अपनी बात
Wednesday, April 20, 2011 कुछ अपनी कहूँ...
बरसों पहले की बात...एक सुबह छः - सात साल की एक लड़की ने अपनी आँखें खोली तो देखा, सामने बैठी माँ हाथों में अखबार लिए मुस्करा रही थी ।
" सरप्राइज...सरप्राइज..." उसका मुँह चूमते माँ ने हँस कर अखबार का" बच्चों का कोना" पृष्ठ उसकी आँखों के सामने कर दिया । अविश्वास और खुशी से लड़की का मुँह खुला रह गया । अखबार में छपी थी उसकी पहली कविता... यानि मेरी... प्रियंका गुप्ता की पहली कविता - लौट के बुद्धू घर को आए - अपनी नानी के यहाँ पली दो बिल्लियों लल्लू और मल्लू के नामों को लेकर लिखी गई कविता, मेरी पहली रचना -
एक था लल्लू, एक था मल्लू
दोनो मिल के गए बाजार,
राह में मिल गई बिल्ली मौसी,
छोड के भागे झोला दोनो
जान बची और लाखों पाए
लौट के बुद्धू घर को आए.
मेरा वह पूरा दिन खुशी से इतराते, नाचते बीता था । आस-पड़ोस, आए-गए, सभी को मैने जबरिया वह कविता दिखाई और पढ़ाई । मम्मी मेरे पागलपन पर हँस-हँस कर दोहरी हो रही थी । मुझसे ज्यादा खुशी उनको थी । आखिर बेटी उनके पदचिन्हों पर चलने को अपना पहला कदम जो बढा चुकी थी।
हाँ, मैने उन्हीं से तो प्रेरणा ली थी । मेरी माँ - प्रेम गुप्ता "मानी" - जब भी उनसे मिलने, चर्चा करने घर पर कोई लेखक अंकल या लेखिका आंटी आते, मैं पूरा समय वहीं बैठी रहती, बड़े ध्यान से कहानियाँ सुनती , उनकी बहस को गुनती और अपनी बाल-बुद्धि से जितना समझ आता, उस बहस और चर्चा में हिस्सा लेती । मजे की बात यह कि सब बच्चा समझ कर मुझे दरकिनार करने की बजाय मेरी राय को बड़े ध्यान से सुनते और मुझे बढावा देते ।
पढ़ना मैने बहुत छोटी उम्र में सीख लिया था । जिस उम्र में बच्चे ए, बी,सी डी और क, ख, ग, घ लिखना और पढना सीखते हैं , मैं चंपक, नंदन और पराग सरीखी बाल-पत्रिकाएं पढ़ने लगी थी...धीरे-धीरे मात्राएं मिला कर, मात्र चार वर्ष की उम्र में...। कहानियाँ पढ़ने का शौक मुझे कहानियाँ बनाने और सुनाने पर ले आया ।
मैं आज भी बहुत आभारी महसूस करती हूँ अपने शंभू अंकल (श्री शंभूनाथ शुक्ल, वर्तमान में अमर उजाला के प्रधान संपादक) और मानव अंकल ( श्री विजयकिशोर मानव जी) का , जिन्होंने मेरे अंदर के लेखक को पहचान कर उसे लिखने और छपने भेजने को प्रोत्साहित किया ।
मुझे अच्छी तरह याद है कि किस तरह शंभू अंकल की गोद में बैठ कर, उनका मुँह जबरिया अपनी ओर घुमा मैने उन्हें अपनी पहली बालकथा सुनाई थी - ठाकुर सड़ गए - । सुन कर हँसते हुए उन्होंने कहा था," लाओ, लिख कर लाओ इसे...छप जाएगी...।" मैं उछलते हुए अपनी चील-बिलौटा, बड़े-बड़े अक्षरों वाली लिखावट में उसे लिखने बैठ गई और उन्हें तब तक अपने घर से हिलने नहीं दिया, जब तक वह रचना पूरी नहीं हो गई ।
शंभू अंकल के निर्देशानुसार उसे छपने भेज कर मैं पूरे कान्फिडेन्स में थी कि रचना छपेगी (तब तक खेद सहित रचना लौटने का अनुभव जो नहीं था ), पर मम्मी को यही लगा कि मेरी बकबक से त्रस्त हो, मुझे टालने के लिए ही उन्होंने ऐसा कहा है ।
