मन के आँगन, वो महक चन्दन-सी...
Saturday, April 09, 2011कल शाम को कुरियर वाले ने जब दरवाज़े की घण्टी बजाई, तो मुझे मालूम नहीं था कि आने वाली डाक मुझे इतना अच्छा महसूस कराने वाली है...। डाक से जो बुक पैकेट आया था वह आदरणीय रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी ने भेजा था । जब पैकेट खोला तो अप्रत्याशित रूप से जो किताबें उनमें से निकली, उन्हें देख मैं बहुत खुश हो गई । किताब जिसे देख मुझे सबसे ज़्यादा खुशी हुई, वह थी रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, जिन्हें मैं काम्बोज अंकल कहती हूँ, और डा. भावना कुँअर द्वारा सम्पादित हाइकु संग्रह- चंदनमन...।
आप सोचेंगे कि किताब देख कर इतना खुश होने जैसी क्या बात थी । पर बात तो थी न...जैसे किसी बच्चे को उसका मनपसन्द खिलौना मिल जाए तो वो कैसे रिएक्ट करेगा, उसकी कल्पना कीजिए...। हाइकु संग्रह देख कर मुझे ऐसा ही लगा । वो सिर्फ़ एक पुस्तक ही नहीं, बल्कि एक पूरा दस्तावेज़ ही है । अठ्ठारह सशक्त क़लमों से निकली सुन्दर सशक्त रचनाएँ...।
हाइकु एक ऐसी विधा है, जिसमें मेरे विचार से- जितने गहरे जाओ, उतने मोती पाओ- वाली बात लागू होती है । पाँच-सात-पाँच वर्णों के क्रम में सजी तीन लाइनों वाली नन्ही-सी कविता । पर जितना छोटा आकार, उतनी गहरी बात...। देखन में छोटी लगे, घाव कर गंभीर...। बस आपमें उसे महसूसने की, उसकी रसानुभूति करने की कितनी क्षमता है, हाइकु का आनन्द उठाना बस इसी बात पर निर्भर करता है ।
पुस्तक जिस समय मुझे मिली, वह वक़्त था मेरी बाकी ड्यूटियों का...। शाम की चाय, नाश्ता...फिर खाने की तैयारी...बेटे की पढ़ाई...वगैरह, वगैरह...। सो मन मसोस कर सरसरी निग़ाह से पुस्तक देखी और रख दी...। तुरन्त पढ़नी इस लिए नहीं शुरू की क्योंकि मैं उसे पढ़ना नहीं, उसमें डूबना चाहती थी ।
और डूबने का वक़्त मिला मुझे रात को...। सब कर्तव्यों से खाली हो, पूरी फ़ुरसत के साथ जब हाइकुओं की उस नदी में डूबने उतरी तो बस्स...। न जाने उन लहरों के साथ कितनी दूर तक तैर आई, पता ही नहीं चला...। बहुत सारे मोती भी चुन लिए मैने...अपनी मन की माला में पिरोने के लिए...। सबकी तो नहीं, पर कुछ की बानगी आपके सामने भी प्रस्तुत करना चाहूँगी...।
डा.भावना कुँवर का हाइकु- आज तो धूप / खोई रही ख़्वाबों में / जगी ही नहीं...में जहाँ एक बदली भरे दिन का वर्णन बड़ी खूबसूरती से किया है, वहीं - नन्हा-सा बच्चा / माँ के आँचल में है / लिपटा हुआ...में ममता की फुहार अनायास ही भिगो जाती है ।
देवी नागरानी जी का हाइकु- ये मौन क्या/ कभी चुप बैठा है / कुछ कहे बिन ?- का मौन सच में बहुत कुछ बयान कर देता है ।
एक और सशक्त हाइकुकार हरदीप कौर सन्धू - पहाड़ बनी / तुम बिन ज़िन्दगी / जीना मुश्किल...में विरह की पीड़ा बयाँ कर रही और - हमने किया/ दौलत की दौड़ में / दूर ख़ुदा को...में भौतिक सुख के अभिलाषी जीवन का असर बता रही ।
हाइकुओं में प्रकृति का भी बड़ा सटीक चित्रण कर दिया जाता है । जैसे कमला निर्खुपा जी का हाइकु- धानी आँचल / लहराया धरा ने / रस उमड़ा...और पूर्णिमा बर्मन का हाइकु - टेसू चूनर / अरहर पायल / वन दुल्हन...डा. रमाकान्त श्रीवास्तव जी का हाइकु -आए कोकिल / धुन वंशी की गूँजे / बौर महके...और डा.उर्मिला अग्रवाल जी का हाइकु- सूरज धुना / मेघ-रुई के गोले / धुनता रहा...आदि आपकी मन की आँखों के सामने प्रकृति के कई रूप मानो सजीव कर देते हैं ।
