औरत होने के मायने...

Tuesday, March 08, 2011





आज हर बार की तरह एक बार फिर ‘ महिला-दिवस ’ आ ही गया । कई बार सोचती हूँ, ये महिला-दिवस आखिर मनाया क्यों जाता है...? मैं यहाँ इसकी शुरुआत के इतिहास की बात नहीं कर रही, जैसा कि हम बाकी मनाए जाने वाले दिवसों के बारे में कहते हैं कि यह फलाँ-फलाँ घटना या इंसान की याद में शुरू हुआ...वगैरह-वगैरह...। मेरे कहने का मतलब इस महिला-दिवस के औचित्य से है । क्या इस पूरी दुनिया के पुरुषवादी समाज को यह याद दिलाने की कोशिश की जाती है कि इस दुनिया में तुम्हारे साथ बाकी जीव-जन्तुओं की तरह एक औरत भी रहती है...? या फिर यह सदियों से ग़ुलामों का सा व्यवहार झेलने की आदी स्त्री के सामने एक चारा फेंका जाता है कि देखो, इस समाज में हम तुम्हें भी अहमियत दे रहे हैं...। तुम्हारे लिए पूरा एक दिन ही कर दिया, बाकी बचे ३६४ दिन से तुम्हें क्या लेना-देना...। इसी लिए यह न कहना कि किसी को तुम्हारी परवाह नहीं...। तुम्हारी परवाह है न...अख़बारों में विभिन्न क्षेत्रों में अपने दम-ख़म पर कोई मुक़ाम हासिल करने वाली महिलाओं का फोटो ( या बग़ैर फोटो के भी ) जिक्र कर दिया जाता है...टी.वी में भी ऐसी महिलाओं के ऊपर एक कार्यक्रम दिखा देते हैं, हम उनकी उपलब्धि देख उनकी प्रशंसा कर देते हैं...कई बार उनसे प्रेरणा भी ले लेते हैं, इतनी परवाह काफ़ी है न...। पर मेरा सवाल यह है कि देश की अधिकांश महिलाओं के रूप में जो एक आम औरत है, उसके जीवन में यह दिन कौन सा तीर मार लेता है...?
आठ मार्च का दिन ‘महिला-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, यह शायद अधिकांश महिलाओं को मालूम भी नहीं...। रोज की तरह एक आम महिला उस दिन भी सुबह जल्दी उठ कर बच्चों और पति के लिए नाश्ता बनाती है, पति को अख़बार के साथ बिस्तर तक चाय पहुँचाती है, बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजती है, पति के प्रेस कर के रखे कपड़े को उनके नहाने से पहले निकाल कर देती है, अगर घर में पतिदेव ने थोड़ी मुरव्वत दिखाते हुए उसकी मदद को बर्तन-झाड़ू-पोंछे के लिए कामवाली लगा दी तो ठीक, वरना ये भी खुद ही करती है...। वो अपनी मदद के लिए ऐसी कोई कामवाली माँगने की कई बार यह कर हक़दार नहीं मानी जाती कि " तुम्हारे घर का ही तो काम है...और फिर अपने घर का काम करने में कैसी शर्म...? पूरा दिन आखिर खाली बैठे-बैठे करोगी क्या ?" और औरत बेचारी इस भय से कि समाज में कहीं उसकी छवि घर के काम-काज से दूर भागने वाली एक उच्छृंखल महिला के रूप में न बन जाए , चुपचाप अपनी बाकी इच्छाओं का, अपने लिए थोड़ा वक़्त निकाल पाने के सपने का गला घोंटते हुए घर के कामों में जुट जाती है ।
मैं ये नहीं कहती कि घर का काम करना बुरा है या हर पत्नी को कामवाली मिलनी ही चाहिए...। बहुत सी औरतों को घर का सारा काम खुद ही करके आत्मिक सुख की अनुभूति होती है...। मेरा कहना सिर्फ़ इतना है कि जब , जहाँ , जिसे ज़रूरत हो, उसकी इच्छा का सम्मान होना चाहिए । मैने कई ऐसी औरतों को देखा है, जिनके पति किसी क्षेत्र में सफ़ल किसी महिला का गुणगान महज अपनी पत्नी को यह अहसास कराते हुए, नीचा दिखाते हुए करते हैं कि देखो, वह भी तो औरत है, पर कितनी गुणवान और सफ़ल...। कुछ ऐसी पत्नियों को मैने पति की नज़र बचा कर अपना दुःख कहते भी सुना है कि "कर तो मैं भी लेती, पर ये पसन्द करें तब न...।"
और कई मामलों में ‘ये’ वास्तव में ऐसा नहीं होने देते...। मेरी एक परिचिता हैं । उनके पति कई बार राह चलते कार चलाती महिलाओं को ड्राइविंग करते देख आहें भरा करते हैं । पत्नी ने इसे अपने लिए एक अदृश्य हरी झण्डी मानते हुए जब खुद भी कार ड्राइविंग की ट्रेनिंग लेने की बात कही, पति ने बिना पूरी बात सुने ही उसे चेतावनी दे डाली," खबरदार ! हाथ-पैर तुड़ा कर बैठ गई तो तुरन्त तुम्हारे घर फेंक आऊँगा...। मेरे घर में रहना है तो ऐसी फ़ालतू की बातें मेरे सामने न करना ।" दोहरे अफ़सोस की बात यह थी कि पत्नी की क़ाबिलियत पर अविश्वास के साथ-साथ पति ने यह भी जता दिया कि वह ‘घर’ उसका नहीं था ।
