कभी ताखों पर जलते थे दिए...

Friday, December 27, 2013

जब छोटी थी तो बहुत सारी चीज़ों की तरह कभी घर के किसी कोने में जलती हुई एक नन्हीं सी मोमबत्ती का महत्व भी नहीं समझ पाई थी। आज जब बिजली विभाग की अनवरत कृपा के चलते कई बार शाम से लेकर रात तक भी बत्ती जाती है, तो भी मोमबत्ती की शक़्ल देखे कितना ज़माना गुज़र गया, याद भी नहीं...। भूले-भटके किसी बच्चे के बर्थडे पर भले कहीं इस नन्हीं को रूप बदले हुए, थोड़ा सजे-सँवरे हुए देख भी लेती थी, पर अब तो वहाँ भी आतिशबाज़ी छूटती दिखाई देती है...।


अक्सर याद आता है वो ज़माना...ज़्यादा समय हुआ भी नहीं उसे गुज़रे...फिर भी जाने कहाँ भुला दिया गया...। गर्मी-सर्दी-बरसात की शामों में बिजली का जाना...माँ के लिए आफ़त, कि अन्धेरे में मोमबत्ती, ढिबरी या लालटेन की मंद रोशनी में खाना कैसे बनेगा, पर हम बच्चों के लिए वो उत्सव जैसा होता था...। घर के बाकी काम करूँ, न करूँ, मोमबत्ती जलाने मैं सबसे पहले दौड़ पड़ती थी...। लालटेन थी तो एक, पर सामान्यतया वो जलाई नहीं जाती थी...चिमनी साफ़ करने का एक और झंझट...। ढिबरी में मेरी कोई रुचि नहीं थी...। उसकी लौ से उठता वो तेज़, काला-सा धुआँ हमेशा मुझमें एक अनाम सी अरुचि पैदा करता था। माँ कभी कहती भी, ढिबरी जला दो...तो अव्वल तो मैं ढिबरी तक पहुँचने में ही लम्बा वक़्त बिता देती...और जब पहुँच भी जाती तो बड़ी शराफ़त से उसे लाकर माँ के हवाले कर देती...आप ही जला दीजिए...।

माँ का ध्यान कभी इस बात की ओर गया ही नहीं...आज तक नहीं...। अब तो उनको इन बातों की याद भी नहीं...। पर मैं कैसे भूल जाऊँ...? वो गर्मी की शामों और रातों में माँ का पंखा झलना और मेरा उनकी गोद में सिर रख कर घण्टों, अपलक मोमबत्ती की नाचती लौ को निहारना...और इसी तरह पलकें कब झपक कर मुझे सपनों की दुनिया में सैर कराने ले जाती, पता भी न चलना...।  माँ का हाथ बदल-बदल कर पंखा झलते रहना, थक जाने के बावजूद सिर्फ़ इस कारण न रुकना कि गर्मी और मच्छर की वजह से मेरी नींद न खुल जाए...। नींद के हाथों अवश हो उनका सिर हल्के से तकिए पर टिक जाना...मेरा नींद में ही कुनमुनाना और उनके हाथों का फिर से चलना...चाहूँ भी तो कैसे भुला दूँ...? सर्दी की रातों में एक बचकाना-सा बहाना (वैसे मेरे बहाने आज भी बचकाने ही होते हैं अक्सर...) कि मोमबत्ती के पास बैठने से गर्माहट मिलती है, और फिर माँ की आँख बचा कर लौ में तेज़ी से उँगली फिरा देना...इस तरह कि जले न...। ऐसे में लहराती लौ का बल खाना...बहुत गज़ब का आनन्दित कर जाता था...। बिजली आते ही पूरे मोहल्ले के बच्चों का समवेत स्वर में ‘होऽऽऽ’ करते हुए शोर मचाना...छत पर चढ़ कर रात के सूनेपन में थोड़ी दूर रह रहे किसी और घर की छत पर मौजूद अपने संगी-साथी को आवाज़ देकर पुकारना...माँओं की एक मीठी-सी झिड़की को नज़र‍अन्दाज़ करते हुए सबका हुल्लड़ मचाना...कितनी-कितनी यादें हैं उन पलों की, जो आज भी गुदगुदा जाती हैं...।

