सुनो छोटी-सी गुड़िया की लम्बी कहानी...
Friday, December 20, 2013लोग कहते हैं और मैं भी मानती हूँ...बचपन अक्सर सुहावना ही होता है...। मासूम, बेदाग़, छोटे-छोटे, मीठे-मीठे सपनों और ख़्वाहिशों से भरा...। भेदभाव और ऊँच-नीच से परे...। सही-ग़लत का निर्णय करने में भी अकुशल...। पर फिर भी...शायद कच्चा मन भी अक्सर पहचान ही लेता है कि कुछ तो है, जो नहीं होना चाहिए...।
मेरा कच्चा मन भी बहुत छुटपन से महसूसने लगा था, कहीं तो है कुछ, जो ग़लत हो रहा है...। पर क्यों, ये थोड़ा देर से समझ आया...। पर अच्छा यह रहा कि इसका कोई निगेटिव असर नहीं हुआ मेरे बालमन और मेरी ज़िन्दगी पर...। इसके लिए एक बड़ा-सा क्रेडिट मैं अपनी नानी और नाना को दे दूँगी...अपनी मम्मी को भी और कुछ हद तक अपनी दादी को भी...।
(दादी की गोद में...)
माँ नवीं में थी, जब उनकी सगाई और फिर दसवीं में आते-आते शादी भी कर दी गई। पन्द्रह साल की एक चंचल, बेहद शरारती और पिता की बहुत लाडली लड़की, आँखों में वैजयंतीमाला के हाथों कत्थक में प्रभाकर की उपाधि लेती, खुद भी एक दिन उन्हीं की तरह एक निष्णात नृत्यांगना बनने का सपना संजोए वो लड़की नितान्त ही अलग वातावरण में भेज दी गई। साधना की फ़ैन, उनकी तरह ही हेयर-स्टाइल और ‘मेरे महबूब’ की सभी पोशाकों को अपनी दीदी की शादी में सिलवा कर अपनी सहेलियों के बीच ‘स्टाइल-आइकन’ जैसा कुछ रुतबा पाने वाली वो लड़की एक बहुत ही दकियानूसी, सामन्ती सोच वाले ज़मींदार खानदान की इकलौती बहू बना कर भेज दी गई...। माथे पर दो हाथ लम्बा घूँघट, उस पर भी बाहर निकलते वक़्त बन्द गाड़ी के अन्दर भी एक चादर जैसा कुछ डालना...वैजयंतीमाला बनने का सपना इन सब के बोझ तले कब चूर-चूर होकर अनगिनत पाँवों के बीच कुचल भी गया, खुद वो भी नहीं जान पाई...।
माँ की शादी के बहुत सारे सालों के बाद मैं इस धरती पर आई...। एक लम्बी, संघर्षपूर्ण प्रतीक्षा के बाद एक ‘फ़ाइटर’ आई माँ की गोद में...। ‘फ़ाइटर’ इस लिए क्योंकि आने से पहले ही मैंने मौत के साथ एक जंग लड़ी और जीत भी गई...।
३१ अक्टूबर की सुबह यूँ ही चेकअप कराने डॉ. बोरबंकर के पास पहुँची माँ को उन्होंने आनन-फ़ानन में सीजिरियन करने के लिए भर्ती कर लिया। आशंका थी दोनो में एक बचेगा...या तो जो है,वो...या वो, जो आएगा/आएगी...। अचानक हुए डॉक्टर के इस नादिरशाही से फ़ैसले से कुछ हतप्रभ, कुछ डरी माँ ने कई सारे बहाने बनाए वहाँ से निकल भागने के लिए, पर दो नर्सों की पहरेदारी में इसका बिल्कुल मौका नहीं मिला...। इससे पहले कि नानी अस्पताल आ पाती, सात ही महीने में मैं दुनिया का सामना करने आ चुकी थी। सच में बित्ते भर की मैं ज़िन्दगी की जंग लड़ने के लिए इन्क्यूबेटर में डाल दी गई थी।
इस जंग में मुझे क्या तकलीफ़ हुई होगी, नहीं जानती...पर माँ के अनुभव सुन कर भीतर तक काँप गई थी...। इसलिए इत्तफ़ाकन चुनमुन के समय जब मैं खुद डॉ. बोरबंकर के पास ही ले जाई गई थी, तो ये जानने के बाद कि वो ही मेरी जीवनरक्षक थी, उनके अथाह स्नेह के साथ-साथ उनसे इस बात का भरोसा भी पाया था कि कुछ भी हो...वो मेरा सीजिरियन नहीं होने देंगी...।
ख़ैर, बात मेरे बचपन की हो रही थी। ज़िन्दगी की पहली जंग तो मैं जीत गई थी, पर अभी तो न जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़नी बाकी थी...। मैं कहीं-न-कहीं इन सब कुरीतियों, ऐसी मानसिकताओं और ऐसी जंगों की आभारी भी हूँ, क्योंकि इनसे जूझते-लड़ते हुए ही आज मैं एक ऐसी इंसान बन सकी हूँ, जिस पर मुझे (कह सकती हूँ...) फ़ख़्र है...।
