जाने क्या गुनगुना गई...यादें...

Tuesday, February 02, 2016

कितनी बार ऐसा होता है न कि कोई मीठी-सुरीली सी याद चुपके से आपके दिल के किसी कोने में बैठी गुनगुनाती रहे, और आपको उसका पता भी न चले...। वक़्त की आपाधापी में...रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की भागदौड़ में फ़ुर्सत किसे होती है कि वो पल भर को थमे...सुस्ताये और अपने अन्दर कहीं गहरे दब चुके ऐसे संगीत का आनन्द ले...?

पर वक़्त पर कब किसकी पकड़ होती है भला...? तभी तो, आप करते रहें अपनी व्यस्तता का गुणगान...। वक़्त एक दिन चुपके से आता है और एक स्वर-लहरी आपके कानों में छेड़ कर हवा हो जाता है...। आप बस मंत्रमुग्ध रह जाते है...। आप होते हैं...आपकी तन्हाई होती है...और होती है गुनगुनाती यादें...।

ऐसी ही एक मीठी याद मेरे मन को भी बस यूँ ही सहला गई...बरसों पुरानी...जब एक दिन अचानक ज़माने बाद ‘ईलू-ईलू’ गाना सुन लिया। इस बार साल का अन्दाज़ा है मुझे...। लेकिन हमेशा की तरह, बस अन्दाज़ा, थोड़ा ऊपर-नीचे सा...। वैसे भी यादें कब किस दस्तावेज़ की मोहताज़ हुई हैं...?

तो साल था शायद 1991-92 का...। मैं किशोरवस्था में प्रवेश कर चुकी थी और मेरा लाडला छोटा भाई चिन्टू तीन-साढ़े तीन साल का था तब...। दुनिया के लिए मेरा ममेरा भाई...पर मेरे मन ने कभी भी भाई-बहन के रिश्तों का उप-विभाजन स्वीकार नहीं किया...। इस लिए वह मेरे लिए हमेशा मेरा भाई रहा...| भाई सिर्फ़ बड़ा या छोटा हो सकता है...चचेरा-ममेरा-फुफेरा नहीं...। न ही मेरे लिए यह ज़रूरी रहा कि रिश्ते सिर्फ़ खून से जुड़े हों...। मन सच्चा तो हर रिश्ता सच्चा...वरना सब झूठ...।

तो बात हो रही थी मेरी उस समय की एक याद की...। ‘सौदागर’ फ़िल्म रिलीज़ हो चुकी थी, पर जैसा कि सभी को याद होगा, तब सिनेमा-हॉल जाकर फ़िल्में देखना इतना आसान काम नहीं होता था...। एड़ी-चोटी का ज़ोर लगता था, मान-मनौव्वल की जाती थी, अच्छे बच्चे की तरह कई दिन तक माँ-बाप की हर बात माननी होती थी, तब कहीं जाकर हमको एक मूवी दिखाई जाती थी...। ऐसे में सबसे सहज-सुलभ तरीका था, मम्मी को मक्खन लगाओ...कोई फ़िल्म क्यों अच्छी है, यह समझाओ...। सहेलियों की मम्मियों का उदाहरण दो कि फ़लाँ-फ़लाँ सहेली की मम्मी अर्थात आँटी ये फ़िल्म उसको दिखा के लाई हैं...फ़िल्म बहुत अच्छी है...वगैरह-वगैरह...। उसके बाद धीरे से यह भी जोड़ दो...हॉल में बहुत पैसे लग जाएँगे...आपको भी मेहनत पड़ेगी सब काम निपटा के निकलने में...। इससे अच्छा शनिवार का दिन है, घर में वी.सी. आर पर ही यह फ़िल्म देख कर सन्तोष कर लेंगे...।

अब यह बात और है कि ये सारे तरीके मेरी सहेलियाँ आजमाया करती थी...। मेरी मम्मी इतनी आसानी से कन्विन्स न होती थी। ऐसे में अक्सर मैं यह चर्चा नानी के घर में चलाती...। माँ ना-नुकुर करती रह जाती, मेरे मामा-मौसी (जिनमें से ज़्यादातर रोज़ की मेहनत से थक कर फ़िल्में देखना बेहद पसन्द करते थे...) तुरन्त तैयार हो जाते...। अगला चरण होता था माँ को इस बात के लिए मनाना कि वे मुझे ऐसे में नानी के यहाँ छोड़ दें...। खुद रुकना चाहें तो ठीक, वर्ना मुझे साथ न ले जाएँ...। खासा मुश्किल होता था यह भी...पर मामला फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी पर सैटिल होता था...। माने, अगर माँ मान गई तो मैं खुश...नहीं मानी तो भी...मैं ही दुःखी...।

तो जब उस बार ‘सौदागर’ वी.सी.आर पर देखे जाने के लिए आई, मैं उस दिन तो नहीं रुक पाई...पर जाने किस काम से माँ को दूसरे दिन ही नानी के यहाँ फिर से जाना पड़ा...। शायद छोटी मौसी को कोई ज़रूरी खरीददारी करनी थी और हर बार की तरह माँ और मौसी चिन्टू की ही तरह मुझे भी नानी के यहाँ छोड़ कर बाज़ार भाग गई...। इस बार उन लोगों की हमेशा वाली दलील बिना मुँह फुलाए मैने सहर्ष स्वीकार कर ली...तुम कहाँ थकती फिरोगी...। घर पर आराम से खाओ-पीओ और चिन्टू के साथ खेलो...।

