यादों का कोलाज़...
Monday, January 11, 2016
जाने कब, किसने और क्यों कहा होगा-सब्र का फल मीठा होता है...। अबकी तो नए साल की शुरुआत ही एक अनोखे-से सब्र से हुई...। अपने छोटे भाई...वही सेलिब्रिटी ब्लॉगर...अभिषेक कुमार उर्फ़ अभि...ने नया साल मुबारक़ कहने के साथ-साथ ये भी बता दिया कि इस बार हमको अलग से ग्रीटिंग कॉर्ड भी भेजा जा रहा...। साथ में एक ख़त भी...। अब तो इन्तज़ार दुगुना हो चुका था...। जाने कितने बरसों बाद कोई ख़त और कॉर्ड यूँ मिलने वाला जो था, वर्ना अब तो इस ज़माने में फ़ेसबुक, वाट्सएप्प और मैसेज के ज़रिये ही हर अवसर पर शुभकामनाएँ ले ली और दे दी जाती है न...। पत्र लिखना तो जैसे हर कोई भूल ही चुका है, फोन मिला कर या आमने-सामने मिल कर बधाई देने का सिलसिला भी अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है जैसे...।
भाई ने कह तो दिया, पर भला हो भारतीय डाक सेवा का...मुझे सबसे पहले भेजा गया कॉर्ड जाने किस खुशी में वापस चला गया। तो जैसे कि ऐसे में करना लाजिमी था, अभि ने भी सरकारी आसरा छोड़ कर कुरियर की सेवा ली...और लो जी, आज की डाक से वह बहुप्रतीक्षित लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में था...।
लिफ़ाफ़ा खोलने भर की देर थी कि उससे निकल जाने कितने यादों के पाखी मन के आसमान पर अपने पंख फैलाये विचरने लगे...। अन्दर एक बहुत प्यारी ग्रीटिंग, उस पर अभि की उकेरी खूबसूरत सी कैलीग्राफ़िक लिखावट में कुछ मन को छूने वाली पंक्तियाँ और एक शरारती सा, मासूम-सा ख़त...। याद नहीं पड़ता, पिछला ख़त कब और किसने लिखा था मुझे...। सच कहूँ, तो कागज़-क़लम लेकर मैने आखिरी ख़त कब और किसको लिखा, मुझे खुद भी यह याद नहीं...। इसलिए नए साल के शुरू में ऐसा तोहफ़ा पाकर मन बहुत उल्लसित हो गया।
ज़रा याद कीजिए वो पहले के भूले-बिसरे पल...दीवाली हो या फिर नया साल...न केवल ग्रीटिंग कॉर्ड खरीदने या बनाने का शौक परवान चढ़ता था, बल्कि कुछ अपनों को हम महज ग्रीटिंग से ही नहीं, वरन अपने पत्रों से अपनी उपस्थिति जताने के ख़्वाहिशमन्द रहा करते थे...। घरवालों के लिए मेरी पूरी कोशिश रहती थी कि उनको मैं अपने हाथ से बना हुआ कॉर्ड दूँ...। यह आदत मैने एक लम्बे समय तक चुनमुन के अन्दर भी बरकरार रखी...। वैसे भी वह ड्राइंग-पेण्टिंग का इतना शौकीन था कि खुशी-खुशी इस काम को अंजाम देता था...। हाँ, कॉर्ड के अन्दर हर व्यक्ति के हिसाब से चुन-चुन के कुछ लिखने का काम तब भी मेरा ही होता था । कारण सिर्फ़ दो हुआ करते थे, पहला यह कि मेरी लिखावट में काटा-पीटी नहीं हुआ करती थी...और दूसरे, चुनमुन के बहाने ही सही, पर मैं भी अपना बचपन एक बार फिर जी लिया करती थी ।