कई बार बिजली जाने पर सोचती हूँ, आजकल के बच्चे नई टेक्नोलॉज़ी से भले लाभान्वित हों, पर उस सुख से बिल्कुल अनजान हैं...जो गर्मी-सर्दी की उन रातों और शामों में हमने भोगा है...। उन बच्चों ने जो सुविधाएँ पाई हैं, उन सुविधाओं ने सुख तो शायद बहुत दिए, पर सकून नहीं...। युवा होते या हो चुके बच्चे अपने किसी साथी के साथ जिस कैण्डिल-लाइट डिनर को खाने के लिए पैसा खर्च करते हैं, हम लोगों ने न जाने कितनी बार ऐसा डिनर किया है, और वो भी बिना कानी-कौड़ी खर्च किए हुए...। आज अगर देखा जाए तो घरों में जेनरेटर-इन्वर्टर के रहते अधिकांश समय बिजली हो, न हो...पर पंखा और बत्तियाँ रहती ही हैं...। अब के बच्चे मोमबत्ती की लौ देख कर ‘इरीटेट’ होते हैं...। उनको इस बात की खुशी नहीं होती कि आज उनके पास हम लोगों से ज़्यादा सुविधाएँ हैं, बल्कि इस बात से दुःखी होते हैं, कि वो सुविधाएँ उनके पड़ोस के बच्चे से कम क्यों हैं...। आज रात के सन्नाटे में ‘होऽऽऽऽ’ करके चिल्लाना उनके लिए...हाउ डाउनमार्केट...की श्रेणी में आ चुका है...। कम्प्यूटर, मोबाइल और गेम्स की दुनिया में सिमटे-उलझे इन बच्चों के संगी-साथी उनके आसपास हैं ही कहाँ...आवाज़ देकर बुलाने के लिए...? छत पर चढ़ना, चाँद को बादलों के साथ लुका-छिपी खेलते देखना, ठण्डी बयार की थपकी से झपकी मारती आँखों का कहीं दूर किसी अनजान पंछी के चिल्लाने से खुल जाना...और फिर सहम कर माँ की गोदी में, उनके आँचल तले छुप कर धीरे से झाँकना...ये सुख कहाँ हैं इन बच्चों के पास...? खुले आसमान के नीचे, तारों की छाँव तले लाइन से गद्दे बिछा कर उनके एक सिरे से दूसरे सिरे तक लोटापोटी करते हुए जाना...चचेरे-ममेरे भाई-बहनों के साथ किसी एक ही गद्दे-तकिया को लेकर होनी वाली लड़ाइयाँ...फिर किसी की भी माँ-पापा की डाँट सुन कर मुँह फुला कर चुपचाप लेट जाना और पल भर बाद ही किसी बात पर आपस में फिर खिलखिलाते हुए जाने कब सो जाना...ये सुख किस सुविधा से मिल सकता है, किसी को नहीं पता...।

आज सुविधा-सम्पन्न घरों से ढिबरी और लालटेनें लगभग गायब हो चुकी हैं...। झलने वाले पंखे तब ही याद आते हैं, जब घर का इन्वर्टर डिस्चार्ज़ हो जाता है...। आज घर के बच्चे लालटेन की चिमनी साफ़ करने के लिए माँओं की चिरौरी नहीं करते...ढिबरी में तेल भरने में सावधानी बरत कर बड़ा हो जाने का सर्टिफ़िकेट पाने के इच्छुक नहीं होते...मोमबत्ती की लौ में उँगली फिरा कर ‘बहादुर’ होने की शेखी नहीं बघारते...और सबसे बड़ी बात...अन्धेरे से डर कर अब वो माँ का आँचल नहीं तलाशते...। बाहर के अन्धेरे ख़त्म हो गए, पर मन के बढ़ गए हैं...।

हम सच में कितने आधुनिक हो गए हैं...हैं न...?

