अधूरी नींद...टूटे ख़्वाब...और कुछ कच्ची-पक्की सी कहानियाँ (भाग-चार )
Saturday, December 20, 2014
कड़ाके की ठण्ड में ठिठुरती वह बड़ी हसरत से बन्द शीशों के पार झाँक रही थी...। सूरज भी मानो इतनी हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड से डरा-सहमा कोहरे की चादर तान गहरी नींद सोया पड़ा था। बर्फ़ीले से कमरे में ज़िन्दा रहने के लिए उसे गर्माहट की सख़्त दरकार थी, पर दरवाज़ा इस मजबूती से बन्द था कि शायद उसकी सांस चलाए रखने के लिए हवा भी किसी चोर रास्ते से ही अन्दर आ रही थी, फिर भला वो बाहर जा कर गर्माहट के किसी साधन का इंतज़ाम कैसे कर लेती...। पर इससे पहले कि सुन्न पड़ता उसका शरीर मौत की नींद में सो जाए, भगवान ने उसकी सुन ली...। जाने कहाँ से धूप का एक नन्हा, शरारती-सा टुकड़ा सबकी नज़र बचा चुपके से खिड़की से घुसा और फुदक कर उसकी गोद में बैठ गया...। उसकी मासूम गर्माहट में भी एक जादुई असर था। वो मरते-मरते जी गई...।
जान-में-जान आई तो नीले पड़ रहे होंठो पर भी मुस्कान लौट आई। अब उसे कुछ नहीं हो सकता था...। धूप का वो टुकड़ा जब तक उसकी हथेलियों पर खेल रहा था, ठण्ड उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती...। उस टुकड़े से उसका मोह जाग गया था...। उसे कभी कहीं नहीं जाने देगी, हमेशा अपने पास रखेगी...सोच कर उसने अपनी मुठ्ठी बन्द कर ली...।
सहसा अपनी बेबसी पर उसकी आँखें भर आई। वो नन्हा टुकड़ा तो जाने कब इतना बड़ा होकर पूरे कमरे में फैल चुका था...। उसका पूरा बदन तो सर्दी की गिरफ़्त से आज़ाद हो चुका था, पर उसकी मुठ्ठी अब भी खाली थी...।
जान-में-जान आई तो नीले पड़ रहे होंठो पर भी मुस्कान लौट आई। अब उसे कुछ नहीं हो सकता था...। धूप का वो टुकड़ा जब तक उसकी हथेलियों पर खेल रहा था, ठण्ड उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती...। उस टुकड़े से उसका मोह जाग गया था...। उसे कभी कहीं नहीं जाने देगी, हमेशा अपने पास रखेगी...सोच कर उसने अपनी मुठ्ठी बन्द कर ली...।
सहसा अपनी बेबसी पर उसकी आँखें भर आई। वो नन्हा टुकड़ा तो जाने कब इतना बड़ा होकर पूरे कमरे में फैल चुका था...। उसका पूरा बदन तो सर्दी की गिरफ़्त से आज़ाद हो चुका था, पर उसकी मुठ्ठी अब भी खाली थी...।
2 comments
तुम्हारी इन पोस्ट्स पर हम कुछ नहीं कह पाते हैं. निशब्द..
ReplyDeleteनो वर्ड्स टू एक्सप्रेस...कभी कभी होता है न...
हाँ लेकिन एक बात यूँही दिमाग में आई...
धूप का एक नन्हा, शरारती-सा टुकड़ा
गज़ब्ब..इतना हेवी :)
एक छोटा तिनका सहारा दे कर हाथ से निकल जाता है... ज़िन्दगी अवाक रह जाती है. भावपूर्ण कहानी, बधाई.
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