बचपन में जब भी किसी भी अवसर पर मुझे ग्रीटिंग कॉर्ड्स मिला करते थे, मुझे उन्हें अपनी नज़रों के सामने रखना बहुत भाता था । जाने क्यों उन सबसे एक अपनेपन की खुश्बू सी आती थी । अब टेबिल या कमरे की अलमारी पर तो इक्का-दुक्का कॉर्ड ही जगह पा सकते थे न...? (और वैसे भी उस ज़माने में हम दो कमरों के किराये के मकान में हुआ करते थे ), तो फिर बाकी के कॉर्ड्स...? इसका एक बहुत बढ़िया हल निकाल लिया था मैने...एक मोटे कॉर्डबोर्ड पर उनका एक कोलाज़ जैसा बना लेती थी...। बाकायदा वेल्वेट पेपर, रंगीन टेप, सितारों और शीशों से उस कोलाज़ को सजाती और फिर एक खूबसूरत कलाकृति तैयार हो जाती...। एक अर्सा बीत जाने पर जब नए कोलाज़ का वक़्त आता, तो बड़े सम्हाल कर उन पुराने कॉर्ड्स को निकाल कर अपने ख़ज़ाने का हिस्सा बना लेती...। जाने कितने बरसों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर जब किराये के मकान से निकल कर अपने मकान में कदम रखा...तो कई दिनों में धीरे-धीरे सैटिल होने के बाद भी जब मुझे अपना ख़ज़ाना नहीं मिल पाया, तब जाकर यक़ीन हुआ कि मकान बदलने की आपाधापी में मेरा वो अनमोल यादों का पिटारा अब सिर्फ़ यादों में ही रह गया था...। उसके बाद पता नहीं क्यों, मन कुछ ऐसा उचटा कि कॉर्ड्स हर साल भले सम्हाल के रखती रही, पर उनका कोलाज़ फिर कभी नहीं बना पाई...। कभी-कभी बचपन का वो बीता हुआ वक़्त...वो कोलाज़...और वो लम्हें, सब बड़ी शिद्दत से याद आते हैं...।
पर सच कहूँ...यादों का कोलाज़ तो आज भी सजता है मेरे मन की किसी दीवार पर...और कभी किन्हीं फ़ुर्सत के लम्हों में उन्हें ताक मैं आज भी मुस्करा देती हूँ...।
नये साल की ढेरों शुभकामनाओं के साथ...
भाई ने कह तो दिया, पर भला हो भारतीय डाक सेवा का...मुझे सबसे पहले भेजा गया कॉर्ड जाने किस खुशी में वापस चला गया। तो जैसे कि ऐसे में करना लाजिमी था, अभि ने भी सरकारी आसरा छोड़ कर कुरियर की सेवा ली...और लो जी, आज की डाक से वह बहुप्रतीक्षित लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में था...।
लिफ़ाफ़ा खोलने भर की देर थी कि उससे निकल जाने कितने यादों के पाखी मन के आसमान पर अपने पंख फैलाये विचरने लगे...। अन्दर एक बहुत प्यारी ग्रीटिंग, उस पर अभि की उकेरी खूबसूरत सी कैलीग्राफ़िक लिखावट में कुछ मन को छूने वाली पंक्तियाँ और एक शरारती सा, मासूम-सा ख़त...। याद नहीं पड़ता, पिछला ख़त कब और किसने लिखा था मुझे...। सच कहूँ, तो कागज़-क़लम लेकर मैने आखिरी ख़त कब और किसको लिखा, मुझे खुद भी यह याद नहीं...। इसलिए नए साल के शुरू में ऐसा तोहफ़ा पाकर मन बहुत उल्लसित हो गया।
ज़रा याद कीजिए वो पहले के भूले-बिसरे पल...दीवाली हो या फिर नया साल...न केवल ग्रीटिंग कॉर्ड खरीदने या बनाने का शौक परवान चढ़ता था, बल्कि कुछ अपनों को हम महज ग्रीटिंग से ही नहीं, वरन अपने पत्रों से अपनी उपस्थिति जताने के ख़्वाहिशमन्द रहा करते थे...। घरवालों के लिए मेरी पूरी कोशिश रहती थी कि उनको मैं अपने हाथ से बना हुआ कॉर्ड दूँ...। यह आदत मैने एक लम्बे समय तक चुनमुन के अन्दर भी बरकरार रखी...। वैसे भी वह ड्राइंग-पेण्टिंग का इतना शौकीन था कि खुशी-खुशी इस काम को अंजाम देता था...। हाँ, कॉर्ड के अन्दर हर व्यक्ति के हिसाब से चुन-चुन के कुछ लिखने का काम तब भी मेरा ही होता था । कारण सिर्फ़ दो हुआ करते थे, पहला यह कि मेरी लिखावट में काटा-पीटी नहीं हुआ करती थी...और दूसरे, चुनमुन के बहाने ही सही, पर मैं भी अपना बचपन एक बार फिर जी लिया करती थी ।