पर आखिर जीत मेरे विश्वास की ही हुई । आने वाले हफ़्तों में ही दैनिक जागरण के बच्चों के कालम में " ठाकुर सड़ गए " थी और मुझे मेरी पहली कमाई का स्वाद चखाने कुछ ही दिनो में दस रुपए का मनीआर्डर लिए दरवाज़े पर डाकिया खड़ा था । उस समय मैं दुनिया की सबसे अमीर और खुशनसीब लड़की थी ।
धीरे-धीरे कविता और कहानी लिखने की ओर मेरा रुझान बढ़ता गया । पढ़ाई में भी हमेशा अव्वल आती थी, सो मम्मी ने भी मेरी इस रुचि पर कभी कोई रोक नहीं लगाई । मेरी तीसरी रचना भी अपनी नानी की बिल्लियों पर लिखी गई एक कविता ही थी, "मेरी बिल्ली", जो अमृत प्रभात में छपी थी-
मेरी बिल्ली, बड़ी चिबल्ली
जाने क्यों इतराती है
मुझे बहुत ही भाती है
मम्मी देती दूध मुझे तो
चट वह सब कर जाती है
जब मैं उसको मार लगाती
तो मूंछों में मुस्काती है
पूँछ हिलाती, दौड़ लगाती
चूहों को बड़ा सताती है
खेले उनसे आँख-मिचौली
तो कभी मार खा जाती है
पापा कहते, मम्मी कहती
जंगल के राजा शेर की
यह नन्ही सी मासी है ।
तो इस तरह से शुरू हुई मेरी लेखन-यात्रा...। अपने लेखक अंकल-आंटियों से मैने प्रोत्साहन जरूर पाया पर..." अपने परिचय का कभी फायदा मत उठाओ, तुम्हारी पहचान तुम्हारी प्रतिभा ही होगी..." मम्मी का कहा, बनाया और अपनाया यह उसूल मैने भी अपने जीवन में उतारा ।
पहली-दूसरी कक्षा से शुरू हुए इस सफ़र में लगातार आगे बढ़ते हुए मैं देश के लगभग सभी शीर्ष अखबारों के बालपृष्ठ पर और बालपत्रिकाओं में अपना स्थान बना चुकी थी । सौभाग्य से तब हर अखबार में बच्चों के लिए एक पृष्ठ जरूर होता था ।
दिन यूँ ही बीत रहे थे । तब तक मम्मी की कहानियों का पहला संग्रह - लाल सूरज - आ चुका था । सो एक दिन उनके मन में विचार आया कि क्यों न मेरी बाल रचनाओं का भी एक संकलन तैयार किया जाए और इस तरह पहली बार मैने भी जाना कि अपनी ही स्टोरी-बुक को पढ़ना कैसा सुखद लगता है - नयन देश की राजकुमारी - के रूप में...। हँसते-खेलते ही संग्रह को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान भेज दिया गया और फिर एक दिन डा. राष्ट्रबन्धु अंकल का पत्र आया, आशीर्वाद सहित बधाई देता कि " नयन देश की राजकुमारी " पर मुझे उ.प्र.हिन्दी संस्थान से " सूर अनुशंसा पुरस्कार " देने की घोषणा हुई है । पहले तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ, लगा जानने-समझने में भूल हुई है...पुरस्कार और मेरी पुस्तक पर...!! पर सच आखिर सच ही साबित हुआ । मम्मी-पापा के साथ वे सब लोग भी प्रसन्न थे जिन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया था ।
मम्मी ने तब तक कहानियों को समर्पित कानपुर की एकमात्र संस्था-यथार्थ- का गठन कर लिया था, जिसकी हर महीने एक कथा-गोष्ठी आयोजित होती थी । कानपुर के ही नहीं, बल्कि कई बार उसमें बाहर से भी आए लेखक शामिल होते थे । मैं भी बिला-नाग़ा उसमें सम्मिलित होती...कहानियाँ सुनती और उनकी समीक्षाएँ भी करती । कई बार मेरी समीक्षा वहाँ मौजूद लेखक अंकलों और आँटियों को बेहद पसन्द भी आती थी । तारीफ़ होती, तो आत्मविश्वास भी बढ़ता था ।
सबके आशीर्वाद से मेरा दूसरा बालकथा संग्रह - सिर्फ़ एक गुलाब - निकला । इसके प्रकाशन के बाद पहली खुशी तब मिली जब इसका विमोचन उड़ीसा के तत्कालीन राज्यपाल माननीय श्री बी. सत्यनारायण रेड्डी जी ने किया । संग्रह से संबंधित दूसरी खुशी चन्द महीनों बाद मिली जब पता चला - सिर्फ़ एक गुलाब - को प्रियम्वदा दुबे स्मृति पुरस्कार के लिए चुना गया है ।
अब तक मैं भी बचपन छोड़ बड़प्पन(???) की ओर बढ़ने लगी थी । पर बच्चों के लिए लिखना मैने अब भी नहीं छोड़ा था । कई बार मुझसे कहा गया, अब बड़ी हो रही हो , अब तो छोड़ो यह बचपना...। पर मैं खुश थी...संतुष्ट थी...। बच्चों का साथ मुझे हमेशा अच्छा लगता है । उनके साथ उन्हीं की उम्र जीना मुझे अब भी पसन्द है...उनकी उम्र के मज़ाक...बेसिर-पैर की हँसी-ठिठोली...बिन बात के भी हँसना...वो ऊँचे, और ऊँचे...गगन के पार तक उड़ जाने की उनकी कल्पनाएँ...मैं सब में उनके साथ होती हूँ...। मुझे गर्व है कि जिस समय लोग दिन-पर-दिन बढ़ते जा रहे अपने बच्चों को देख, भविष्य में किसी समय आने वाले अपने बुढ़ापे की भयावह कल्पना कर रुआँसे हो उठते हैं, मैं उस वक़्त भी बच्चों के साथ अपना बचपन पूरी उन्मुक्तता से जी रही होती हूँ...।
मम्मी की गोष्ठियों में आने वाले कुछ लेखक ऐसे भी थे, जिनसे हम लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध हो गए थे । उन्हीं दिनो ‘कादम्बिनी’ ने कानपुर में एक साहित्य महोत्सव आयोजित किया, जिसमें उन्होंने ‘ऑन-दि-स्पॉट’ कहानी-लेखन प्रतियोगिता भी रखी थी । तो बस, एक लेखक अंकल श्री मोहन तिवारी ने मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा ही दिया, यह कह कर कि जब बच्चों का मन पढ़ लेती हो, तो क्या अपनी उम्र के जज़्बात बयाँ नहीं कर सकती...बिल्कुल कर सकती हो...और मैने ‘हाँ’ कर दी । साथ में यह मज़ाक भी चल रहा था कि कौन सा बड़ी कहानियों में तुम्हारा कोई नाम है, नहीं भी जीती तो क्या फर्क़ पड़ता है...।
सो नियत दिन पहुँच गई प्रतियोगिता स्थल पर...। दिए गए विषय पर वहीं बैठ कर ताना-बाना बुना, लिखा और बिना किसी जीत-हार के टेन्शन के मस्ती से घर भी आ गई...। (वैसे मेरी उस कहानी का शीर्षक ‘घर’ ही था...।) दूसरे दिन शाम होते-होते घर पर फोन आया, मैने ही उठाया और अगले कुछ पलों में मैं खुशी से उछल रही थी...लगभग दो हज़ार प्रतियोगियों में से मेरी कहानी को सांत्वना पुरस्कार के लिए चुना गया था । अगले रोज हुए समारोह में उ.प्र के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम श्री मोतीलाल वोहरा के हाथों पुरस्कार पाते समय मैं अन्दर से सच में बड़ी तो हो गई थी...।