आज स्त्रियाँ सिर्फ़ भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में अपनी क़ाबिलियत का झण्डा हर क्षेत्र में गाड़ रही हैं । हम शारीरिक रूप से मंगल पर जाने की बात करते हैं, पर मानसिक स्तर पर, अपने व्यक्तिगत रूप में हम शायद पाताल में हैं । आज भी कई घरों में बेटी के साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार होता है । चाहे उच्च शिक्षा हो, कैरियर का चुनाव हो , या फिर शादी के बाद लिए जाने वाले कई निर्णयों में उसकी सहभागिता का सवाल...किसी में उसे कई बार कोई स्थान नहीं दिया जाता । यहाँ तक कि जिस सन्तान के जन्म में वह मौत से संघर्ष करती है, उसके साथ उसका नाम ही नहीं होता । अधिकांश स्त्रियाँ तो शादी के बाद ‘मिसेज़ फलाँ’ के नाम से ही जानी जाती हैं । उनके माँ-बाप ने उनका क्या नाम रखा था, कई बार तो शायद उनके परिवारवाले भी भूल जाते होंगे । मुझे आज भी अच्छी तरह याद है , जब अपने बेटे के जन्मदिन का निमन्त्रण देने मैं अपने मोहल्ले के सबसे पुराने परिवार में पहुँची और वहाँ मैने निमन्त्रण पत्र पर अंकल के नाम के साथ लिखने के लिए आण्टी का नाम पूछा, तो उनका जवाब वही था, " अरे बेटा, अंकल के नाम के पहले मिसेज़ लगा दो...।" पर मैं नहीं मानी । जब उन्होंने अपना नाम बताया ‘कंचन’ , तो मैने उस वक़्त उनके चेहरे पर जो चमक देखी, वह शब्दों में बयान नहीं कर सकती । आखिर उनके मन में कहीं गहरे छुपा बैठा एक अनकहा दर्द सामने आ ही गया," इतने साल हो गए मुझे यहाँ रहते, पर न तो इस मोहल्ले में और न ही मेरे किसी जान-पहचान वाले को यह मालूम है कि मेरा अपना नाम कंचन है...। तुम शायद अकेली हो...। कई बार तो मुझे लगता है कि शायद मेरे बेटे पापा का नाम तो झट से बता देंगे, पर मेरा नाम बताने के लिए उन्हें सोचना पड़ेगा...।" कैसी विडम्बना !
इन सब बातों के अलावा एक और बात जो मुझे  बहुत बुरी लगती है- वह है पुरुषों की औरतो के प्रति " हँसी तो फँसी" की अवधारणा...।
सोशल साइटों पर शामिल अपनी कई महिला मित्रों से पूछने पर, और खुद भी कई बार, मैने यह देखा है कि कई पुरुषों की पूरी कोशिश रहती है कि वे आपका फोन नम्बर जान लें...चाहे आप उन्हें जानती हो या न जानती हों...। कई बार वे आप के मेल में अभद्र बातें भी कर डालेंगे, शायद यह सोच कर कि आप सोशल साइट पर हैं , आपने अपनी लिस्ट में पुरुषों को भी अपने मित्र के रूप में शामिल किया है ,तो आप निश्चय ही खुले विचारों की होंगी और इसीलिए शायद आसानी से पट जाएँ...। ( माफ़ कीजिएगा, पटने जैसा शब्द इस्तेमाल कर रही, पर ऐसे लोगों की ऐसी ही गन्दी मानसिकता होती है, जिसे बताने के लिए मुझे इससे मुफ़ीद शब्द और कोई नहीं लगा ।) मुझे घिन आती है ऐसी गन्दी सोच रखने वाले लोगों से...। पर अगर आपको मौका लगे और आप उनके जीवन में झाँक कर देख पाएँ , तो आप ज्यादातर यही पाएँगे कि अपने घर की महिलाओं की स्वतन्त्रता को लेकर वे बहुत सख़्त हैं...। इसके पीछे क्या उनके अपने ग़िरेबाँ में झाँक लेने की सच्चाई तो नहीं...? 
खैर ! कितना और कहूँ...। बस मुझे लगता है कि अगर महज खानापूर्ति की बात न हो तो महिला दिवस मनाने से अच्छा है कि हम खुद से एक वायदा कर लें कि अपने आसपास की महिलाओं को हम पूरा सम्मान देंगे, उन्हें उनकी इच्छापूर्ति करने के लिए सारे अवसर देंगे और शायद सबसे बड़ी बात- इस सृष्टि की रचयिता को जन्म लेने का पूरा अधिकार देंगे...। शायद तब हमें कोई ‘महिला-दिवस’ मनाने की आवश्यकता ही न रहे क्योंकि शायद तब पूरे ३६५ दिनों पर सभी का समान हक़ होगा...।

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8 comments

  1. प्रियंका बेटी आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ । हमारी यह गुलामी वाली सोच बहुत दु:खद है । संकीर्ण सोच के कारण हम आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। कुछ तो पहले ही दिन महिला का ईमेल पा जाने पर मोबाइल नम्बर जानने की फ़रमाइश कर बैठते हैं, युवा ही नहीं खड़ूस भी ।

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  2. अच्छी पोस्ट है प्रियंका जी,लगभग आपकी सभी बातों से सहमत हूँ..

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  3. प्रियंका जी
    आप ने सही लिखा है !
    आज के पुरुष को औरत का सम्मान करना सीखना होगा !
    जो बातें आप ने लिखीं है यह केवल भारतीय समाज पर ही लागु होती हैं...वो भी उन औरतों पर जो पुरुष का सम्मान करती हैं उन को नीचा दिखाने की बात कभी भी उन के मन में नही आती..
    दूसरी ओर मैने ऐसी औरतें भी देखीं है जिन को पति की ...घर की कोई परवाह नही...
    वो पति को चाबी से चलने वाला खिलौना मानती हैं...
    पर जैसा जिकर पुरुष का आप ने किया है उन की गिनती ज्यादा है..ऐसी औरतों से ...
    सो कहने का भाव है के दिल मैं शुधता होनी चहिए ...दोनो के मन में एक दूसरे के लिए सम्मान होना चहिए....

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  4. बहुत ही सार्थक पोस्ट !
    "नारी दिवस "की सार्थकता बिना सोच में बदलाव लाये संभव नहीं है !

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  5. priyanka ji..
    aapko bahut saari badhaiyaan.. itni sateek baat likhne ke liye..

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  6. NAMASHKAR. KAESI HAIN PRIYANKA JI?
    Aaj fir aapka ek lekh padha kaesey kar leti hain aap ye sab itni achhi tarah se aapney aaj fir mahila ki samaj me sthiti k barey me likha.. thanx for sharing

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