सराय
Friday, March 30, 2018
लो,
आज सौंप रही हूँ तुम्हें
तुम्हारे दिए सभी वादे;
खोल रही हूँ
अपना नेह-बंधन
मेरे प्यार के पिंजरे का
ताला खुला है
जाओ,
खूब ऊँची परवाज़ भरो
दूर तक विस्तार करो
अपने पँखों का
और जब कभी थक जाना
तो लौटना नहीं
मैं तक न सकूँगी तुम्हारी
राह,
इंतज़ार भी नहीं करूँगी
तुम्हारे लौट आने का
क्योंकि
तुमने शायद
कभी ठीक से देखा ही नहीं;
मैं बसेरा थी तुम्हारा
कोई सराय नहीं...।
-प्रियंका गुप्ता
2 comments
कविता में गहरी कचोट है। आप निरन्तर लिखिए।आपकी कविताएँ भी गद्य रचनाओं की तरह सशक्त हैं।
ReplyDeleteइस उत्साहवर्द्धन के लिए बहुत आभारी हूँ...|
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