(चित्र गूगल से साभार )

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7 comments

  1. तुम तो जानती हो न रे..तुम्हारे ब्लॉग मेरी बातें पर इसी विषय पर लिखने का हम सोचे थे, और देखो कैसा इत्तेफाक है, की हम डायरी में इस विषय पर पिछले साल दिसंबर में ही लिख दिए थे....लेकिन आलसी बहुत हैं, तुम तो जानती हो....इसको ब्लॉग पर डाल नहीं पाए....सब तो तुमने लिख ही दिया जो हम कहना चाहते थे...याद है उस दिन जब हम पूरे दिन बात करते रहे थे...ये टॉपिक भी उठा था न, और तुमको कुछ बताये भी थे....याद है न तुम्हे? नहीं अभी कहेंगे नहीं यहाँ.....कभी आराम से तुम्हारे ब्लॉग मेरी बातें पर लगायेंगे...इसका दूसरा भाग....हम लिख नहीं पायेंगे, तो हमको डांट डांट कर लिखवाना तुम्हारा काम रहा....

    चलो, बस इस पोस्ट के लिए एक बड़ा सा थैंक्स ले लो, बिना ना-नुकुर किये....वरना समझ जाना !!

    बहुत ज्यादा नोस्टालजिक पोस्ट है रे लड़की !! :)

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  2. अभि, भाई...बहुत अच्छे से याद है सब बातें...बस तुमने ये नहीं बोला था कि तुम डायरी में लिख चुके हो ऐसे विषय पर...| जब हमने कहा कि हम जल्दी ही इस पर लिखेंगे, तब भी नहीं...| वैसे भी हम दोनों की यादें बहुत हद तक एक जैसी ही थी न...??? चलो, इसका दूसरा भाग तुमसे लिखवाना मेरा काम...डांट के चाहे मार के...|

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  3. समय कैसे तो बदल जाता है न इतना...
    जाने क्यूँ कितनी ही बातें बस बीते दिनों की बात बन कर ही रह जाती है...
    लौटना होता रहे यादों में कि ये सहेजी गयी यादें ही आने वाले समय को बीते समय का आइना दिखाएंगी!

    सुन्दर पोस्ट!

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  4. ऑस्ट्रेलिया से मेल में बहुत अच्छी प्रतिक्रया मिली, आदरणीय हरीश अंकल की ओर से, मेरी मेल में...उसे यहाँ कॉपी-पेस्ट करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई...|

    Dear Ch. PRIYANKA,

    Lots of LOVE with SNEHASHISH from Dr. SHOBHANA aunty and HARISH UNCLE.

    What a " WONDERFUL PICTURE " of CHILD HOOD !, which is definitely beyond imagination to present generation and even at some places;

    to their parents too.

    " DHIBRI "," LALTEN " etc are found here only in some museum and children ask to their parents " WHAT IS IT " ? and we have seen that few

    parents are not in position to explain them properly.

    " MAA KE AANCHAL " ki baat kahan karti ho ! aaj kal to " BINA AANCHAL " ke " DRESS " wali MAA, " VO PYAR, VO DULAR " kahan se de ! !

    Ie si liye, kabhi kbhi purane " GEET " yaad aa jate hai...." HO.....Ho.....BACHPAN KE DIN BHULA NAA DENA, AAJ HASE KAL RULAA NAA DENA " !

    LOVE & REGARDS to all at your end.

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  5. बीते दिनों की कसक लिए सुन्दर प्रस्तुति ..
    हमारे ज़माने में और आज के ज़माने में जमी आसमॉ का अंतर नज़र आता है ..आज की पीढ़ी कहाँ सोचती है हमारे बीते ज़माने को ..
    ...मैं भी जाने कितनी बार ऐसे ही खो जाती हूँ ..आज फिर पढ़कर याद आने लगे वे दिन ..

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  6. बीते दिनों की कसक लिए सुन्दर प्रस्तुति ..
    हमारे ज़माने में और आज के ज़माने में जमी आसमॉ का अंतर नज़र आता है ..आज की पीढ़ी कहाँ सोचती है हमारे बीते ज़माने को ..
    ...मैं भी जाने कितनी बार ऐसे ही खो जाती हूँ ..आज फिर पढ़कर याद आने लगे वे दिन ..

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