जब से मैंने होश सम्हाला, कुछ-कुछ समझने लायक हुई, तब से ही जाने कैसे विभिन्न कुरीतियों के ख़िलाफ़ मन में एक विद्रोह जागने लगा था। पैदा होने के बाद मैने ननिहाल को अपने मायके के रूप में बहुत करीब से जाना था। नाना-नानी, मामा-मौसियों की मैं बहुत लाडली थी। ददिहाल में सिर्फ़ एक मेरी दादी ही थी, जिनके लिए मैं कोई पाप नहीं थी। जब तक वो ज़िन्दा रही, मुझे देख कर...मेरी बातें सुन कर वो आनन्दित होती रही...। मेरे आने की जानकारी होने पर मेरे लिए मेरी पसन्द की चीज़ें बनाना और फिर मेरा उनको चाव से खाते हुए देख कर आह्लादित होना...ये बहुत अच्छे से याद है मुझे...। दादा (बाबा) के लिए अधिकतर अवसरों पर मैं होकर भी नहीं थी। मेरी एकलौती बुआ, जो माँ से इतनी बड़ी थी कि उनके तीन बेटों में सबसे बड़े वाले भैया माँ से सिर्फ़ चार-पाँच साल ही छोटे थे, उनको भी अपने ‘बेटों वाली’ होने पर बहुत नाज़ था। ‘लड्डू तो टेढ़े भी हों, तो भी भले...’, यह उनका फ़ेवरिट डायलॉग था। दादा कई बार सार्वजनिक रूप से यह जताने से नहीं चूकते थे कि उनके वंश का कोई नामलेवा नहीं रहने वाला...‘बाँझ’ बहू के चलते...। सच कहूँ, तो अपनी डिक्शनरी से जिन शब्दों को मैने निकाल फेंका है, उनमें यह शब्द बहुत पहले ही शामिल हो गया था...अपने समस्त अर्थों के साथ...।
पापा की दूसरी शादी हो सके, ताकि खानदान को एक चश्मो-चिराग़ मिल जाए...इस बात की कोशिश एक लम्बे अर्से तक होती रही...। पर सफ़ल इस लिए नहीं हो पाई कि सामान्यतया एक सीधी-साधी लड़की होने के बावजूद अन्याय के ख़िलाफ़ मैं हमेशा से ही, काफ़ी छुटपन से ही, बहुत विद्रोही और कुछ हद तक ‘लड़ाका’ भी रही हूँ...।
बहुत सारे मानसिक-आर्थिक दबावों के बावजूद माँ ने और मेरे नाना-नानी ने मुझे कभी लड़का-लड़की के भ्रेदभाव का शिकार नहीं होने दिया। सच्चाई के लिए लड़ो ज़रूर, पर बड़ों का सम्मान और छोटों के लिए अपनापन, इनका मान रखते हुए...ये शिक्षा मेरे संस्कारों में घुली-मिली सी है जैसे...। आज भी मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि जो सही है, उसका साथ दे सकूँ...हाँलाकि इस दृढ़ता के चलते कई बार मैने अपने कुछ अजीज़ रिश्ते खोने का दर्द भी सहा है...और शायद इसी दर्द ने मुझे रिश्तों की क़दर करना भी सिखा दिया...।
अधिकतर लोग मानते हैं कि बेटियाँ पिता की ज़्यादा लाडली और उनके करीब होती हैं और बेटे माँ के...। पर मैने खुद को हमेशा माँ के ज़्यादा करीब पाया। बचपन से ही पर्दा प्रथा, बेटा-बेटी के बीच किया जाने वाला भेदभाव, मानसिक दासता की पैरवी सा करते कुछ व्रत-विधान और रीति-रिवाज़ों के प्रति मेरा मन एक आक्रोश से भर जाता था। जो सही है, उसे अपनाओ पर किसी चीज़ का सिर्फ़ इसलिए न अन्धानुकरण करो क्योंकि तुमको ये बताया जाता है कि वैसा करना तुम्हारा फ़र्ज़ है। मैं इस अन्धानुकरण की कट्टर विरोधी हूँ...। सौभाग्य से ससुराल ऐसा मिला, जहाँ ऐसे किसी दबाव का सामना नहीं करना पड़ा मुझे...।
आज हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में हैं, पर बड़ा अफ़सोस होता है जब देखती हूँ कि कभी पारिवारिक दबाव के कारण, तो कभी खुद की तथाकथित ‘पुत्रवती भव’ का आशीर्वाद फलीभूत करने की तमन्ना के चलते औरतें ही अपनी बेटी की या तो जन्मपूर्व हत्या करने में या उनको दोयम दर्ज़े का अहसास कराने में आगे रहती हैं...। बेटा हीरा है, कंधों पर लाद कर न केवल तीर्थ करा लाएगा वरन उसके कारण परलोक भी सुधर जाएगा...ऐसा दिल से यक़ीन करने वालों में सिर्फ़ अनपढ़, कम-पढ़े लिखे लोग ही नहीं, बल्कि उच्च-शिक्षित और हर तरह से साधन-सम्पन्न लोग भी शामिल हैं...और उनमें से भी ज़्यादातर स्त्रियाँ...।
