आनन्दी के बहाने...
Friday, January 21, 2011बहुत दिनो से मैं कलर्स टी.वी पर दिखाए जा रहे सीरियल " बालिका वधू " देख रही हूँ...। कई दिन क्या , बल्कि कहूँ तो शुरुआत के चन्द एपिसोड छोड़ कर लगभग सारे एपिसोड देखे हैं । वैसे मैं सीरियल कम ही देखती हूँ । आखिर होता क्या है उनमें...? वही ग्लिसरीन का भरपूर प्रयोग , मँहगी-मँहगी डिज़ायनर ज्वैलरी और डिज़ायनर कपड़े , अनोखे षड़्यन्त्र...सास-बहू आदि के या तो गुड़ को भी मात करने वाले रिश्ते या एक-दूसरे को कच्चा खा जाने को तैयार , एक-दूसरे का बड़ी आसानी से खून तक कर देने की कहानियाँ...। मुझे ऐसी बनावटी कहानियों से बड़ी कोफ़्त होती है...। पर बालिका वधू मुझे इन सब से काफ़ी हद तक अलग लगा...। शुरू से ही...।सबसे अच्छी बात मुझे इसमें यह लगती है कि इसमें समाज के कई ज्वलन्त मुद्दों को बड़ी खूबसूरती और प्रभावी ढंग से उठाया गया है । चाहे बात बाल विवाह की हो ( जो आज भी भारत के कई हिस्सों में प्रचलित है , खास तौर से राजस्थान के गाँवों में ) , लड़कियों को पढ़ाने की हो , उनके कम उम्र में माँ बन जाने के कारण मौत के मुँह में समा जाने की हो , विधवा-विवाह की हो या शहरों के मायाजाल में फँस कर अपने गाँव-परिवार को भुला देने वाले युवा वर्ग की हो...।
आज कल के एपिसोड्स में कहानी का नायक जगदीश उर्फ़ जग्या ऐसे ही मोहजाल में फँस अपने गाँव को हिक़ारत से देख रहा है...। उसे गाँव की हर चीज़ से नफ़रत महसूस हो रही है...। जिस मिट्टी में पल कर वह इस काबिल बना , आज वही मिट्टी उसे गन्दगी लगती है । इस समस्या के समान्तर एक विषय जो धारावाहिक में बड़ी सफ़लतापूर्वक उठाया गया है और जो मुझे और ज्यादा बड़ी सामाजिक समस्या लग रही है , वह है - विवाहेतर सम्बन्धों के चलते अपने साथी का तिरस्कार , उससे और उसकी हर बात से नफ़रत ।
एक ओर जहाँ जैत्सर जैसे छोटे से गाँव से उठ कर जगदीश महानगर मुंबई आता है , डाक्टरी की पढ़ाई करने के लिए और वहाँ आकर न केवल वहाँ की चकाचौंध भरी ज़िन्दगी से चौंधिया कर अपने गाँव के परिवेश को हिकारत से देखने लगता है , वहीं दूसरी ओर अपनी एक खूबसूरत सहपाठिनी से अपनी विवाहित होने की असलियत भी छुपा कर उसके प्यार में अपनी सुघड़-सलोनी पत्नी आनन्दी से भी दूर होने लगता है ।
यहाँ मुझे एक बात महसूस होती है , यूँ एक समय की प्रिय अपनी पत्नी से किसी दूसरी लड़की के कारण दूर होने की बात सिर्फ़ गाँव से शहर आए लड़के / पुरुष पर ही लागू नहीं होती , बल्कि शहर में रह रहे उन पुरुषों पर भी लागू होती है , जो पत्नी के हर तरह से सुशील होने के बावजूद कभी साथ काम करने वाली किसी सहकर्मी महिला के कारण , तो कभी किसी पड़ोसिन या फिर कभी किसी रिश्तेदार महिला के तथाकथित प्रेम में पड़ कर अपने वैवाहिक जीवन में खुद अपने हाथों से आग लगाते हैं...और ज्यादातर दोष किसके मत्थे जाता है- महिला के...। अब यह बात दूसरी है कि अलग-अलग परिस्थितियों में परिवार टूटने का कलंक अपने माथे झेलने वाली लड़की / महिला या तो पत्नी होती है या प्रेमिका...। पुरुष तो बड़ी आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेता है...। या तो पत्नी पर आरोप मढ़ा जाता है कि - बेचारे पति का इतना ध्यान ही नहीं रखा होगा , तभी तो बाहर भटका...। अगर उसे पत्नी से ही पूरा प्यार मिलता तो क्यों बाहर दूसरी के फेर में पड़ता...। प्रेमिका पर तो खैर डायन , कुलटा , घर उजाड़ने वाली आदि का खिताब नवाज़ ही दिया जाता है...। पर कोई क्या पुरुष से भी ये पूछता है कि भईया , तुम्हारा दिल , दिल और पत्नी का...? या फिर तुम ने तो दूसरा कन्धा तलाश लिया , पर अपने परिवार को बचाने के नाम पर जो तुमने उस ‘दूसरी ’ को भी धोखा दे दिया तो अब तुम्हारी प्रेमिका किसका कन्धा ढूंढे...? अक्सर लोग , खास तौर से औरतें ही , ऐसे मामलों में बड़ा रस लेते हैं । पर कभी क्या इंसान कहे जाने वाले लोग इस सारे मामले में ढेर सारी पीड़ा झेलने वाली उस लड़की के दिल का हाल जानने की कोशिश करते हैं , बिना चटखारे लिए हुए...?
सीरियल में जगदीश न केवल अपना असली नाम ही बदल लेता है , बल्कि बात-बात पर वह अपनी पत्नी आनन्दी को सिर्फ़ इस कारण दुत्कारता है , क्योंकि वह उसके मन-मुताबिक शहरी अन्दाज़ से नहीं रहती...। यह तो खैर सीरियल है , पर असल ज़िन्दगी में भी ऐसा करने वाले लोगों से मैं पूछना चाहूँगी कि अपनी पत्नी से घृणा करने से पहले वे अपने परिवार , वहाँ के माहौल और उनकी पत्नी जिस परिस्थिति में है , उसकी ओर भी गौर कर लें...। बाहरी चकाचौंध ही ज़िन्दगी की असलियत नहीं होती...। क्योंकि बहुत पुरानी कहावत भी तो है ," हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती...।"
ऐसी असल ज़िन्दगी की भी एक-आध घटनाएँ मेरे सामने हैं , जिसमें इस सीरियल की ही तरह पत्नी हर त्याग कर के , ज़िन्दगी की हर लड़ाई...हर कष्ट अपने नाम करके पति को आगे बढ़ने में मदद करती है , और वही पति जब एक सफ़ल इंसान के रूप में दुनिया के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है तो उस पत्नी का त्याग भूल कर उसे ही त्याग देता है...।
" बालिका वधू " में जिस तरह से पति-पत्नी के रिश्ते और युवा मन का गाँव से पलायन , दोनो विषय साथ-साथ ही बड़े असरदार तरीके से दिखाए जा रहे हैं , वो न जाने कितने संवेदनशील दर्शकों को शायद मेरी ही तरह सोचने पर मजबूर कर रहे होंगे । बात चाहे सीरियल की करूँ या असल ज़िन्दगी की , आज आनन्दी के बहाने ही सही , एक सवाल सब से पूछना चाहूँगी...आखिर क्यों...? कब तक...?
शायद इस सवाल का कोई सटीक जवाब हज़ारों आनन्दियों को जग्या के लिए आँसू बहाने से रोक पाएगा...।
आज कल के एपिसोड्स में कहानी का नायक जगदीश उर्फ़ जग्या ऐसे ही मोहजाल में फँस अपने गाँव को हिक़ारत से देख रहा है...। उसे गाँव की हर चीज़ से नफ़रत महसूस हो रही है...। जिस मिट्टी में पल कर वह इस काबिल बना , आज वही मिट्टी उसे गन्दगी लगती है । इस समस्या के समान्तर एक विषय जो धारावाहिक में बड़ी सफ़लतापूर्वक उठाया गया है और जो मुझे और ज्यादा बड़ी सामाजिक समस्या लग रही है , वह है - विवाहेतर सम्बन्धों के चलते अपने साथी का तिरस्कार , उससे और उसकी हर बात से नफ़रत ।
एक ओर जहाँ जैत्सर जैसे छोटे से गाँव से उठ कर जगदीश महानगर मुंबई आता है , डाक्टरी की पढ़ाई करने के लिए और वहाँ आकर न केवल वहाँ की चकाचौंध भरी ज़िन्दगी से चौंधिया कर अपने गाँव के परिवेश को हिकारत से देखने लगता है , वहीं दूसरी ओर अपनी एक खूबसूरत सहपाठिनी से अपनी विवाहित होने की असलियत भी छुपा कर उसके प्यार में अपनी सुघड़-सलोनी पत्नी आनन्दी से भी दूर होने लगता है ।
यहाँ मुझे एक बात महसूस होती है , यूँ एक समय की प्रिय अपनी पत्नी से किसी दूसरी लड़की के कारण दूर होने की बात सिर्फ़ गाँव से शहर आए लड़के / पुरुष पर ही लागू नहीं होती , बल्कि शहर में रह रहे उन पुरुषों पर भी लागू होती है , जो पत्नी के हर तरह से सुशील होने के बावजूद कभी साथ काम करने वाली किसी सहकर्मी महिला के कारण , तो कभी किसी पड़ोसिन या फिर कभी किसी रिश्तेदार महिला के तथाकथित प्रेम में पड़ कर अपने वैवाहिक जीवन में खुद अपने हाथों से आग लगाते हैं...और ज्यादातर दोष किसके मत्थे जाता है- महिला के...। अब यह बात दूसरी है कि अलग-अलग परिस्थितियों में परिवार टूटने का कलंक अपने माथे झेलने वाली लड़की / महिला या तो पत्नी होती है या प्रेमिका...। पुरुष तो बड़ी आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेता है...। या तो पत्नी पर आरोप मढ़ा जाता है कि - बेचारे पति का इतना ध्यान ही नहीं रखा होगा , तभी तो बाहर भटका...। अगर उसे पत्नी से ही पूरा प्यार मिलता तो क्यों बाहर दूसरी के फेर में पड़ता...। प्रेमिका पर तो खैर डायन , कुलटा , घर उजाड़ने वाली आदि का खिताब नवाज़ ही दिया जाता है...। पर कोई क्या पुरुष से भी ये पूछता है कि भईया , तुम्हारा दिल , दिल और पत्नी का...? या फिर तुम ने तो दूसरा कन्धा तलाश लिया , पर अपने परिवार को बचाने के नाम पर जो तुमने उस ‘दूसरी ’ को भी धोखा दे दिया तो अब तुम्हारी प्रेमिका किसका कन्धा ढूंढे...? अक्सर लोग , खास तौर से औरतें ही , ऐसे मामलों में बड़ा रस लेते हैं । पर कभी क्या इंसान कहे जाने वाले लोग इस सारे मामले में ढेर सारी पीड़ा झेलने वाली उस लड़की के दिल का हाल जानने की कोशिश करते हैं , बिना चटखारे लिए हुए...?
सीरियल में जगदीश न केवल अपना असली नाम ही बदल लेता है , बल्कि बात-बात पर वह अपनी पत्नी आनन्दी को सिर्फ़ इस कारण दुत्कारता है , क्योंकि वह उसके मन-मुताबिक शहरी अन्दाज़ से नहीं रहती...। यह तो खैर सीरियल है , पर असल ज़िन्दगी में भी ऐसा करने वाले लोगों से मैं पूछना चाहूँगी कि अपनी पत्नी से घृणा करने से पहले वे अपने परिवार , वहाँ के माहौल और उनकी पत्नी जिस परिस्थिति में है , उसकी ओर भी गौर कर लें...। बाहरी चकाचौंध ही ज़िन्दगी की असलियत नहीं होती...। क्योंकि बहुत पुरानी कहावत भी तो है ," हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती...।"
ऐसी असल ज़िन्दगी की भी एक-आध घटनाएँ मेरे सामने हैं , जिसमें इस सीरियल की ही तरह पत्नी हर त्याग कर के , ज़िन्दगी की हर लड़ाई...हर कष्ट अपने नाम करके पति को आगे बढ़ने में मदद करती है , और वही पति जब एक सफ़ल इंसान के रूप में दुनिया के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है तो उस पत्नी का त्याग भूल कर उसे ही त्याग देता है...।
" बालिका वधू " में जिस तरह से पति-पत्नी के रिश्ते और युवा मन का गाँव से पलायन , दोनो विषय साथ-साथ ही बड़े असरदार तरीके से दिखाए जा रहे हैं , वो न जाने कितने संवेदनशील दर्शकों को शायद मेरी ही तरह सोचने पर मजबूर कर रहे होंगे । बात चाहे सीरियल की करूँ या असल ज़िन्दगी की , आज आनन्दी के बहाने ही सही , एक सवाल सब से पूछना चाहूँगी...आखिर क्यों...? कब तक...?
शायद इस सवाल का कोई सटीक जवाब हज़ारों आनन्दियों को जग्या के लिए आँसू बहाने से रोक पाएगा...।
3 comments
प्रियंका जी, सचमुच बालिका वधु के बहाने आपने बहुत महत्वपूर्ण बात उठायी है। लोगों को इस बात पर विमर्श करने के लिए आगे आना चाहिए।
ReplyDelete---------
हंसी का विज्ञान।
ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेख,टोना-टोटका।
आद.प्रियंका जी,
ReplyDeleteइस लेख के लिए आप बधाई की पात्र हैं.
इस ज्वलंत समस्या ने आज विकराल रूप धारण कर लिया है , कृत्रिम चकाचौध में लोग अपना ज़मीर तक गिरवी रख दे रहे हैं ! जहाँ तक सारा दोष औरतों के सर मढ़ने का सवाल है तो सदियों से यही होता आया है ! पुरुष प्रधान इस समाज में जागरूकता के वावजूद आज भी औरतों की स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नज़र नहीं आता.!
आपके सारगर्भित और विचारोत्तेजक लेख के लिए धन्यवाद !
आद.प्रियंका जी,
ReplyDeleteइस लेख के लिए आप बधाई की पात्र हैं.
इस ज्वलंत समस्या ने आज विकराल रूप धारण कर लिया है , कृत्रिम चकाचौध में लोग अपना ज़मीर तक गिरवी रख दे रहे हैं ! जहाँ तक सारा दोष औरतों के सर मढ़ने का सवाल है तो सदियों से यही होता आया है ! पुरुष प्रधान इस समाज में जागरूकता के वावजूद आज भी औरतों की स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नज़र नहीं आता.!
आपके सारगर्भित और विचारोत्तेजक लेख के लिए धन्यवाद !