्यूलियस...’ के कई प्रसंगों के बारे में जानने के लिए मैने उन्हें लिखा तो सब से पहले तो उन्होंने मुझे किताब खरीद कर पढ़ने पर बधाई और आभार दोनो दिया था, और फिर सविस्तार मुझे उन सारे प्रसंगों का आगा-पीछा बताया था, जिनको लेकर मैं दुविधाग्रस्त थी। मेरी पहली बड़ी कहानी ‘ज़िन्दगी बाकी है’ जब अमर उजाला में छपी तो उस पर भी उनकी प्रतिक्रिया ने मेरा उत्साह बहुत बढ़ाया था।
     उन्हीं से मुझे ग्लैमर वर्ल्ड के लेखन का भी एक राज़ पता चला। उन दिनों टी.वी पर महेश भट्ट निर्मित जोशी अंकल का लिखा हुआ एक सीरियल ‘ज़मीन-आसमान’ शुरू हुआ था। कई महीनों तक तो वो मेरा पसन्दीदा रहा, पर धीरे-धीरे वो अजीब रंग लेता गया। मैने उनको इस बाबत लिख दिया। जवाब में पता चला कि वे तो काफ़ी दिन पहले ही ( लगभग ४९ एपीसोड लिख कर ) उस सीरियल से अलग हो चुके हैं क्योंकि वे कहानी को कोई और रूप-रंग देकर ख़त्म करना चाहते थे, पर चैनल और प्रोड्यूसर की माँग कुछ और थी। सो उस माँग के आगे झुकने से बेहतर उन्होंने सीरियल से किनारा करना ही समझा।  अब सीरियल लिख कोई और रहा है और उनका सिर्फ़ नाम जा रहा है। उन्होंने बड़े अफ़सोस से लिखा था,"तुम्हें क्या, मुझे पसन्द नहीं आ रहा...। मन करे तो देखना, वरना छोड़ दो...।"
      अपने हर पत्र में वे मुझे रेगुलर लेखन के लिए प्रेरित करते थे। किसी पत्र का तुरन्त जवाब देना मैने उन्हीं से सीखा। मेरे पत्रों का जवाब तो उनकी ओर से तुरन्त आ जाता था, एक मैं ही आलसी थी जो पत्र तो उन्हें लिखती थी, पर पत्र के दिनांक से कई दिन बाद पोस्ट कर पाती थी। मेरा यह आलसीपना उनसे छिपा नहीं था । सो अक्सर उनकी चिठ्ठियों में शुरुआत होती थी, "तुम्हारा...को लिखा और ...को डाक में डाला गया पत्र मुझे आज की डाक से मिला...।"
        उनकी इसी त्वरितपने के चलते वे लगभग हमेशा कहीं बाहर जाने से पहले मुझे बता देते थे, ताकि समय पर जवाब न मिलने से मैं ‘उत्तर क्यों नहीं दिया’ सोच कर अपना माथा न दुखाऊँ...और इसी बात की शिकायत करके उनकी सरदर्दी न करूँ...। यही विषय उनके मुझे लिखे आख़िरी ख़त का भी था। वे और आँटी अमेरिका जा रहे थे...उनकी बहू एक नन्हे मेहमान को इस दुनिया में लाने वाली थी, सो लगभग चार महीने उन्हें वहाँ बिताना था...। आने वाले चार महीनों तक तो मैने कोई पत्र लिखा ही नहीं, पर उसके बाद भी मैं कई महीनों तक उन्हें पत्र नहीं लिख सकी...। एक अन्दाज़ा था कि उन्हें लौटे कई दिन नहीं, बल्कि कई महीने गुज़र चुके थे, पर मैं उस समय अपने काफ़ी बुरे स्वास्थ्य के साथ-साथ कई तरह की पारिवारिक व्यस्तताओं से जूझ रही थी । सो मेरी आदतानुसार ‘आज लिखूँगी-कल लिखूँगी...’ करते-करते अचानक ख़बर सुनी, जोशी अंकल नहीं रहे...।
         मैं हतप्रभ थी...। अचानक ये क्या हो गया...। आँखों में आँसू के साथ मन में एक पछतावा भी था...। काश! मैं इतना आलस न करती...उन्हें पत्र लिख देती...। अभी तो न जाने कितनी बातें उन्हें लिखनी थी, उनसे पूछनी थी...। पर बेरहम वक़्त सिवा पछतावे के हाथ में छोड़ता ही क्या है...?
                  आज वे नहीं हैं, पर उनकी पत्र के माध्यम से छोड़ी गई वे तमाम यादें मेरे पास हैं। अब तो ईमेल का ज़माना आ गया, पर जब तक लोगों को पत्र लिखती रही, मैने कोशिश की कि जिस तारीख़ को लिखूँ, उसी पर पोस्ट करूँ, ताकि फिर कोई पत्र पाने वाला उनकी तरह ‘फलाँ दिनांक का लिखा, फलाँ को डाक में डाला...’ लिख कर मुझे रुला न दे...।

                                                             

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5 comments

  1. ग्लैमर की दुनिया में सतह के नीचे खूब हलचल मची होती है ...प्रतिभाएं इसलिए कई बार रास्ता बदल लेती है . जोशी जी अमर कृतियों का कौन फैन नहीं रहा होगा . उनके स्नेहमय व्यक्तित्व का परिचय भी प्राप्त हुआ !

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  2. पहली बार पढ़ा था तब भी बहुत अच्छा लगा था और अब भी :)

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  3. बहुत ही अच्छी पोस्ट एक महान लेखक एक अच्छे इन्सान जोशी जी सदैव लोगों की स्मृतियों में विराजमान रहेंगे |आभार प्रियंका जी |

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  4. अच्छे लगे आपके जोशी अंकल ..वे दिलों में रहेंगे !
    मंगलकामनाएं !

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