(कानपुर के लाजपत भवन सभागार में श्री मोतीलाल वोरा जी के हाथों पुरस्कार लेते हुए )
इस पुरस्कार ने, मम्मी ने और कई शुभचिन्तकों ने मुझे मैच्योर लोगों की, मैच्योर लोगों के लिए भी कहानी लिखने को प्रेरित किया...पर मेरी शर्त वही थी, मैं बालकथाएँ लिखना नहीं छोड़ूँगी...।
मेरी दूसरी कहानी थी-ज़िन्दगी बाकी है- जो मैने युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी है । वैसे अपने अब तक के जीवनकाल में न तो मैने कोई युद्ध देखा है और न जीते-जी देखना ही चाहती हूँ...। (कारगिल अपवाद है, पर उसे सिर्फ़ टी.वी पर देखा और महसूसा है।) यह कहानी जब ‘दैनिक अमर उजाला’ ने छापी, तब मुझे भी पक्का यक़ीन हो ही गया, बच्चों के लिए भले ही लिखती आई, पर बचकाना नहीं...। फिर मेरे दो बालकथा संग्रह और निकले- फुलझड़ियाँ , और नानी की कहानियां-...|
इस दौरान मैने कई और बड़ी कहानियाँ लिखी...। कईयों का कहना है कि मेरी कहानियाँ ज्यादातर पति-पत्नी के रिश्ते पर आधारित है...। पर मैं ऐसा नहीं मानती...। मेरी कहानी मानवीय संवेदनाओं पर आधारित है...अब इसके लिए अगर पति-पत्नी का रिश्ता अपनी कहानियों के मुख्य बिन्दु को उभारने के लिए मुझे सटीक लगा, तो मैने वही रखा...। और बात जब परिवार की आए, तो पति-पत्नी से ही तो एक परिवार की शुरुआत होती है...। एक स्त्री होने के नाते मैने स्त्री के कई रूपों को देखा है, जिया है...और वही अलग-अलग रूप मैने अपनी कहानियों में भी रखने की कोशिश की है।
आज जब मैं अपना पांचवा संग्रह ( जिसमे मेरी बड़ो के लिए लिखी गई कहानियां हैं...) अपने हाथों में लेती हूँ,तो मुझे बड़ी खुशी होती है । खुशी सिर्फ़ इस बात की नहीं कि एक और संग्रह निकला, बल्कि इस बात की भी है कि यह उन लोगों के लिए मेरा एक जवाब भी है जो मेरे पिछले संग्रहों को देख कर कुछ उदासीनता से कहते थे," अच्छाऽऽऽ, बच्चों के लिए...", गोया बच्चों के लिए लिख कर मैने कोई अपराध किया हो...।
न जाने क्यों हिन्दुस्तानी लेखक ( सभी लेखक नहीं...) अपनी विभिन्न संकीर्ण मानसिकताओं से उबर नहीं पा रहा...। आप बच्चों के लिए लिख रहे हैं, तो बचकाना लिख रहे...। क्यों भाई...बच्चे क्या बचकानी बातें ही समझते हैं ? मुझे तो लगता है, बच्चे हम बड़ों से ज़्यादा समझदार होते हैं । यह तो हमारा अहं ही होता है, जो उनकी समझदारी को नकार देता है । कभी किसी बच्चे से उसी की उम्र का बच्चा बन कर बात कीजिए, कई बातों में वह आपको लाजवाब कर देगा...। बच्चों के साथ बच्चा बन कर जीना शायद इंसानी जीवन की सबसे बड़ी खुशी है...अगर आप उसे महसूस कर सकें...। पंडित नेहरू को बड़े प्यार से चाचा नेहरू कह कर हम इसी लिए सम्बोधित करते हैं न...? और अपने महामहिम डा.अब्दुल कलाम...वे बच्चों के बीच क्या कम लोकप्रिय हैं...?