कई बार ऐसे लोगों पर इतना गुस्सा आता है कि मन करता है कि उनका कॉलर पकड़ कर पूछूँ,"ये जो इतने लोग वृद्धाश्रम में दिखाई देते हैं, ज़रा एक बार पूछ के आओ उनसे, कितनों को उनकी बेटियाँ वहाँ छोड़ कर गई हैं...?" पर जानती हूँ, उनके पास अपने तर्क होंगे...। असल में जब इंसान खुद अपनी सोच नहीं बदलना चाहता, दिमाग़ नहीं खोलना चाहता, सड़े-गले विचारों से चिपका रह कर ही संतुष्ट है, तब तक कोई और कुछ भी नहीं कर सकता...।
पर इतने क्षोभ के बीच भी कई बार आशा की किरण दिखाई पड़ जाती है, जब कभी कहीं किसी को घर में बेटी का जन्म होने पर भी खुशियाँ मनाते...बधाइयाँ लेते-देते देखती हूँ...पर बिना उसी पुराने जुमले के...बधाई हो आपके घर लक्ष्मी आई है...। बेहतर हो, बेटी को लक्ष्मी या कोई और देवी मानने की बजाए उसे एक इंसान, एक सन्तान और अपने वंश-खानदान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हुए स्वीकार करना सीखिए...और अपनी बेटी-बहन को एक इंसान के रूप में ही अपने पर गर्व करने दीजिए...।
आज नम्रतापूर्वक एक सच स्वीकारूँ, घमण्ड नहीं, पर एक इंसान के रूप में खुद पर गर्व करना आता है मुझे...।
8 comments
You are a fighter....ab bhi...
ReplyDeleteand I am so proud of you!! :)
सुनो छोटी-सी गुड़िया ! तुम आफ़त की पुड़िया हो बिटिया ! जीवन में हर बाधा पर विजय पा लोगी और जिस विधा को स्पर्श करोगी वह निखर जाएगी । कविता -कहानी के साथ संस्मरण और रेखाचित्र के क्षेत्र में भी अपनी कलम की पैठ बनाना । वैसे ही साथ हैं मेरी दुआएँ, जैसे खुशबू के साथ ताज़ा हवाएँ । ढेर सारी शुभकामनाएँ
ReplyDeleteऐसा लग रहा था कि अभी बहुत कुछ और है कहने को... समथिंग लाइक ज़माना बड़े ग़ौर से सुन रहा था टाइप... एक फाइटिंग स्पिरिट के साथ लिखा गया एक फ़ाइटर का आत्मकथ्य... बस ऐसी ही बनी रहें!!
ReplyDeleteऔर हाँ, चुनमुम को प्यार!!
ऐसा लग रहा था कि अभी बहुत कुछ और है कहने को... समथिंग लाइक ज़माना बड़े ग़ौर से सुन रहा था टाइप... एक फाइटिंग स्पिरिट के साथ लिखा गया एक फ़ाइटर का आत्मकथ्य... बस ऐसी ही बनी रहें!!
ReplyDeleteऔर हाँ, चुनमुम को प्यार!!
आप पर गर्व है हमें...!
ReplyDeleteअपनी सहज सी मुस्कान के साथ लड़ती रही है... लड़ती रहेंगी जीवन की कठिनतम लड़ाईयां यूँ ही आप... कहता है आपके चेहरे पर झलकता आत्मविश्वास!
अनंत शुभकामनाएं!
बेहतर हो, बेटी को लक्ष्मी या कोई और देवी मानने की बजाए उसे एक इंसान, एक सन्तान और अपने वंश-खानदान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हुए स्वीकार करना सीखिए...और अपनी बेटी-बहन को एक इंसान के रूप में ही अपने पर गर्व करने दीजिए...।
ReplyDeleteप्रेरक पंक्तियां
खुद पर गर्व करना भी चाहिये और तब तो जरुर जब आपने कोई जीत या अचीवमैंट हासिल की हो।
ReplyDeleteसुन्दर और रोचक संस्मरण
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पढ़ते - पढ़ते मन इतना मान महसूस कर रहा है कि बस एक ही दुआ दूँगी आपके अपने ऊपर का मान सब का मान बने ....
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