अधूरी नींद...टूटे ख़्वाब...और कुछ कच्ची-पक्की सी कहानियाँ (भाग-चार )
Saturday, December 20, 2014
जान-में-जान आई तो नीले पड़ रहे होंठो पर भी मुस्कान लौट आई। अब उसे कुछ नहीं हो सकता था...। धूप का वो टुकड़ा जब तक उसकी हथेलियों पर खेल रहा था, ठण्ड उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती...। उस टुकड़े से उसका मोह जाग गया था...। उसे कभी कहीं नहीं जाने देगी, हमेशा अपने पास रखेगी...सोच कर उसने अपनी मुठ्ठी बन्द कर ली...।
सहसा अपनी बेबसी पर उसकी आँखें भर आई। वो नन्हा टुकड़ा तो जाने कब इतना बड़ा होकर पूरे कमरे में फैल चुका था...। उसका पूरा बदन तो सर्दी की गिरफ़्त से आज़ाद हो चुका था, पर उसकी मुठ्ठी अब भी खाली थी...।
2 comments
तुम्हारी इन पोस्ट्स पर हम कुछ नहीं कह पाते हैं. निशब्द..
ReplyDeleteनो वर्ड्स टू एक्सप्रेस...कभी कभी होता है न...
हाँ लेकिन एक बात यूँही दिमाग में आई...
धूप का एक नन्हा, शरारती-सा टुकड़ा
गज़ब्ब..इतना हेवी :)
एक छोटा तिनका सहारा दे कर हाथ से निकल जाता है... ज़िन्दगी अवाक रह जाती है. भावपूर्ण कहानी, बधाई.
ReplyDelete