अपनी छः-सात साल की उम्र से लेकर आज तक के मेरे लेखकीय सफ़र में मैने यही कोशिश की है कि मेरे अंदर का बच्चा सदा मस्ती करता रहे, गुनगुनाता रहे और कहानियाँ गुनता रहे क्योंकि एक बच्चे की मुस्कराहट से ज्यादा पवित्र और अनमोल इस दुनिया में शायद कुछ भी नहीं...।
अब इस कोशिश में मैं कितनी कामयाब हुई, यह तो आप ही मुझे बताएँगे...मैं तो बस इतना ही कह सकती हूँ-
ज़िन्दगी की असली उड़ान अभी बाकी है
ज़िन्दगी के कई इम्तहान अभी बाकी हैं
अभी तो नापी है मुठ्ठी भर ज़मीन हमने
अभी तो सारा आसमान बाकी है...।
8 comments
प्र्यंका बेटी , आप कहानी -कविता ही नहीं वरन् गद्य भी अच्छा लिख लेती हो , उसी का नायाब नमूना है आपका यह संस्मरण्। रही बात बच्चों के लिए लिखना , मेरा कहना है - बच्चों के लिए लिखना बच्चों का खेल नहीं ।जिन्हें भच्चों के भाषायी स्तर का ग़्यान नहीं , वे चाहे जितने बड़े हों , बच्चों के लिए कुछ नहीं लिख सकते ।
ReplyDeleteआप बच्चों के मन को कितना अच्छा पढ़ती हैं ये आपकी पहले की पोस्ट्स से पता चलता है....
ReplyDeleteऔर अच्छा ही हुआ आपने पूरा सफर बयां कर दिया...पता है, मैं पूछने ही वाला था आपसे एक बार की कौन कौन सी पुस्तक आपकी छप चूकी है... :)
बड़ा अच्छा लगा पढ़ना...
आपकी कहानियां सही में बहुत अच्छी होती हैं.
Priyanka ji..
ReplyDeletekya kahoo..?? aapki sabse pehle wali aapki apni kahani padhi.. jisme aap Governer se prize le rahi hai.. its really mind blowing.. aap 4-5 saal ki umr se hi kahaniya padh leti thi.. just a god gift to u mam..!! mere paas aur shabd nahi hai kehne ke liye.. but one thing i must say.. i u really try .. in future .. naa jaane kab.. i could say to everyone that i m the friend of one of the India's finest poet..!!
बच्चों के लिए लिखना शायद सबसे कठिन काम है.क्योंकि जहाँ उसके लिए भाव और सहज अभिव्यक्ति का होना जरुरी है वहीँ बाल मानसिकता की समझ भी बहुत जरुरी है.
ReplyDeleteआप बहुत भाग्यशाली हैं जो आपको गुणवान लोगों का साथ और उनका प्रोत्साहन मिला और आपनी प्रतिभा को निखारने का मौका भी .
अच्छा लगा आपका संस्मरण.
सारा आसमान हे इस जज्बे के लिए.
ReplyDeleteआप सभी की बहुत आभारी हूँ...।
ReplyDeleteप्रियंका
बच्चों की मानसिकता को समझते हुए लिखा गया एक सार्थक लेख .....शुक्रिया
ReplyDeleteप्रियंका जी,
ReplyDeleteआपके बारे में जानकार बहुत ख़ुशी हुई| बच्चों पर लिखना सच में बहुत कठिन है पर अगर रूचि हो तो बहुत कठिन भी नहीं क्योंकि उस उम्र को हम जी चुके होते हैं और इसलिए उस दौर के बारे में समझ और लिख सकते हैं, बशर्ते की बच्चों का मनोविज्ञान समझा जाए| आपकी उपलब्धि केलिए बहुत बहुत बधाई| आशावादी शब्द...
ज़िन्दगी की असली उड़ान अभी बाकी है
ज़िन्दगी के कई इम्तहान अभी बाकी हैं
अभी तो नापी है मुठ्ठी भर ज़मीन हमने
अभी तो सारा आसमान बाकी है...।
बहुत शुभकामनाएं.