इस संग्रह की एक वरिष्ठ हाइकुकार डा. सुधा गुप्ता जी के विभिन्न हाइकु साल के हिन्दी महीनों पर लिखे गए हैं । मेरी नज़र के सामने से ऐसे क्रमबद्ध (बारहमासा) हाइकु शायद ही गुज़रे हों । कुछ बानगियाँ पेश हैं- चैत्र जो आया / मटकी भर नशा / महुआ लाया...( चैत्र ) ; आग की गुफ़ा / भटक गई हवा / जली निकली...(ज्येष्ठ) ; बजे नगाड़्रे / राजा इन्दर आए / ले के बारात...(आषाण) ;खिड़की पर/ काँप रही गौरैया / पानी से तर...(श्रावण) ; लड़ी-झगड़ी /झमाझम रो रही / हैं बदलियाँ...( भाद्रपद) ; रोती रहती/ बिन माँ की बच्ची-सी / पूस की धूप...(पौष) ;...आदि ।
जहाँ एक ओर डा. सतीशराज पुष्करणा जी ने समाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य कसते हुए कहा है - कैसा वक़्त है /कुत्ता खा रहा रोटी/ आदमी बोटी...। वहीं सुदर्शन रत्नाकर जी ने प्रेम-रस से सराबोर करते हुए कह दिया- आँसू तुम्हारे / गिरे मेरी आँखों से / मिटे हैं गिले...।
और अब अन्त में...अंग्रेजी में कहूँ तो - लास्ट, बट नॉट द लीस्ट - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के हाइकु...तुतली बोली/ आरती में किसी ने / मिसरी घोली...और - खिलखिलाई / पहाड़ी नदी-जैसी / मेरी मुनिया...मन को वात्सल्य-रस से सराबोर कर जाते हैं । मन को एक मीठे-से अहसास में डुबोने के लिए - तुम्हारा आना / आलोक के झरने / साथ में लाना...और बीते बरसों / अभी तक मन में / खिली सरसों... मौजूद हैं। प्रकृति का एक प्यारा-सा रूप भी है उनके हाइकुओं में - सुबह धूप / उतरी आँगन में / ले शिशु-रूप...।
तो अब कितना लिखूँ...। मेरा मन तो इनसे भर ही नहीं रहा । तो अब बस हाइकुओं के बारे में इतना ही कहूँगी -
ज़िन्दगी अहसास का है नाम, धड़कन का नहीं
आदमी ज़िन्दा नहीं अहसास मर जाने के बाद ।
-(रेहाना कमर)
4 comments
परम प्रिय बेटी ! आपने जो लिखा ? लिखा नहीं , यह तो आपकी खिलखिलाहट है-
ReplyDelete"खिलखिलाई
पहाड़ी नदी-जैसी
मेरी मुनिया"
आज पता चाला वह मेरी मुनिया प्रिंयंका ही तो थी । इससे ज़्यादा क्या कहूँ!
आज तो धूप
ReplyDeleteखोई रही ख़्वाबों में
जगी ही नहीं..
..
हर हाइकू बेहतरीन है...मैं सबसे पहले हाइकू निर्मला कपिला जी के ब्लॉग में पढ़ा/जाना था.
प्रिय प्रियंका,
ReplyDelete"चंदनमन" मिलने की ख़ुशी को जिस तरह तुमने शब्दों में बांधा है शायद ही कोई और लिख पाता !
वाह ! जिसने यह हाइकु संग्रह नहीं भी पढना हो ....तुम्हारी लिखी पुस्तक समीक्षा पढकर उस का मन पढने को जरूर चाहेगा ! एक पत्नी व् एक माँ की ड्यूटियों के आगे यह साहित्य दूर किसी कोने में जा बैठता है और इंतजार करता है अपनी बारी का .....!
हाइकु को पढना व् समझना जो सीख गया मानो उसने गहरे समंद्र में से हीरे - मोती निकालना सीख लिया हो ....और यह कला प्रियंका में बखूबी दिखाई देती है ! तुम्हारे लिखे हाइकु भी कमाल का रंग बिखेरते है !
हार्दिक शुभकामनाएँ !
हरदीप सन्धु
प्रिय प्रियंका,
ReplyDelete"चंदनमन" मिलने की ख़ुशी को जिस तरह तुमने शब्दों में बांधा है शायद ही कोई और लिख पाता !
वाह ! जिसने यह हाइकु संग्रह नहीं भी पढना हो ....तुम्हारी लिखी पुस्तक समीक्षा पढकर उस का मन पढने को जरूर चाहेगा ! एक पत्नी व् एक माँ की ड्यूटियों के आगे यह साहित्य दूर किसी कोने में जा बैठता है और इंतजार करता है अपनी बारी का .....!
हाइकु को पढना व् समझना जो सीख गया मानो उसने गहरे समंद्र में से हीरे - मोती निकालना सीख लिया हो ....और यह कला प्रियंका में बखूबी दिखाई देती है ! तुम्हारे लिखे हाइकु भी कमाल का रंग बिखेरते है !
हार्दिक शुभकामनाएँ !
हरदीप सन्धु