वैसे तो चिन्टू और मेरा एक-दूसरे के साथ खेलना मुझे बेहद प्रिय था, पर बाज़ार न जाने का मलाल हमेशा मेरे मन में रहता था। ऐसे में चिन्टू महाशय भी मेरे साथ ही मुँह लटका कर कुछ देर मेरी गोद में बैठ कर मुझे ‘प्यारी’ करते थे, फिर सब कुछ भूलभाल कर हम दोनो अपनी दुनिया में मस्त हो जाते थे। उस दिन मेरे मन में अभी भी दोपहर तक रखी मूवी देखने के लालच में ऐसा कोई मलाल पैदा ही नहीं होने दिया...। माँ-मौसी के मुँह फेरते ही मैने मूवी चला ली...। कुछ देर तो चिन्टू बाबू बहुत शराफ़त से मेरा साथ देते रहे, पर जल्दी ही ऊब कर अपनी बदमाशी में जुट गए...जिसमें से नम्बर एक थी...आँगन में रखी बाल्टी का पानी अपने ऊपर डाल कर पहने हुए ही कपड़े को फिर से धुल डालना...। वो नहीं तो फिर किसी भी तौलिया से कमरे में पोंछा लगा कर फिर उसे साबुन से रगड़-रगड़ कर साफ़-सफ़्फ़ाक करने की कोशिश में रिन की पूरी बट्टी का खून कर डालना...।

ऐसे आमतौर पर तो मेरे रहते उनको ऐसा कोई अवसर जल्दी मिलता नहीं था, पर उस दिन मैं उनको सम्हालने के मूड में नहीं थी और वो महाशय मेरे साथ टिक कर मूवी देखने के ख़्याल मात्र से बेज़ार...। ऐसे में उसको बार-बार पास बुलाने के बावजूद जब जनाब इग्नोर मारते रहे, तो खीझ कर मैने कह दिया...न आओ मेरी गोदी में...हम इसको गोद ले लेंगे...(इसको बोले तो विवेक मुश्रान...सौदागर का हीरो...जो जाने चिन्टू को किस एंगिल से छोटा बच्चा दिख रहा था...राम जाने...)

यह सुन कर पहले तो चिन्टू ने मुझे हतोत्साहित करने की भरपूर कोशिश की...ये तो इत्ता मोटा है...तुम गोदी लोगी तो गिर जाओगी...। तुम इसकी दिद्दा थोड़े न हो, जो ये तुम्हारी गोदी आएगा...वगैरह-वगैरह...। मुझे चिन्टू का यह नया रूप देख कर थोड़ा मज़ा भी आने लगा था...पर फिर उसको उत्तेजित होता देख मैने ही हथियार डाल दिए...। हम तो चिन्टू की दिद्दा हैं...उसी को गोदी लेंगे...। मेरा इतना कहने भर की देर थी कि सब कुछ भूल कर चिन्टू झट मेरी गोदी में...। उस दिन तो किसी तरह मैने सौदागर देख ली, पर आश्चर्यजनक रूप से चिन्टू जाने कितने दिनों तक विवेक मुश्रान के लिए अपनी नापसन्दगी जाहिर कर ही देता था...। उसकी किसी भी मूवी का गाना बजते देख कर वह मुँह फेर कर सो जाता था...। पर समय के साथ-साथ उसकी याद में से भी यह किस्सा कहीं गुम गया |

यह किस्सा याद आया तो चलते-चलते एक छोटा-सा किस्सा और...।

एक दिन किसी बात पर नाराज़ होकर चिन्टू ने कुछ हिक़ारत के भाव से हमसे कहा...खुद को बहुत सुन्दर समझती हो क्या...। बन्दरिया लगती हो...। हमने भी बेहद शान्त भाव से उत्तर दिया...अच्छा ! पर सब तो कहते हैं मेरी शक़्ल तुमसे मिलती है...फिर...?
चिन्टू ने बेहद गम्भीरता से इस बात का चिन्तन-मनन किया...एक नतीज़े पर पहुँचे...बेहद आत्मीयता से मेरी गोद में आकर बैठ कर मेरा चेहरा गौर से देखा, और बोले," नहींऽऽऽ...वैसे लगती तो बहुत सुन्दर हो...।"



                    (किसी नई शरारत के बारे में बेहद शरीफ़ाना अंदाज़ में सोचते हुए चिंटू महाशय...)


You Might Also Like

7 comments

  1. Gazabbb re..mazaa aa gayaa.. :)
    Isko kahte hain post....nostalgia ki tankiiii... :)

    ReplyDelete
  2. Gazabbbb..maza aa gaya re :)
    how sweet post..ekdam nostalgia ki tanki hai ye post to... Loved it

    ReplyDelete
  3. ऐसी कितनी बचपन की यादें जब याद आती हैं तो अनायास ही चेहरे पर एक मुस्कान ठहर जाती है

    ReplyDelete
  4. बहुत मासूम और बहुत खूबसूरत यादें, बरबस हंसी फूट पड़ती है।

    ReplyDelete
  5. बहुत मासूम भोली यादें बचपन की।

    ReplyDelete
  6. बचपन की यादें जब आती हैं तो जाने कितनी ही तहें खुलने लगती हैं
    बहुत सुन्दर।

    ReplyDelete
  7. बचपन की यादें जब आती हैं तो जाने कितनी ही तहें खुलने लगती हैं
    बहुत सुन्दर।

    ReplyDelete