बचपन में जब भी किसी भी अवसर पर मुझे ग्रीटिंग कॉर्ड्स मिला करते थे, मुझे उन्हें अपनी नज़रों के सामने रखना बहुत भाता था । जाने क्यों उन सबसे एक अपनेपन की खुश्बू सी आती थी । अब टेबिल या कमरे की अलमारी पर तो इक्का-दुक्का कॉर्ड ही जगह पा सकते थे न...? (और वैसे भी उस ज़माने में हम दो कमरों के किराये के मकान में हुआ करते थे ), तो फिर बाकी के कॉर्ड्स...? इसका एक बहुत बढ़िया हल निकाल लिया था मैने...एक मोटे कॉर्डबोर्ड पर उनका एक कोलाज़ जैसा बना लेती थी...। बाकायदा वेल्वेट पेपर, रंगीन टेप, सितारों और शीशों से उस कोलाज़ को सजाती और फिर एक खूबसूरत कलाकृति तैयार हो जाती...। एक अर्सा बीत जाने पर जब नए कोलाज़ का वक़्त आता, तो बड़े सम्हाल कर उन पुराने कॉर्ड्स को निकाल कर अपने ख़ज़ाने का हिस्सा बना लेती...। जाने कितने बरसों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर जब किराये के मकान से निकल कर अपने मकान में कदम रखा...तो कई दिनों में धीरे-धीरे सैटिल होने के बाद भी जब मुझे अपना ख़ज़ाना नहीं मिल पाया, तब जाकर यक़ीन हुआ कि मकान बदलने की आपाधापी में मेरा वो अनमोल यादों का पिटारा अब सिर्फ़ यादों में ही रह गया था...। उसके बाद पता नहीं क्यों, मन कुछ ऐसा उचटा कि कॉर्ड्स हर साल भले सम्हाल के रखती रही, पर उनका कोलाज़ फिर कभी नहीं बना पाई...। कभी-कभी बचपन का वो बीता हुआ वक़्त...वो कोलाज़...और वो लम्हें, सब बड़ी शिद्दत से याद आते हैं...।
पर सच कहूँ...यादों का कोलाज़ तो आज भी सजता है मेरे मन की किसी दीवार पर...और कभी किन्हीं फ़ुर्सत के लम्हों में उन्हें ताक मैं आज भी मुस्करा देती हूँ...।
नये साल की ढेरों शुभकामनाओं के साथ...
3 comments
Areyyy waaaaah....lovely...
ReplyDeleteAur aakhiri khat kab likha tha ye sach mein yaad nahi tumhe???? :D
Tumne mere bahaane se kitna kuch yaad dila fir se...dekho to lagta hai aisa ki hum sirf greetings card ke baarw mein likh rahe...chaahe mera blog ho ya fusion. Waise theek bhi hai na re....itna obsession wali aadat jo hai ye...
And u know greetiवर्ल्ड बुक फेयर में दिखा ये खूबसूरत सन्देश। #booksaremylife ngs likhte hue mujhe kitna sukoon mil raha tha :)
ReplyDeleteAreyyy waaaaah....lovely...
Aur aakhiri khat kab likha tha ye sach mein yaad nahi tumhe???? :D
Tumne mere bahaane se kitna kuch yaad dila fir se...dekho to lagta hai aisa ki hum sirf greetings card ke baarw mein likh rahe...chaahe mera blog ho ya fusion. Waise theek bhi hai na re....itna obsession wali aadat jo hai ye...
And u know greeti ngs likhte hue mujhe kitna sukoon mil raha tha :)
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १२०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "तुम्हारे हवाले वतन - हज़ार दो सौवीं ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !